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06 Mar 2025
सामान्य अध्ययन पेपर 1
इतिहास
दिवस-04: निम्नलिखित पर संक्षिप्त टिप्पणियाँ लिखिये:
(क) किसान सभा आंदोलन में सहजानंद की भूमिका और उनके योगदान पर चर्चा कीजिये।
(8 अंक)
(ख) सांप्रदायिकता और धर्मनिरपेक्षता पर नेहरू के दृष्टिकोण को स्पष्ट कीजिये। (8 अंक)उत्तर
हल करने का दृष्टिकोण:
- सहजानंद और उनके योगदान का संक्षिप्त परिचय दीजिये।
- किसान सभा आंदोलन में उनके योगदान पर चर्चा कीजिये।
- उचित निष्कर्ष दीजिये।
परिचय:
स्वामी सहजानंद सरस्वती (1889-1950) भारत के स्वतंत्रता संग्राम में एक प्रमुख नेता थे, जिन्होंने किसानों के अधिकारों का समर्थन किया। उन्होंने किसान सभा आंदोलन का नेतृत्व किया, ग्रामीण समुदायों को ज़मींदारी उत्पीड़न के खिलाफ संगठित किया और सामाजिक-आर्थिक न्याय का समर्थन किया।
मुख्य भाग:
किसान सभा आंदोलन में योगदान:
- स्थानीय किसान सभाओं की स्थापना:
- वर्ष 1927 में स्वामी सहजानंद ने स्थानीय ब्राह्मण ज़मींदारों द्वारा किसानों के बड़े पैमाने पर शोषण के जवाब में पश्चिमी पटना किसान सभा की स्थापना की। इस पहल ने बिहार में संगठित किसान प्रतिरोध की शुरुआत की।
- इस गति को आगे बढ़ाते हुए, वर्ष 1929 में सोनपुर मेले के दौरान बिहार प्रांतीय किसान सभा (BPKS) का गठन किया गया, जिसने पूरे प्रांत के किसानों को एकजुट किया और सामंती उत्पीड़न के खिलाफ उनकी सामूहिक आवाज़ को बुलंद किया।
- राष्ट्रीय आंदोलनों के लिये समर्थन और नीति विरोध:
- वर्ष 1930 में, किसान सभा ने ब्रिटिश औपनिवेशिक शासन के खिलाफ व्यापक सविनय अवज्ञा अभियान का समर्थन करने के लिये रणनीतिक रूप से अपनी गतिविधियों को निलंबित कर दिया, साथ-ही-साथ विवादास्पद काश्तकारी विधेयक में संशोधन का विरोध किया, जिससे किसानों के अधिकारों को खतरा था।
- वर्ष 1933 तक सहजानंद ज़मींदारों के पक्ष में समझौता उपायों के कट्टर आलोचक के रूप में उभरे थे, जोकि बटाईदार किसानों के हितों की रक्षा के प्रति उनकी प्रतिबद्धता को रेखांकित करता था।
- अखिल भारतीय किसान सभा (AIKS) का गठन:
- वर्ष 1936 में, एक एकीकृत राष्ट्रीय मंच की आवश्यकता को समझते हुए, अखिल भारतीय किसान सभा (AIKS) की स्थापना की गई, जिसके अध्यक्ष सहजानंद थे।
- उनके नेतृत्व में, AIKS ने कृषि ऋणों की माफी और ज़मींदारी प्रथा के उन्मूलन की मांग की, जिसने ग्रामीण समुदायों को लंबे समय से आर्थिक शोषण तथा गरीबी की स्थिति में बनाए रखा था।
- बकाश्त आंदोलन में नेतृत्व:
- वर्ष 1937 से 1938 के बीच स्वामी सहजानंद ने बिहार में बकाश्त आंदोलन का नेतृत्व किया।
- इस अभियान के तहत काश्तकारों की स्वयं-खेती वाली भूमि से बेदखली का कड़ा विरोध किया गया।
- इस आंदोलन में सहजानंद और उनके अनुयायियों की अथक सक्रियता ने अंततः महत्त्वपूर्ण नीतिगत परिवर्तनों को प्रेरित किया, जिसकी परिणति बिहार काश्तकारी अधिनियम के अधिनियमन एवं बकाश्त भूमि कर के कार्यान्वयन के रूप में हुई।
- वर्ष 1937 से 1938 के बीच स्वामी सहजानंद ने बिहार में बकाश्त आंदोलन का नेतृत्व किया।
निष्कर्ष:
