26 Mar 2025 | सामान्य अध्ययन पेपर 2 | राजव्यवस्था
दृष्टिकोण / व्याख्या / उत्तर
हल करने का दृष्टिकोण:
- संसदीय समितियों का संक्षिप्त परिचय दीजिये।
- उनकी भूमिका और प्रभावशीलता की जाँच कीजिये।
- इन समितियों को मज़बूत बनाने के लिये सुधार का सुझाव दीजिये।
- उचित निष्कर्ष दीजिये।
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परिचय:
संसदीय समितियाँ विधायी जाँच, कार्यकारी जवाबदेही और वित्तीय निगरानी सुनिश्चित करने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाती हैं। संसद सदस्यों (MP) से बनी ये समितियाँ अध्यक्ष (लोकसभा) या सभापति (राज्यसभा) के निर्देशन में काम करती हैं और अपने-अपने सदनों को रिपोर्ट पेश करती हैं। ब्रिटिश संसदीय प्रणाली में निहित, वे अनुच्छेद 105 (संसदीय विशेषाधिकार) और अनुच्छेद 118 (संसद में व्यवसाय की प्रक्रिया और संचालन) से अपना अधिकार प्राप्त करते हैं।
मुख्य भाग:
संसदीय समितियों का वर्गीकरण:
- स्थायी समितियाँ (स्थायी समितियाँ)
- प्रत्येक सत्र के आरंभ में गठित तथा पूरे सत्र के दौरान प्रचालन में बने रहेंगे।
- इसमें शामिल हैं:
- वित्तीय समितियाँ (प्राक्कलन समिति, लोक लेखा समिति, सार्वजनिक उपक्रम समिति)।
- प्रमुख मंत्रालयों को कवर करने वाली विभागीय स्थायी समितियाँ (DRSC)।
- विधायी अनुशासन सुनिश्चित करने के लिये सरकारी आश्वासन, विशेषाधिकार और नैतिकता संबंधी समितियाँ।
- तदर्थ समितियाँ (अस्थायी समितियाँ)
- विशिष्ट उद्देश्यों के लिये गठित तथा कार्य पूरा हो जाने पर विघटित।
- इसमें विधेयकों पर प्रवर एवं संयुक्त समितियाँ, जाँच समितियाँ तथा विशेष सार्वजनिक मुद्दों पर समितियाँ शामिल हैं।
संसदीय समितियों की भूमिका:
- विधायी जाँच
- समितियाँ प्रस्तावित विधेयकों की विस्तार से जाँच करती हैं, कानूनी प्रावधानों को परिष्कृत करती हैं तथा जनहित सुनिश्चित करती हैं।
- उदाहरण: स्वास्थ्य एवं परिवार कल्याण संबंधी समिति ने सरोगेसी (विनियमन) विधेयक, 2016 का विश्लेषण किया तथा इसमें प्रमुख संशोधनों का सुझाव दिया।
- कार्यकारी निरीक्षण और जवाबदेही
- लोक लेखा समिति (PAC) सरकारी व्यय और CAG रिपोर्टों का लेखा-परीक्षण करती है तथा वित्तीय अनियमितताओं को रोकती है।
- बजटीय समीक्षा
- DRSC मंत्रालयवार बजट आवंटन का मूल्यांकन करते हैं, जिससे राजकोषीय अनुशासन में सुधार होता है।
- उदाहरण: खाद्य एवं उपभोक्ता मामलों की समिति ने उपभोक्ता अधिकारों को मज़बूत करने के लिये उपभोक्ता संरक्षण अधिनियम, 2019 में सुधार का सुझाव दिया।
- अंतर-मंत्रालयी समन्वय
- समितियां मंत्रालयों के बीच संवाद को सुगम बनाती हैं, जिससे कुशल शासन और नीति एकीकरण सुनिश्चित होता है।
- आम सहमति बनाना और सार्वजनिक सहभागिता
- बंद कमरे में होने वाली चर्चाओं से सांसदों को पार्टी लाइन से परे सहयोग करने में मदद मिलती है, जिससे सूचित निर्णय लेने में मदद मिलती है।
- समितियाँ विशेषज्ञों और हितधारकों के परामर्श की अनुमति देकर शासन में सार्वजनिक भागीदारी को सक्षम बनाती हैं।
प्रभावशीलता को कमज़ोर करने वाली चुनौतियाँ:
