देश-देशांतर/सिक्यूरिटी स्कैन: अमेरिका-ईरान विवाद और भारत की चिंताएँ
संदर्भ एवं पृष्ठभूमि
अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप ने इस बहुपक्षीय परमाणु समझौते से अमेरिका के अलग करने की घोषणा करते हुए ईरान पर फिर से आर्थिक प्रतिबंध लागू कर दिये हैं। समझौते से अमेरिका के हटने की घोषणा के कुछ देर बाद ही उन्होंने ईरान के खिलाफ ताजा प्रतिबंधों वाले दस्तावेजों पर हस्ताक्षर कर दिये तथा अन्य देशों को ईरान के विवादित परमाणु हथियार कार्यक्रम पर उसके साथ सहयोग करने के खिलाफ चेतावनी भी दी। विगत लगभग तीन माह से अमेरिका और ईरान के बीच इस डील को लेकर कशमकश चल रही थी। उल्लेखनीय है कि अमेरिका ने पाँच अन्य महाशक्तियों के साथ मिलकर ईरान के साथ तीन साल पहले 14 जुलाई, 2015 को परमाणु समझौता किया था। संयुक्त व्यापक कार्रवाई योजना (Joint Comprehensive Plan Of Action-JCPOA) को ही 'परमाणु डील' के नाम से जाना जाता है।
यहाँ इस समझौते के एक तकनीकी बिंदु को समझ लेना भी आवश्यक है, जिसमें कहा गया है कि अमेरिकी राष्ट्रपति प्रत्येक चार महीने में इस समझौते की समीक्षा कर इसे जारी रखने या न रखने का निर्णय लेंगे। इसी वर्ष जनवरी में जब यह समझौता डोनाल्ड ट्रंप के पास समीक्षा के लिये आया था, तब उन्होंने स्पष्ट कहा था कि अगली बार (मई 2018) जब यह मेरे सामने आएगा तो मैं बारीकी से इसकी समीक्षा करने के बाद ही कोई निर्णय लूँगा। समझौते से हटने के पीछे अमेरिका का तर्क इसके अलावा, परमाणु डील खत्म करने के पीछे इज़राइल को भी एक बड़ी वजह माना जा रहा है। विदित हो कि कुछ ही दिन पहले इज़राइल के राष्ट्रपति बेंजामिन नेतन्याहू ने ईरान पर आरोप लगाया था कि उसने डील की आड़ में अपने परमाणु कार्यक्रम को जारी रखा है और दुनिया को धोखे में रखा है। वहीं अमेरिका के विदेश मंत्री माइक पोंपियो ने भी कहा था कि इज़राइल ने जो बातें कही हैं, वह सटीक हैं और ईरान ने दुनिया को धोखे में रखा है। (टीम दृष्टि इनपुट) |
समझौते की पृष्ठभूमि
13 साल के कूटनीतिक प्रयासों के परिणामस्वरूप ईरान एवं छह प्रमुख शक्तिशाली देशों (पी5+1=अमेरिका, रूस, चीन, फ्राँस, ब्रिटेन+जर्मनी) के बीच 18 दिनों तक वियना में चली वार्ता के बाद इस समझौते को अंतिम रूप दिया गया था।
क्या खास था समझौते में?
