UP PCS Mains-2024

दिवस- 31: उत्तर प्रदेश ज़मींदारी उन्मूलन एवं भूमि सुधार अधिनियम, 1950 का उद्देश्य किसानों की समस्याओं का समाधान करना था, किंतु यह अधिनियम अपने लक्ष्य को पूर्ण रूप से प्राप्त नहीं कर सका। इसके प्रभावी क्रियान्वयन में बाधा बनने वाले प्रमुख कारणों का विश्लेषण कीजिये। (200 शब्द)

09 Apr 2025 | सामान्य अध्ययन पेपर 4 | सैद्धांतिक प्रश्न

दृष्टिकोण / व्याख्या / उत्तर

हल करने का दृष्टिकोण:

  • भूमि सुधार का संक्षेप में वर्णन कीजिये।
  • उत्तर प्रदेश ज़मींदारी उन्मूलन एवं भूमि सुधार अधिनियम 1950 के महत्त्वपूर्ण प्रावधानों पर प्रकाश डालिये।
  • राज्य में भूमि सुधार लागू करने में आने वाली प्रमुख बाधाओं की सूची बनाइये।
  • सरकार द्वारा उठाए गए कदमों पर चर्चा कीजिये।
  • उपयुक्त निष्कर्ष के साथ समाप्त कीजिये।

परिचय:

भूमि सुधार को कृषि सुधार की एक ऐसी प्रक्रिया के रूप में परिभाषित किया जाता है, जिसमें भूमि स्वामित्व से जुड़े कानूनों, नीतियों या परंपराओं में परिवर्तन किया जाता है। इसमें आमतौर पर सरकार द्वारा संचालित या प्रोत्साहित किया गया कृषि भूमि का पुनर्वितरण भी शामिल होता है।

राज्य के आर्थिक विकास में कृषि क्षेत्र का योगदान महत्त्वपूर्ण है और कुल आबादी का लगभग 65% हिस्सा कृषि पर निर्भर है। वर्ष 2014-15 के कृषि सर्वेक्षण के अनुसार, लगभग 68.7% भूमि का उपयोग खेती के लिये किया जाता है।

उत्तर प्रदेश सरकार ने वर्ष 1950 में उत्तर प्रदेश ज़मींदारी उन्मूलन और भूमि सुधार अधिनियम बनाया, जो वर्ष 1952 में लागू हुआ।

मुख्य भाग:

अधिनियम में भूमि सुधार से संबंधित प्रावधान:

  • ज़मींदारी प्रथा का उन्मूलन: उत्तर प्रदेश में भूमि से संबंधित ज़मींदारों के अधिकार, स्वार्थ और उपाधियाँ सरकार को सौंप दी गईं। इसके तहत ज़मींदारों को न केवल उनके पारंपरिक अधिकारों से वंचित किया गया, बल्कि उनकी सभी जागीरों का स्वामित्व भी सरकार द्वारा अधिग्रहित कर लिया गया।
  • मुआवज़ा: इसने ज़मींदार को राज्य से उचित मुआवज़ा पाने का अधिकार दिया। मुआवज़ा ज़मींदार की कुल संपत्ति के मूल्य का आठ गुना था।
  • पुनर्वास अनुदान: इस अनुदान के हकदार केवल ज़मींदार ही थे। यह अनुदान ज़मींदार की आय के अनुपात में था, यह कम आय वालों के लिये सबसे अधिक था और तुलनात्मक रूप से अधिक आय वालों के लिये सबसे कम था।
  • खेती के अधिकार सुरक्षित हैं: इस अधिनियम का मूल सिद्धांत यह था कि भूमि का स्वामित्व उसी व्यक्ति को होना चाहिये जो उस पर वास्तव में खेती करता है। इससे न केवल ज़मींदारों और ठेकेदारों की भूमिका सीमित हुई, बल्कि काश्तकारों और उप-काश्तकारों जैसे वास्तविक कृषकों के अधिकारों को संरक्षित किया गया। फलस्वरूप, जो व्यक्ति भूमि पर खेती कर रहा था, उसे उसका वैध कब्ज़ा प्राप्त रहा।
  • नई संस्थाओं की स्थापना: उत्तर प्रदेश ज़मींदारी उन्मूलन और भूमि सुधार अधिनियम के तहत दो नई संस्थाओं की स्थापना की गई — 'ग्राम समाज' और 'भूमि प्रबंधन समिति'। ग्राम समाज को गाँव की साझा उपयोगिता वाली भूमि जैसे कि सार्वजनिक रास्ते, बंजर ज़मीन, चारागाह, स्थानीय बाज़ार, मेले के मैदान और गाँव के जंगलों का स्वामित्व एवं प्रबंधन सौंपा गया।
  • सहकारी समुदाय: इस अधिनियम का उद्देश्य आर्थिक और सामाजिक विकास को सुविधाजनक बनाने तथा सामाजिक उत्तरदायित्व तथा सामुदायिक भावना को प्रोत्साहित करने के लिये एक सहकारी समुदाय का निर्माण करना था।
  • उत्तर प्रदेश में काश्तकारी व्यवस्था: अधिनियम के लागू होने से पहले, भूमि काश्तकारी की चौदह श्रेणियाँ थीं। अधिनियम ने भूमि काश्तकारों को चार श्रेणियों में सीमित करके वर्गीकृत किया अर्थात् भूमिधर, सरदार, असामी और आदिवासी।
  • भूमि के संचय पर रोक: अधिनियम ने भूमि के संचय पर रोक लगाने के लिये एक सीमा निर्धारित की है। एक पट्टेदार खरीद या उपहार के माध्यम से 12.5 एकड़ से अधिक भूमि प्राप्त नहीं कर सकता है।

