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27 Mar 2025
सामान्य अध्ययन पेपर 2
राजव्यवस्था
दिवस- 22: भारतीय संसद की प्रमुख संवैधानिक भूमिका कानून निर्माण और विचार-विमर्श करना है, लेकिन इसके प्रभावी संचालन में लगातार गिरावट देखी जा रही है। इस संदर्भ में समीक्षा कीजिये।(38 अंक)
उत्तर
हल करने का दृष्टिकोण:
- भारत में संसद से संबंधित संवैधानिक प्रावधानों का संक्षेप में उल्लेख कीजिये।
- भारतीय लोकतंत्र में संसद की भूमिका पर चर्चा कीजिये।
- संसद के कामकाज में प्रमुख चुनौतियों पर चर्चा कीजिये।
- उचित निष्कर्ष दीजिये।
परिचय:
भारत की संसद सर्वोच्च विधायी निकाय है, जिसे कानून बनाने और कार्यकारी जवाबदेही सुनिश्चित करने का काम सौंपा गया है। इसकी संवैधानिक भूमिका में कानून बनाना, विचार-विमर्श करना, प्रतिनिधित्व करना और सरकारी कार्यों की जाँच करना शामिल है। हालाँकि हाल के वर्षों में इसके कामकाज की गुणवत्ता, उत्पादकता और प्रभावशीलता में लगातार गिरावट आई है।
मुख्य भाग:
संसद की संवैधानिक भूमिका:
- कानून बनाने का प्राधिकार: संसद संविधान के अनुच्छेद 245-246 के तहत संघ सूची और समवर्ती सूची पर अपनी विधायी शक्तियों का प्रयोग करती है।
- कार्यकारी जवाबदेही सुनिश्चित करना: यह प्रश्नकाल, शून्यकाल और अविश्वास प्रस्ताव जैसे उपकरणों के माध्यम से कार्यकारी जवाबदेही सुनिश्चित करता है।
- सार्वजनिक वित्त पर नियंत्रण: यह बजट को मंज़ूरी देकर और सरकारी व्यय की जाँच करके वित्त पर नियंत्रण रखता है।
- न्यायिक निरीक्षण कार्य: यह न्यायिक कार्य करता है, जैसे महाभियोग लगाना और संवैधानिक प्राधिकारियों को हटाने की सिफारिश करना।
- संविधान में संशोधन: यह अनुच्छेद 368 के अंतर्गत संविधान में संशोधन करके इसकी गतिशील प्रासंगिकता सुनिश्चित करते हुए एक महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाता है।
संसद के कामकाज में गिरावट:
- बैठक के दिनों में कमी: संसद की औसत वार्षिक बैठकें 127 दिनों (1952-60) से घटकर हाल ही में केवल 58 दिन रह गई हैं।
- कम बैठकें होने से बहस, विधायी जाँच और सार्वजनिक जवाबदेही के अवसर कम हो जाते हैं।
- विचार-विमर्श की गुणवत्ता में गिरावट: कृषि कानून (2020) और आधार अधिनियम (2016) जैसे प्रमुख कानून सीमित या बिना किसी बहस के पारित कर दिये गए।
- हाल के सत्रों में कई विधेयक मिनटों में पारित कर दिये गए, जिससे सार्थक विचार-विमर्श प्रभावित हुआ।
- संसदीय समितियों की अनदेखी: विभाग-संबंधित स्थायी समितियों (DRSC) को भेजे जाने वाले मामलों की संख्या 15वीं लोकसभा में 60% से घटकर 17वीं लोकसभा में 25% से भी कम हो गई है।
- श्रम संहिता सुधार और GST न्यायाधिकरण संशोधन (2023) जैसे विधेयकों ने समिति की समीक्षा को पूरी तरह से दरकिनार कर दिया।
- कार्यपालिका का प्रभुत्व और अध्यादेश का मार्ग: दिल्ली सेवा अध्यादेश (2023) जैसे प्रमुख नीतिगत निर्णयों को लागू करने के लिये अध्यादेशों का उपयोग संसद की भूमिका को कम करता है।
- वित्त अधिनियम, 2017 जैसे मामलों में धन विधेयक मार्ग का दुरुपयोग किया जाता है, जिससे राज्यसभा की जाँच से बचा जा सकता है।
- व्यवधान और कम कार्य घंटे: बार-बार होने वाले व्यवधानों के कारण कार्यवाही स्थगित हो जाती है और विधायी समय की महत्त्वपूर्ण हानि होती है।
- वर्ष 2024 का शीतकालीन सत्र लोकसभा में 57% उत्पादकता के साथ संपन्न हुआ, जबकि राज्यसभा में केवल 40% उत्पादकता दर्ज की गई।
- संवैधानिक मानदंडों की उपेक्षा: अनुच्छेद 93 का उल्लंघन करते हुए लोकसभा में उपाध्यक्ष का पद रिक्त रखा गया है।
- यह संवैधानिक परंपराओं और प्रक्रियाओं के प्रति खराब पालन को दर्शाता है।
- प्रतिबंधित पारदर्शिता और मीडिया पहुँच: कोविड काल से ही संसद में पत्रकारों की पहुँच पर प्रतिबंध जारी है, जिससे पारदर्शिता प्रभावित हो रही है।
- कार्यवाही की सार्वजनिक दृश्यता कम होने से लोकतांत्रिक भागीदारी कमज़ोर होती है।
- राज्य विधानसभाओं में बहस की प्रवृत्ति: राज्य विधानसभाओं में भी यही रुझान देखने को मिल रहा है, जहाँ बिहार विधानसभा सहित कई विधानसभाओं में बहस की भूमिका घट रही है और सदन में बार-बार व्यवधान उत्पन्न हो रहे हैं, जिससे विधायी कार्यों की प्रभावशीलता प्रभावित हो रही है।
- राष्ट्रीय पैटर्न को प्रतिबिंबित करते हुए, विधेयक प्रायः पूर्ण विधायी चर्चा के बिना ही पारित कर दिये जाते हैं।
निष्कर्ष:
संसद को भारतीय लोकतंत्र के केंद्रीय स्तंभ के रूप में देखा गया था, जो यह सुनिश्चित करता है कि सरकार लोगों के प्रति जवाबदेह हो। हालाँकि इसकी बिगड़ती हुई विचार-विमर्श भूमिका, कम होती विधायी जाँच और कार्यकारी प्रभुत्व गंभीर चिंताएँ उत्पन्न करते हैं। अनिवार्य समिति रेफरल, लंबे सत्र, अंतर-दलीय सहमति और मज़बूत संवैधानिक पालन के माध्यम से संसदीय कामकाज को पुनर्जीवित करना संसदीय लोकतंत्र की भावना को बनाए रखने के लिये आवश्यक है।