- ईरान अपने परमाणु केंद्रों की निगरानी रखने पर सहमत हुआ था
- ईरान ने अपने परमाणु संयंत्रों की जाँच के लिये संयुक्त राष्ट्र के निरीक्षकों को अनुमति देने पर सहमति जताई थी
- ईरान को अपने कुल संवर्धित यूरेनियम का 98% हिस्सा नष्ट करना था
- ईरान पर हथियार खरीदने के लिये लगाया गया प्रतिबंध 5 वर्षों तक जारी रहना था
- ईरान 8 साल तक किसी भी तरह की मिसाइल तकनीक नहीं खरीद सकता था
- 15 साल तक ईरान परमाणु हथियार भी नहीं बना सकता था
- ईरान को परमाणु कार्यक्रम छोड़ने के बदले अमेरिका, यूरोपीय देशों और संयुक्त राष्ट्र द्वारा लगाए गए आर्थिक प्रतिबंधों से मुक्ति मिली थी
- ईरान को तेल और गैस के कारोबार, वित्तीय लेनदेन, उड्डयन और जहाजरानी के क्षेत्रों में लागू प्रतिबंधों में ढील दी गई थी
- 100 अरब डॉलर की ज़ब्त संपत्ति का इस्तेमाल करने की छूट ईरान को दी गई थी
कूटनीतिक दृष्टि का अभाव
ट्रंप अक्सर ही अपने पूर्ववर्ती बराक ओबामा के फैसले को पलटते दिखे हैं। अब तक उन्होंने बार-बार खुद को एक ऐसे नेतृत्व के रूप में ही पेश किया है, जो न केवल समझौतों को खत्म करने में निपुण है, बल्कि जिसके पास नीति की गहरी समझ या कूटनीतिक दृष्टि का अभाव है।
- ईरान के साथ परमाणु समझौते से अलग होते हुए राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप ने कहा कि वह आने वाले दिनों में कहीं बेहतर करार करने में सफल होंगे, जो ईरान की बैलिस्टिक मिसाइलों और क्षेत्र में उसके प्रभाव को नियंत्रित करेगा।
- कुछ ऐसा ही उन्होंने तब भी कहा था, जब उन्होंने पेरिस जलवायु समझौते से अमेरिका को बाहर निकाला था, लेकिन नतीजा सबके सामने है।
- अमेरिका में ओबामा केयर से कहीं बेहतर ‘हेल्थकेयर’ लाने का उनका वादा भी सिरे नहीं चढ़ सका है।
- ‘डिफर्ड एक्शन फॉर चाइल्डहुड एराइवल्स प्रोग्राम’ को भी उन्होंने इसी प्रकार अचानक बंद कर दिया था।
- उल्लेखनीय है कि सत्ता में आते ही उन्होंने ट्रांस-पैसिफिक पार्टनरशिप से पीछे हटने की घोषणा की थी।
ईरान पर क्या होगा प्रभाव?
- अधिकांश अंतरराष्ट्रीय व्यापार अमेरिकी डॉलर में होता है। प्रतिबंधों के चलते ईरान को भुगतान लेने-देने में दिक्कत आएगी। भुगतान सुविधा उपलब्ध कराने वाले अधिकांश चैनलों पर अमेरिका का कब्जा है। ऐसे में चाहकर भी भारत जैसे बहुत से देश ईरान से तेल लेने से कतराएंगे।
- इसके अलावा उच्च जोखिम के चलते इंश्योरेंस के बिना क्रूड का परिवहन होना असंभव हो जाता है। यह सुविधा मुहैया कराने वाली ज्यादातर कंपनियाँ अमेरिका के प्रभाव वाली हैं। ऐसे में यहाँ भी दिक्कत बनी रह सकती है।
- शिपिंग में अमेरिकी का एकाधिकार तो नहीं है, लेकिन कहीं-न-कहीं सभी शिपिंग कंपनियों के तार अमेरिका से जरूर जुड़े रहते हैं। प्रतिबंध लगने के बाद ये कंपनियाँ ईरानी कच्चे तेल को लाने-ले जाने से कतराने लगेंगी।
भारत पर क्या होगा इसका प्रभाव?
अमेरिका के इस कदम का दुनियाभर में प्रभाव होगा। इससे ईरान की अर्थव्यवस्था तो प्रभावित होगी ही पश्चिमी एशिया भी अछूता नहीं रहेगा।
निश्चित ही भारत भी इससे प्रभावित होगा, क्योंकि हमारे व्यापारिक और चाबहार जैसे सामरिक हित ईरान के साथ जुड़े हैं।
भारत ने ईरान के चाबहार बंदरगाह में भारी निवेश भी किया है और वहाँ गैस फील्ड को लेकर भी बात चल रही है।
तेल व्यापार पर पड़ सकता है प्रभाव
- इराक तथा सऊदी अरब के बाद ईरान भारत के लिये तीसरा सबसे बड़ा तेल आपूर्तिकर्ता है, जिसने 2017-18 के वित्तीय वर्ष में भारत को प्रथम 10 माह (अप्रैल, 2017 से जनवरी, 2018 तक) में 18.4 मिलियन टन कच्चे तेल की आपूर्ति की।
