70th BPSC Mains

दिवस-20: भारतीय संविधान की प्रस्तावना संविधान के दर्शन को किस प्रकार परिभाषित और आकार देती है? इसके संवैधानिक महत्त्व और न्यायसंगतता का आलोचनात्मक विश्लेषण कीजिये। (38 अंक)

25 Mar 2025 | सामान्य अध्ययन पेपर 2 | राजव्यवस्था

दृष्टिकोण / व्याख्या / उत्तर

हल करने का दृष्टिकोण:

  • प्रस्तावना के बारे में संक्षेप में चर्चा कीजिये।
  • इसका महत्त्व समझाइये।
  • इसकी संवैधानिक स्थिति पर चर्चा कीजिये।
  • उचित निष्कर्ष दीजिये।

परिचय:

भारतीय संविधान की प्रस्तावना लोगों के आदर्शों, मूल्यों और आकांक्षाओं को समाहित करती है, तथा संवैधानिक ढाँचे के लिएयेदिशा-निर्देश निर्धारित करती है। यह संविधान के दर्शन और उद्देश्यों को दर्शाती है तथा इसकी व्याख्या एवं कार्यान्वयन का मार्गदर्शन करती है।

मुख्य भाग:

संवैधानिक दर्शन को आकार देने में प्रस्तावना का महत्त्व

  • संवैधानिक आदर्शों की नींव
    • प्रस्तावना संविधान की आत्मा और सार के रूप में कार्य करती है, जो न्याय, स्वतंत्रता, समानता एवं बंधुत्व जैसे प्रमुख सिद्धांतों को रेखांकित करती है
    • यह संविधान सभा के दृष्टिकोण को मूर्त रूप देता है तथा लोकतांत्रिक और समावेशी सिद्धांतों पर आधारित शासन सुनिश्चित करता है।
  • संप्रभु आकांक्षाओं का प्रतीक
    • यह भारतीय गणराज्य के राजनीतिक दर्शन का प्रतिनिधित्व करता है, जो संप्रभुता और स्वशासन सुनिश्चित करता है।
    • 42वें संशोधन के माध्यम से जोड़े गए समाजवादी, धर्मनिरपेक्ष और लोकतांत्रिक गणराज्य जैसे शब्द विकासशील सामाजिक-राजनीतिक विचारधाराओं को प्रतिबिंबित करते हैं।
  • न्यायपालिका के लिये व्याख्यात्मक मार्गदर्शिका
    • सर्वोच्च न्यायालय संविधान के अस्पष्ट प्रावधानों की व्याख्या करते समय प्रस्तावना को मार्गदर्शक मानता है।
    • केशवानंद भारती केस (1973) और LIC ऑफ इंडिया केस (1995) जैसे ऐतिहासिक निर्णयों ने संवैधानिक व्याख्या में इसकी महत्त्वपूर्ण भूमिका की पुष्टि की।
  • लोकतांत्रिक लोकाचार और नागरिक अधिकारों को दर्शाता है
    • प्रस्तावना में निहित सिद्धांत यह सुनिश्चित करते हैं कि कानून और नीतियाँ संवैधानिक नैतिकता के अनुरूप हों
    • यह मूल संरचना सिद्धांत को सुदृढ़ करता है और यह सुनिश्चित करता है कि मूलभूत मूल्य मनमाने संशोधन या क्षरण से सुरक्षित रहें।

प्रस्तावना की संवैधानिक स्थिति और न्यायसंगतता

  • संविधान के भाग के रूप में मान्यता
    • प्रारंभ में, बेरुबारी यूनियन केस (1960) में, सर्वोच्च न्यायालय ने फैसला दिया कि प्रस्तावना संविधान का हिस्सा नहीं है
    • हालाँकि केशवानंद भारती मामले (1973) में, न्यायालय ने इस रुख को उलट दिया और इसे संविधान का अभिन्न अंग घोषित किया तथा इसके उद्देश्यों को समझने के लिये आवश्यक बताया।
      • LIC ऑफ इंडिया केस (1995) ने इस स्थिति को और पुष्ट किया।
  • संवैधानिक संशोधनों में भूमिका
    • प्रस्तावना संशोधन योग्य है, जैसा कि 42वें संशोधन (1976) में देखा गया है, जिसमें "समाजवादी" और "धर्मनिरपेक्ष" शब्द जोड़े गए।
    • हालाँकि प्रस्तावना में संशोधन से संविधान के मूल ढाँचे का उल्लंघन नहीं होना चाहिये
  • प्रस्तावना की न्यायसंगतता
    • यद्यपि प्रस्तावना कानूनी रूप से प्रवर्तनीय नहीं है, फिर भी यह न्यायिक निर्णयों के लिये एक दार्शनिक और व्याख्यात्मक ढांचा प्रदान करती है।
    • न्यायालयों ने मौलिक अधिकारों और नीति-निर्देशक सिद्धांतों की व्याख्या करने के लिये प्रस्तावना को एक मार्गदर्शक के रूप में उपयोग किया है, जिससे यह सुनिश्चित हो सके कि कानून इसके आदर्शों एवं उद्देश्यों के अनुरूप हों।

निष्कर्ष:

प्रस्तावना केवल एक औपचारिक प्रस्तावना नहीं है, बल्कि संवैधानिक शासन को दिशा देने वाली एक मार्गदर्शक शक्ति है। भले ही इसे न्यायालयों में लागू नहीं किया जा सकता, फिर भी यह संवैधानिक व्याख्या के लिये एक मार्गदर्शक सिद्धांत के रूप में कार्य करती है, यह सुनिश्चित करते हुए कि लोकतंत्र, न्याय और समानता की मूल भावना भारत के कानूनी एवं राजनीतिक ढाँचे के केंद्र में बनी रहे।