- विधेयकों को समितियों को भेजने से मना करना
- PRS लेजिस्लेटिव रिसर्च के आँकड़े तीव्र गिरावट का संकेत देते हैं:
- 14वीं लोकसभा - 60% विधेयक DRSC को भेजे गए।
- 16वीं लोकसभा - केवल 27% मामलों में ही विचार-विमर्श हुआ, जिससे विचार-विमर्श वाला लोकतंत्र कमज़ोर हुआ।
- महत्त्वपूर्ण विधानों पर समितियों की अनदेखी
- अनुच्छेद 370 को हटाने जैसे कानूनों को किसी समिति को नहीं भेजा गया, जिससे संरचित बहस सीमित हो गई।
- कम उपस्थिति और सीमित भागीदारी
- वर्ष 2014-15 से समिति की बैठकों में औसत उपस्थिति लगभग 50% है, जिससे चर्चा की गुणवत्ता प्रभावित हो रही है।
- समिति की कार्यवाही का राजनीतिकरण
- सांसद अक्सर वस्तुनिष्ठ चर्चाओं की अपेक्षा पार्टी लाइन को प्राथमिकता देते हैं, जिससे जाँच में तटस्थता कम हो जाती है।
- सदस्यों का छोटा कार्यकाल
- वार्षिक पुनर्गठन से सदस्यों को विशिष्ट विशेषज्ञता प्राप्त करने से रोका जाता है, जिससे समिति की कार्यक्षमता कम हो जाती है।
- अनुसंधान और संसाधनों का अभाव
- समितियों के पास स्वतंत्र अनुसंधान समर्थन का अभाव है, जिससे रिपोर्टों में विश्लेषण की गहराई प्रभावित होती है।
- कार्यान्वयन की सीमित शक्तियाँ
- सरकार कानूनी रूप से समिति की सिफारिशों को लागू करने के लिये बाध्य नहीं है, जिससे उनका प्रभाव कमज़ोर हो रहा है।
- कमज़ोर बजट जाँच
- 16वीं लोकसभा में बजट पर केवल 17% चर्चा हुई, जिससे वित्तीय जवाबदेही कम हो गई।
संसदीय समितियों को मज़बूत करने के लिये सुधार:
- समिति का कार्यकाल बढ़ाएँ
- रामाचार्युलु समिति ने विशेषज्ञता विकास के लिये कार्यकाल को एक वर्ष से बढ़ाकर दो वर्ष करने की सिफारिश की थी।
- समिति की रिपोर्ट पर अनिवार्य चर्चा
- संविधान के कार्यकरण की समीक्षा के लिये राष्ट्रीय आयोग (2002) ने प्रस्ताव दिया कि अधिक जवाबदेही के लिये समिति की रिपोर्टों पर संसद में बहस होनी चाहिये।
- बिलों का स्वचालित रेफरल सुनिश्चित करें
- प्रक्रिया नियमों में संशोधन करके सभी महत्त्वपूर्ण बिलों को DRSC को भेजना अनिवार्य किया जाएगा।
- अनुसंधान और विशेषज्ञ सहायता को बढ़ावा देना
- समिति विश्लेषण की गहराई में सुधार करने के लिये स्वतंत्र अनुसंधान दल और विषय वस्तु विशेषज्ञों की स्थापना करना।
- उपस्थिति और गैर-पक्षपातपूर्ण विचार-विमर्श में सुधार
- न्यूनतम उपस्थिति आवश्यकताएँ निर्धारित करना तथा बेहतर निर्णय लेने के लिये द्विदलीय चर्चा को प्रोत्साहित करना।
- सार्वजनिक जागरूकता और पारदर्शिता को मज़बूत करना
- सरलीकृत रिपोर्टों और सार्वजनिक परामर्श के माध्यम से समिति के निष्कर्षों को नागरिकों के लिये अधिक सुलभ बनाना।
निष्कर्ष:
संसदीय समितियाँ प्रभावी कानून-निर्माण, कार्यकारी जवाबदेही और नीति निरीक्षण के लिये आवश्यक हैं। हालाँकि बिल रेफरल में कमी, राजनीतिक प्रभाव में वृद्धि और सिफारिशों के कमज़ोर कार्यान्वयन ने उनके प्रभाव को कम कर दिया है। समिति के कार्यकाल, अनुसंधान सहायता और विधायी जाँच तंत्र को मज़बूत करना उनकी प्रभावशीलता को बहाल करने एवं संसदीय लोकतंत्र को बनाए रखने के लिये आवश्यक है।