- विदित हो कि 2010-11 तक ईरान भारत के लिये दूसरा सबसे बड़ा तेल आपूर्तिकर्ता था, लेकिन अंतरराष्ट्रीय प्रतिबंधों के कारण यह अपना स्थान बरकरार नहीं रख सका।
- 2013-14 तथा 2014-15 में भारत ने ईरान से क्रमशः 11 मिलियन टन तथा 10.95 मिलियन टन तेल खरीदा।
- 2015-16 में यह बढ़कर 12.7 मिलियन टन तथा 2016-17 में बढ़कर 27.2 मिलियन टन हो गया।
- अमेरिकी फैसले का तात्कालिक असर कच्चे तेल की कीमतों पर पड़ा है। अंतरराष्ट्रीय बाज़ार में इसके दाम 80 डॉलर प्रति बैरल के आस-पास पहुँच गए हैं। इससे भारत का तेल आयात बिल का बढ़ना तय है।
- दुनिया में भारत तीसरा सबसे बड़ा तेल का खरीददार है। ऐसे में अमेरिका से डील टूटने का असर भारत और ईरान के बीच तेल के व्यापार पर पड़ सकता है।
- भारत को फिर एक बार उन्हीं मुश्किलों का सामना करना पड़ सकता है, जो इस डील के होने से पहले मौजूद थीं।
- उल्लेखनीय है कि 2015 में इस डील के होने से पहले अमेरिका ने ईरान पर तमाम प्रतिबंध लगा दिये थे, जिसके बाद भारत को ईरान से तेल की खरीददारी से हाथ खींचने पड़े थे।
- अब पहले की तरह भारत का मार्केट एक बार फिर से इराक और सऊदी अरब की ओर और अधिक शिफ्ट हो सकता है।
- ईरान भारत को गेहूँ के बदले भी क्रूड बेचने का प्रस्ताव दे चुका है।
फिलहाल अमेरिका की ओर से प्रतिबंधों के बाद भारत की ओर से पहली प्रतिक्रिया यही आई है कि इस फैसले का तात्कालिक कोई बड़ा प्रभाव भारत पर नहीं होगा। जब तक यूरोपीय संघ इन प्रतिबंधों को लागू नहीं करता, तब तक भारत के लिये चिंता की कोई बात नहीं है। तेल के बदले भारत यूरो में ईरान को पेमेंट कर सकता है, जो उसने अतीत में किया भी है। लेकिन यदि प्रतिबंधों को यूरोपीय संघ भी लागू करता है तो फिर दोनों देशों का कारोबार प्रभावित होगा।
चाबहार परियोजना प्रभावित हो सकती है
- 2015 में हुई डील के बाद ही भारत को ईरान में चाबहार बंदरगाह परियोजना को आगे बढ़ाने में मदद मिली थी।
- विदित हो कि चीन-पाकिस्तान की ग्वादर बंदरगाहर परियोजना के जवाब में ईरान-भारत चाबहार बंदरगाह के विकास पर काम कर रहे हैं।
- चाबहार के माध्यम से भारत ने ईरान में काफी निवेश कर रखा है। वह अफगानिस्तान और मध्य एशिया के लिये ईरान के ज़रिये ही रास्ता बना रहा है।
- भारत चाबहार पर अब तक करीब 85.21 मिलियन डॉलर का निवेश कर चुका है। 12.2 करोड़ डॉलर यानी 78 हजार करोड़ रुपए का निवेश और करेगा। इसके अलावा 8.5 करोड़ डॉलर बंदरगाह के उपकरणों पर भी खर्च किये जाएंगे।
- भारत चाबहार बंदरगाह के विकास के लिये ईरान को 15 करोड़ डॉलर का ऋण भी दे रहा है, जिसमें से 6 अरब डॉलर की राशि जारी भी की जा चुकी है।
इसके अलावा नवीनतम परिस्थितियाँ भी ईरान के साथ हमारे संबंधों को प्रभावित कर रही हैं, विशेषकर इज़राइल और सऊदी अरब के साथ भारत की बढ़ती नज़दीकियाँ। हाल के समय में ईरान के साथ भारत के संबंधों में कुछ गिरावट आई भी है। इसकी दो बड़ी वजह हैं--1. ऑयल फील्ड को रूसी कंपनियों को सौंपना, 2. चाबहार परियोजना में चीन और पाकिस्तान को शामिल करने का प्रस्ताव। इन दोनों बातों से भारत की नाराज़गी बढ़ी है। ऐसे में यह देखना होगा कि भारत प्रतिबंधों के बाद अमेरिका को इस परियोजना के लिये कैसे राजी करता है। इसके अलावा अमेरिका की दबाव की रणनीति भी इस दिशा में काम करेगी।
