70th BPSC Mains

दिवस- 23: "राज्यपाल का पद एक संवैधानिक प्राधिकारी के रूप में कार्य करने के लिये बनाया गया है, न कि मात्र केंद्र सरकार के प्रतिनिधि के रूप में।" इस संदर्भ में, राज्यपाल के कार्यालय के कार्यप्रणाली से जुड़े प्रमुख मुद्दों का विश्लेषण कीजिये और इसकी निष्पक्षता एवं जवाबदेही सुनिश्चित करने के उपाय सुझाइये। (38 अंक)

28 Mar 2025 | सामान्य अध्ययन पेपर 2 | राजव्यवस्था

दृष्टिकोण / व्याख्या / उत्तर

हल करने का दृष्टिकोण:

  • राज्यपाल की संवैधानिक स्थिति के साथ उत्तर को संक्षेप में प्रस्तुत कीजिये।
  • राज्यपाल के पद से जुड़े मुद्दों पर विस्तार से चर्चा कीजिये।
  • न्यायालय के निर्णयों या समितियों द्वारा दिये गए उपायों का उल्लेख कीजिये।
  • उचित निष्कर्ष दीजिये।

परिचय:

संविधान के भाग VI में अनुच्छेद 153 से 167 के अनुसार राज्यपाल राज्य का नाममात्र कार्यकारी प्रमुख होता है, जो संवैधानिक और औपचारिक दोनों प्रकार के कार्य करता है। हालाँकि राज्य के संवैधानिक प्रमुख और केंद्र के एजेंट के रूप में उनकी दोहरी भूमिका के कारण, यह कार्यालय अक्सर राजनीतिक घर्षण एवं विवाद का केंद्र बन जाता है, खासकर तब जब केंद्र एवं राज्य में अलग-अलग दल शासन करते हैं।

मुख्य भाग:

राज्यपाल कार्यालय के कामकाज से जुड़े मुद्दे

  • विवेकाधीन शक्तियों का अत्यधिक प्रयोग: अनुच्छेद 163 के तहत राज्यपाल कुछ मामलों में विवेकाधीन शक्तियों का प्रयोग कर सकते हैं, लेकिन इसका दुरुपयोग किया गया है। 
    • कर्नाटक (2018) में, राज्यपाल द्वारा कम विधायकों वाली पार्टी को सरकार बनाने के लिये आमंत्रित किये जाने से राजनीतिक निष्पक्षता को लेकर सवाल खड़े हुए।
  • विधेयकों पर स्वीकृति में विलंब: अनुच्छेद 200 के तहत राज्यपाल द्वारा स्वीकृति देने के लिये कोई समय-सीमा नहीं है। 
    • तमिलनाडु में NEET छूट विधेयक सहित प्रमुख विधेयक महीनों से लंबित थे, जिससे राज्य की नीति प्रभावित हो रही थी। 
      • पंजाब में भी इसी प्रकार की देरी देखी गई है, जिससे विश्वविद्यालय संबंधी विधेयक और प्रशासनिक निर्णय प्रभावित हुए हैं।
  • अनुच्छेद 356 का दुरुपयोग (राष्ट्रपति शासन): राज्यपाल की रिपोर्ट राष्ट्रपति शासन लगाने का आधार बनती है। 
    • आंध्र प्रदेश (1984) और अरुणाचल प्रदेश (2016) में ऐतिहासिक दुरुपयोग, सहकारी संघवाद को कमज़ोर करता है
  • दैनिक प्रशासन में हस्तक्षेप: पश्चिम बंगाल में राज्यपाल की सार्वजनिक आलोचना और राज्य के मामलों में हस्तक्षेप के कारण बार-बार संवैधानिक टकराव हुआ, जिससे संघीय संतुलन बिगड़ गया
  • त्रिशंकु विधानसभाओं में विवादास्पद भूमिका: स्पष्ट बहुमत न होने की स्थिति में राज्यपाल की भूमिका महत्त्वपूर्ण हो जाती है। 
    • महाराष्ट्र (2019) में, CM के मध्यरात्रि शपथ ग्रहण ने कार्यालय की तटस्थता पर प्रश्न उठाया
  • गैर-संवैधानिक भूमिकाओं का बोझ: बिहार और केरल सहित कई राज्यों में, राज्यपाल राज्य विश्वविद्यालयों के कुलाधिपति के रूप में कार्य करते हैं, जिससे नियुक्तियों और नीतियों को लेकर निर्वाचित राज्य सरकार के साथ टकराव की स्थिति उत्पन्न होती है।

निष्पक्षता और जवाबदेही सुनिश्चित करने के उपाय

  • पारदर्शी एवं परामर्शपरक नियुक्तियाँ: सरकारिया आयोग के अनुसार, राजनीतिक तटस्थता सुनिश्चित करने के लिये राज्यपाल की नियुक्ति से पहले मुख्यमंत्री से परामर्श किया जाना चाहिये।
  • विधेयक की स्वीकृति के लिये उचित समय-सीमा: किसी संवैधानिक संशोधन या संसदीय कानून को विधेयक की स्वीकृति में अनिश्चित विलंब से बचने के लिये अनुच्छेद 200 के अंतर्गत समय-सीमा निर्धारित करनी चाहिये।
  • विवेकाधीन शक्तियों को सीमित करना: जैसा कि शमशेर सिंह बनाम पंजाब राज्य (1974) में कहा गया है और नबाम रेबिया (2016) में दोहराया गया है, राज्यपाल को अधिकांश मामलों में मंत्रिपरिषद की सहायता एवं सलाह पर कार्य करना चाहिये।
  • विश्वविद्यालय की भूमिका: पुंछी आयोग ने राज्यपालों को कुलपति बनाने की प्रथा को बंद करने तथा शैक्षणिक प्रशासन को राजनीतिक प्रक्रियाओं से अलग करने की सिफारिश की।
  • संवैधानिक परंपराओं को संहिताबद्ध करना: पूर्वानुमेयता और निष्पक्षता सुनिश्चित करने के लिये नियुक्ति, कार्यकाल एवं विवेकाधीन शक्तियों के संबंध में स्पष्ट दिशा-निर्देश तैयार किये जाने चाहिये।
  • विधायी निरीक्षण के माध्यम से जवाबदेही: राज्यपालों को सदन की समिति के समक्ष देरी या विवेकाधीन निर्णयों के बारे में प्रश्न पूछे जाने पर स्पष्टीकरण देने का अधिकार दिया जाना चाहिये।

निष्कर्ष:

राज्यपाल को एक संवैधानिक अधिकारी के रूप में संघवाद की भावना को बनाए रखते हुए तटस्थ, गैर-राजनीतिक और परामर्शी तरीके से काम करना चाहिये। नियुक्तियों में पारदर्शिता सुनिश्चित करना, विवेकाधीन दुरुपयोग को सीमित करना और संवैधानिक नैतिकता को बढ़ावा देना इस कार्यालय में जनता का विश्वास बहाल करने के लिये आवश्यक है। केवल ऐसे उपायों के माध्यम से ही राज्यपाल की भूमिका भारत के संसदीय लोकतंत्र और सहकारी संघवाद के वास्तविक इरादे के अनुरूप हो सकती है।