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70th BPSC Mains

  • 24 Mar 2025 सामान्य अध्ययन पेपर 2 राजव्यवस्था

    दिवस: 19. भारत का संविधान एक स्थिर नियम पुस्तिका नहीं, बल्कि एक गतिशील और अनुकूलनीय दस्तावेज़ है जो समय के साथ विकसित होता रहता है। समीक्षा कीजिये। (38 अंक)

    उत्तर

    हल करने का दृष्टिकोण:

    • संविधान को परिभाषित कीजिये।
    • समझाइये कि भारतीय संविधान किस प्रकार एक जीवंत दस्तावेज़ है।
    • उचित निष्कर्ष दीजिये।

    परिचय:

    संविधान मौलिक सिद्धांतों का एक समूह है जो समाज को नियंत्रित करता है और इसकी राजनीतिक एवं कानूनी प्रणालियों के लिये एक रूपरेखा प्रदान करता है। भारतीय संविधान एक कठोर, स्थिर नियम पुस्तिका नहीं है, बल्कि एक गतिशील और विकसित दस्तावेज़ है जो सामाजिक परिवर्तनों एवं समकालीन चुनौतियों के अनुकूल है।

    मुख्य भाग:

    भारतीय संविधान एक जीवंत दस्तावेज़ है

    • बदलती ज़रूरतों के प्रति अनुकूलनशीलता
      • संविधान को न केवल समकालीन चुनौतियों का समाधान करने के लिये बल्कि भविष्य में एक स्थिर शासन ढाँचा सुनिश्चित करने के उद्देश्य से तैयार किया गया था।
      • यह वर्ष 1950 में जो अनुमान लगाया गया था उससे परे नई चुनौतियों, जैसे डिजिटल गोपनीयता और पर्यावरण संरक्षण, के लिये मार्गदर्शन प्रदान करता है।
    • संशोधनीयता और निरंतर विकास
      • वर्ष 1950 में अपनाए जाने के बाद से भारतीय संविधान में 100 से अधिक संशोधन हो चुके हैं, जो बदलती सामाजिक-राजनीतिक वास्तविकताओं को दर्शाते हैं ।
      • 42वें संशोधन (1976) ने प्रस्तावना में समाजवादी, धर्मनिरपेक्ष और अखंडता जैसे शब्दों को शामिल किया, जो इसके विकासशील स्वरूप को दर्शाता है।
    • न्यायिक व्याख्या और अधिकारों का विस्तार
      • सर्वोच्च न्यायालय के ऐतिहासिक निर्णयों ने संवैधानिक प्रावधानों की आधुनिक समय के अनुरूप व्याख्या की है।
      • जैसे मामले:
        • पुट्टस्वामी केस (2017) - निजता के अधिकार को मौलिक अधिकार के रूप में मान्यता दी गई।
        • नवतेज सिंह जौहर केस (2018) - समलैंगिकता को अपराध से मुक्त किया गया, संवैधानिक नैतिकता को मज़बूत किया गया।
      • ये व्याख्याएँ यह सुनिश्चित करती हैं कि संविधान प्रासंगिक बना रहे और उभरते मुद्दों के प्रति उत्तरदायी रहे।
    • संशोधन प्रक्रिया में अनुकूलन
      • संविधान कठोरता और अनुकूलन में संतुलन स्थापित करता है तथा यह सुनिश्चित करता है कि आवश्यक सिद्धांत अक्षुण्ण रहें एवं आवश्यक संशोधनों की अनुमति भी देता है।
      • उदाहरण के लिये, अनुच्छेद 368 संशोधन का प्रावधान करता है, जिससे यह सुनिश्चित किया जा सके कि मौलिक मूल्य अपने मूल सार को बनाए रखते हुए समय के साथ विकसित होते रहें।
    • मूल संरचना सिद्धांत: एक न्यायिक सुरक्षा
      • केशवानंद भारती केस (1973) ने मूल संरचना सिद्धांत की स्थापना की, जिससे यह सुनिश्चित हुआ कि संशोधनों के बावजूद लोकतंत्र, धर्मनिरपेक्षता और संघवाद जैसे मूल सिद्धांत अपरिवर्तित रहेंगे।
      • यह न्यायिक नवाचार, यद्यपि संविधान में स्पष्ट रूप से उल्लिखित नहीं है, संवैधानिक विकास का एक महत्त्वपूर्ण हिस्सा बन गया है, जो इसकी जीवंत प्रकृति को उजागर करता है।
    • राजनीतिक प्रथाओं के माध्यम से अनुकूलन
      • राजनीतिक परंपराओं ने संवैधानिक प्रथाओं को आकार देने में भूमिका निभाई है, जैसे गठबंधन सरकारों का गठन और संघवाद को मज़बूत करना।
      • 73वें और 74वें संशोधन के माध्यम से स्थानीय शासन का उदय यह दर्शाता है कि व्यावहारिक शासन की आवश्यकताएँ संवैधानिक विकास को किस प्रकार आकार देती हैं।

    निष्कर्ष:

    भारतीय संविधान एक कठोर कानूनी संहिता नहीं है, बल्कि एक जीवंत दस्तावेज़ है जो सामाजिक परिवर्तनों, न्यायिक व्याख्याओं और राजनीतिक वास्तविकताओं का जवाब देता है। जैसा कि बी.आर. अंबेडकर ने कहा था, "संविधान केवल वकील का दस्तावेज़ नहीं है; यह जीवन का वाहन है, और इसकी आत्मा हमेशा उम्र की भावना है।" विकसित होने की यह क्षमता सुनिश्चित करती है कि संविधान भारत में शासन, अधिकारों और लोकतंत्र के लिये एक मज़बूत ढाँचे के रूप में काम करना जारी रखे।

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