इसके साथ-साथ यदि चाबहार परियोजना धीमी होती है तो इसके परिणामस्वरूप अमेरिका के आग्रह पर शुरू की गई अफगानिस्तान के पुनर्निर्माण प्रक्रिया में भारत द्वारा दी जाने वाली 1 बिलियन डॉलर की सहायता तथा 100 अन्य छोटी परियोजनाओं पर किया जाने वाला कार्य भी प्रभावित हो सकता है
ऐसे में बड़ा सवाल यह है कि भारत के लिये अब क्या विकल्प है? आखिर इन प्रतिबंधों का कितना असर देखने को मिलेगा और भारत की आगे की रणनीति क्या हो सकती है? इन प्रतिबंधों का खुद ईरान पर क्या असर होगा? अभी स्थिति स्पष्ट नहीं है, लेकिन जल्दी ही जब अमेरिकी प्रतिबंधों की रूपरेखा सामने आएगी तब इन सभी सवालों के जवाब मिल जाएंगे।
क्या कहना है अन्य वैश्विक शक्तियों का? ईरान: ईरान के राष्ट्रपति हसन रूहानी ने कहा, अमेरिकी घोषणा से जाहिर होता है कि वह अपने ही वादों का सम्मान नहीं करता। ईरान का मानना है कि यह परमाणु समझौता तभी बच सकता है, जब समझौते के अन्य साझीदार ट्रंप की उपेक्षा कर दें। उन्होंने चेतावनी भी दी कि समझौता विफल होने पर उनका देश फिर से यूरेनियम संवर्धन करेगा।
(टीम दृष्टि इनपुट) |
पश्चिम एशिया पर पड़ने वाला संभावित प्रभाव
ओबामा के बाद अमेरिका को यह लगता रहा है कि यह समझौता ईरान के पक्ष में झुका हुआ है और इससे अमेरिका के हित नहीं सधते, जबकि पूर्व में लगे प्रतिबंधों से ईरान को परेशानी भी हुई और उसकी अर्थव्यवस्था भी खासी प्रभावित हुई थी। 2013 में पदग्रहण करने वाले हसन रूहानी प्रथम निर्वाचित राष्ट्रपति थे, जो आर्थिक वृद्धि बहाल करने, पश्चिमी देशों के साथ संबंध सुधारने और नागरिक अधिकारों को स्थापित करने के कार्यक्रम के आधार पर सत्ता में आए थे। अमेरिका शायद चाहता था कि ईरान प्रतिबंधों से पूरी तरह तबाह हो जाए और घुटने टेक दे, लेकिन ऐसा नहीं हुआ। पश्चिम एशिया की राजनीति में ईरान की भूमिका जारी रही और उसने विश्व की कई शक्तियों के साथ अपने संबंधों को मज़बूती दी। अब स्थिति चाहे कोई भी रूप ग्रहण करे, लेकिन एक बात तय है कि पश्चिम एशिया में ईरान का बहुत कुछ दाँव पर लगा हुआ है।
निष्कर्ष: रूस और चीन के साथ ईरान की बढ़ती नज़दीकी अमेरिकी राष्ट्रपति ट्रंप को बराबर खटकती रही है, इसलिये अब वह ईरान पर नए सिरे से कड़े प्रतिबंध लगाना चाहते हैं। वह ऐसा कुछ करना चाहते हैं, जिससे अमेरिकी ताकत का इज़हार हो। भारत इस समझौते का समर्थक रहा है और उसने हमेशा यह प्रतिबद्धता जताई है कि ईरान के परमाणु मसले को वार्ता तथा कूटनीति के द्वारा शांतिपूर्वक ढंग से हल किया जाना चाहिये। भारत का कहना है कि सभी संबधित पक्षों को ईरान परमाणु समझौते से संबंधित मुद्दों को हल करने के लिये सक्रिय रूप से एक साथ आना चाहिये। भारत के इस क्षेत्र में व्यापक हित जुड़े हैं और ईरान को लक्षित करने के लिये अमेरिकी प्रतिबंध इसके क्षेत्रीय प्रतिद्वंद्वियों सऊदी अरब और इज़राइल के साथ मिलकर इस क्षेत्र को अस्थिर कर सकते हैं, जहाँ 8 मिलियन से अधिक भारतीय प्रवासी रहते हैं और काम करते हैं। ऐसे में यदि भारत और ईरान का परस्पर संबंधों को स्थिर तथा मज़बूत बनाए रखने का महत्त्व तो है ही, साथ ही दोनों देशों को यह प्रयास करना होगा कि प्रतिबंधों के बावजूद संबंधों पर कोई विशेष प्रभाव न पड़े। इसके अलावा भारत को रुपया-रियाल व्यापार प्रक्रिया तथा दोनों देशों के बीच धन प्रवाह तथा आय को बनाए रखने के लिये भारत में ईरानी बैंकों की स्थापना जैसे विकल्पों की तरफ भी ध्यान देना चाहिये। बहरहाल, अब यह देखना दिलचस्प होगा कि ट्रंप का फैसला विश्व के शक्ति संतुलन को किस तरह प्रभावित करता है।