राज्य में भूमि सुधार लागू करने में प्रमुख बाधाएँ:

  • सटीक भूमि अभिलेखों का अभाव: पटवारी या लेखपाल, जो स्वामित्व और किरायेदारी अभिलेखों को बनाए रखने के लिये ज़िम्मेदार ग्राम स्तरीय भूमि अभिलेखपाल होते हैं, ने बहुत अधिक शक्तियाँ प्राप्त कर ली थीं और ज़मींदारों के साथ मिलकर निजी लाभ के लिये इसका दुरुपयोग किया।
  • निरक्षरता की समस्या: वर्ष 1951 में उत्तर प्रदेश की साक्षरता दर लगभग 12 प्रतिशत थी तथा राज्य की अधिकांश जनसंख्या निरक्षर थी, जो अधिनियम के प्रावधानों को समझने में बड़ी बाधा थी।
  • वित्तीय सहायता का अभाव: उत्तर प्रदेश ज़मींदारी उन्मूलन और भूमि सुधार अधिनियम के प्रभावी कार्यान्वयन में प्रमुख बाधा के रूप में पर्याप्त वित्तीय समर्थन की कमी को ज़िम्मेदार माना गया है।
  • दबाव की कमी: मुख्य चुनौती यह रही कि भूमि सुधारों के लाभार्थी – जैसे गरीब किसान और खेतिहर मज़दूर – एक समान सामाजिक या आर्थिक वर्ग से नहीं आते थे। ये समूह अक्सर निष्क्रिय, असंगठित और परस्पर सहयोग के अभाव में रहे।
  • राजनीतिक इच्छाशक्ति का अभाव: ऐसा माना जाता है कि प्रगतिशील भूमि सुधार उपायों के प्रभावी अधिनियमन और उनके कार्यान्वयन में राजनीतिक इच्छाशक्ति की कमी के कारण बाधा उत्पन्न हुई, क्योंकि बड़े ज़मींदार राजनीतिक रूप से प्रभावशाली थे।
  • नौकरशाही भ्रष्टाचार: भूमि सुधारों ने राजस्व विभाग के अधिकारियों को अवैध रूप से धन कमाने का सुनहरा अवसर प्रदान किया, क्योंकि कई मामलों में उच्च पदस्थ अधिकारी ज़मींदार थे।

उत्तर प्रदेश सरकार द्वारा उठाए गए कदम:

  • घरौनी योजना: सरकार ने घोषणा की है कि अक्तूबर 2023 तक गाँवों में रहने वाले लगभग 2.5 करोड़ लोगों को घरौनी प्रमाण-पत्र प्रदान किये जाएंगे। इससे पैतृक भूमि और संपत्तियों को उनके सही मालिकों को हस्तांतरित करने में सुविधा होगी।
  • स्वामित्व योजना: यह ड्रोन तकनीक का उपयोग करके ग्रामीण क्षेत्रों में भूमि के भूखंडों की मैपिंग करने की योजना है। इससे संपत्ति के अधिकारों पर स्पष्टता सुनिश्चित होगी। उत्तर प्रदेश इस योजना को सफलतापूर्वक लागू कर रहा है।

निष्कर्ष :

यद्यपि भूमि सुधार के कार्यान्वयन की गति धीमी रही है, फिर भी सामाजिक न्याय का उद्देश्य काफी हद तक प्राप्त किया गया है। भूमि और कृषि के वर्चस्व वाली ग्रामीण कृषि अर्थव्यवस्था में भूमि सुधार की एक निर्णायक भूमिका होती है। ग्रामीण गरीबी के उन्मूलन के लिये आवश्यक है कि नए और नवोन्मेषी भूमि सुधार उपायों को सक्रियता तथा प्रतिबद्धता के साथ लागू किया जाए।