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70th BPSC Mains

  • 28 Mar 2025 सामान्य अध्ययन पेपर 2 राजव्यवस्था

    दिवस- 23: "यद्यपि संविधान में दसवीं अनुसूची को शामिल किया गया है, फिर भी भारतीय विधानमंडलों में विधायकों द्वारा कार्यकाल के दौरान दल बदलने की प्रवृत्ति बनी हुई है।" इस संदर्भ में, दलबदल विरोधी कानून का आलोचनात्मक विश्लेषण कीजिये तथा इसे प्रभावी रूप से रोकने के उपाय सुझाइये। (38 अंक)

    उत्तर

    हल करने का दृष्टिकोण:

    • संविधान की दसवीं अनुसूची का संक्षेप में वर्णन कीजिये।
    • दलबदल विरोधी कानून के सकारात्मक और नकारात्मक प्रभाव की रूपरेखा तैयार कीजिये।
    • इसे रोकने हेतु उपाय सुझाइये।
    • उचित निष्कर्ष दीजिये।

    परिचय:

    भारतीय संविधान की दसवीं अनुसूची, जिसे 52वें संविधान संशोधन अधिनियम, 1985 के माध्यम से पेश किया गया था, का उद्देश्य विधायकों द्वारा राजनीतिक दलबदल के मुद्दे को संबोधित करना था। इसका उद्देश्य पार्टी अनुशासन को बनाए रखना, सरकारों की स्थिरता सुनिश्चित करना और चुनावी जनादेश की पवित्रता को बनाए रखना था। हालाँकि निरंतर दलबदल और बदलते गठबंधनों की प्रवृत्ति ने मौजूदा कानून की प्रभावशीलता पर गंभीर प्रश्नचिह्न खड़ा कर दिया है।

    मुख्य भाग:

    दलबदल विरोधी कानून का सकारात्मक प्रभाव

    • निर्वाचित सरकारों की स्थिरता सुनिश्चित करता है: यह कानून अंधाधुंध तरीके से सरकार बदलने को हतोत्साहित करता है, जिससे सत्तारूढ़ गठबंधन की दीर्घायु बनाए रखने में मदद मिलती है
    • पार्टी सामंजस्य को प्रोत्साहित करना: विधायकों से अपेक्षा की जाती है कि वे पार्टी की नीतियों और घोषणा-पत्र को कायम रखें तथा वैचारिक एकता को मज़बूत करें
    • अवसरवादी गठबंधनों को हतोत्साहित करता है: यह कानून व्यक्तिगत या राजनीतिक लाभ के लिये निष्ठा में बार-बार होने वाले बदलावों को रोकता है, जो अक्सर मतदाताओं के विश्वास को कमज़ोर करते हैं।
    • अयोग्यता के लिये कानूनी आधार: दसवीं अनुसूची दलबदलू सदस्यों को अयोग्य ठहराने के लिये एक संवैधानिक तंत्र प्रदान करती है, जिससे अनियमित राजनीतिक पैंतरेबाज़ी की गुंजाइश कम हो जाती है।

    कार्यान्वयन में चुनौतियाँ और सीमाएँ

    • विधायी स्वायत्तता को सीमित करना: दलीय नीतियों का सख्ती से पालन करने से विधायकों के बीच अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता और असहमति पर अंकुश लगता है, यहाँ तक ​​कि गैर-महत्त्वपूर्ण मुद्दों पर भी।
    • शब्दावली में अस्पष्टता: "स्वेच्छा से सदस्यता छोड़ना" जैसे वाक्यांश व्याख्या के लिये खुले हैं, जिससे अस्पष्टता और कानूनी विवाद उत्पन्न होते हैं
    • पीठासीन अधिकारियों द्वारा निर्णय में देरी: कानून में अध्यक्ष या सभापति द्वारा अयोग्यता के मामलों पर निर्णय लेने के लिये कोई समय-सीमा निर्दिष्ट नहीं की गई है, जिसके कारण अनिश्चितकालीन विलंब होता है
      • उदाहरण – अरुणाचल प्रदेश (2016): विधायकों के एक समूह द्वारा समर्थन बदल लेने के बाद राजनीतिक संकट उत्पन्न हो गया, जिसके परिणामस्वरूप अंततः राष्ट्रपति शासन लागू हो गया, जबकि अयोग्यता याचिकाएँ लंबित थीं।
    • विलय प्रावधान का अनियमित उपयोग: दो-तिहाई सदस्यों के विलय के मामलों में अयोग्यता से छूट का उपयोग वैचारिक औचित्य के बिना समूह दलबदल को सुविधाजनक बनाने के लिये किया गया है।
      • उदाहरण – उत्तराखंड (2016): दलबदल से जुड़े एक राजनीतिक संकट के कारण नौ विधायकों को अयोग्य घोषित कर दिया गया, जिसे बाद में उच्च न्यायालय ने बरकरार रखा। 
      • इससे स्वैच्छिक त्याग-पत्र और विलयन की शर्तों की व्याख्या की जटिलता उजागर हुई।
    • पीठासीन अधिकारी के विवेक में निष्पक्षता का अभाव: चूँकि पीठासीन अधिकारी अक्सर सत्तारूढ़ दल का सदस्य होता है, इसलिये निर्णय लेने में निष्पक्षता से समझौता हो सकता है।
      • उदाहरण – बिहार (2022): विधानसभा में राजनीतिक गठबंधन बदलने से दलबदल की भावना को लेकर चिंताएँ बढ़ीं, हालाँकि औपचारिक अयोग्यता नहीं हुई।

    कानून को मज़बूत करने के लिये सुधार उपाय

    • समयबद्ध निर्णय लेना: अयोग्यता के मामलों पर निर्णय लेने के लिये एक विशिष्ट समय-सीमा (जैसे- 90 दिन) अनिवार्य करने के लिये कानून में संशोधन करें।
    • निर्णय लेने का अधिकार स्वतंत्र निकाय को हस्तांतरित करना: जैसा कि संविधान के कार्यकरण की समीक्षा के लिये राष्ट्रीय आयोग (NCRWC) ने सुझाव दिया है, अयोग्यता संबंधी निर्णय चुनाव आयोग द्वारा लिये जाने चाहिये, न कि अध्यक्ष द्वारा।
    • प्रमुख शब्दों को स्पष्ट करें: कानूनी निश्चितता और स्थिरता सुनिश्चित करने के लिये "स्वैच्छिक रूप से सदस्यता छोड़ना" जैसे शब्दों को स्पष्ट रूप से परिभाषित करें।
    • व्हिप का दायरा महत्त्वपूर्ण मुद्दों तक सीमित रखें: अयोग्यता को विश्वास प्रस्तावों और बजट विधेयकों जैसे प्रमुख मामलों तक सीमित रखा जाना चाहिये, जिससे पार्टी के भीतर बहस को बढ़ावा मिले
    • विलय प्रावधानों का पुनर्मूल्यांकन: संख्यात्मक शक्ति के बजाय वैचारिक तर्क पर आधारित छूट से विलय खंड का दुरुपयोग कम होगा।

    निष्कर्ष:

    दलबदल विरोधी कानून का उद्देश्य लोकतांत्रिक प्रक्रिया की अखंडता बनाए रखना और निर्वाचित प्रतिनिधियों को जवाबदेह बनाना था। हालाँकि इसकी खामियों के कारण दलबदल विभिन्न नए रूपों में जारी रहा है। कानूनी स्पष्टता, संस्थागत तटस्थता और प्रक्रियात्मक सुधारों के माध्यम से इन चुनौतियों का समाधान करना यह सुनिश्चित करने के लिये आवश्यक है कि कानून संविधान की भावना तथा जीवंत लोकतंत्र की अपेक्षाओं के अनुरूप हो

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