स्वामी सहजानंद सरस्वती के नेतृत्व ने किसान सभा आंदोलन को पुनर्जीवित किया, अन्यायपूर्ण नीतियों को चुनौती दी और बकाश्त आंदोलन का नेतृत्व किया, ग्रामीण न्याय को आगे बढ़ाया एवं उत्पीड़न के खिलाफ सामूहिक कार्रवाई के माध्यम से भविष्य के कृषि सुधारों को आकार दिया।
(ख) सांप्रदायिकता और धर्मनिरपेक्षता पर जवाहरलाल नेहरू के विचारों पर चर्चा कीजिये।
हल करने का दृष्टिकोण:
- नेहरू और उनके योगदान का संक्षिप्त परिचय दीजिये।
- सांप्रदायिकता और धर्मनिरपेक्षता पर उनके विचारों पर चर्चा कीजिये।
- उचित निष्कर्ष दीजिये।
परिचय:
भारत के प्रथम प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू एक दूरदर्शी नेता थे, जिनके विचारों ने आधुनिक भारत को महत्त्वपूर्ण रूप से आकार दिया। उन्होंने एक समावेशी ढाँचे को प्रोत्साहित किया, जो धर्मनिरपेक्षता को प्राथमिकता देता था और सांप्रदायिकता का विरोध करता था, ताकि एक ऐसा राष्ट्र बनाया जा सके जहाँ विविधता को स्वीकार किया जाए तथा सभी नागरिकों को समान अधिकार मिले।
मुख्य भाग:
सांप्रदायिकता पर नेहरू के विचार:
- परिभाषा और आलोचना:
- नेहरू धार्मिक पहचान के आधार पर राजनीतिक पहचान को जोड़ने वाली सांप्रदायिकता को राष्ट्रीय प्रगति के लिये गंभीर खतरा मानते थे।
- उनका मानना था कि जब राजनीति धार्मिक संबद्धता से परिभाषित हो जाती है, तो इससे समाज विखंडित हो जाता है और साझा राष्ट्रीय पहचान कमज़ोर हो जाती है, जिससे राज्य विभाजन तथा संघर्ष के प्रति संवेदनशील हो जाता है।
- राष्ट्रीय एकता पर प्रभाव:
- नेहरू ने तर्क दिया कि सांप्रदायिक राजनीति एक समावेशी समाज बनाने के प्रयासों को कमज़ोर करती है, जहाँ हर समुदाय, चाहे उसकी धार्मिक पृष्ठभूमि कुछ भी हो, राष्ट्रीय प्रगति में योगदान देता है।
- वे उन आंदोलनों की विशेष रूप से आलोचना करते थे जो संकीर्ण धार्मिक पहचान को बढ़ावा देते थे, क्योंकि उन्हें यह सामाजिक सामंजस्य और विविध समुदायों के सह-अस्तित्व में बाधा लगता था।
- ऐतिहासिक संदर्भ:
- वर्ष 1947 में भारत के विभाजन जैसी घटनाओं पर विचार करते हुए, नेहरू ने कहा कि सांप्रदायिक विभाजन के कारण महत्त्वपूर्ण सामाजिक और राजनीतिक उथल-पुथल हुई, जिससे शासन में धर्मनिरपेक्ष दृष्टिकोण की आवश्यकता में उनका विश्वास मज़बूत हुआ।
धर्मनिरपेक्षता पर नेहरू के विचार:
- धर्मनिरपेक्षता की अवधारणा:
- नेहरू की धर्मनिरपेक्षता की दृष्टि धार्मिक मामलों में राज्य की तटस्थता के सिद्धांत पर आधारित थी।
- उनका मानना था कि राज्य को किसी भी धर्म का समर्थन या पक्ष नहीं लेना चाहिये, बल्कि ऐसा ढाँचा प्रदान करना चाहिये, जहाँ सभी नागरिक बिना किसी हस्तक्षेप के अपनी आस्था का स्वतंत्रतापूर्वक पालन कर सकें।
- शासन में भूमिका:
- नेहरू के लिये धर्मनिरपेक्षता एक लोकतांत्रिक समाज की आधारशिला थी, जो सभी नागरिकों को धार्मिक स्वतंत्रता और समानता सुनिश्चित करती थी।
- उन्होंने इसे वैज्ञानिक दृष्टिकोण, तर्कसंगत संवाद और सामाजिक प्रगति को बढ़ावा देने के साधन के रूप में देखा तथा यह सुनिश्चित किया कि सार्वजनिक नीति धार्मिक हठधर्मिता के बजाय तर्क पर आधारित हो।
- दीर्घकालिक प्रभाव:
- धर्मनिरपेक्षता के प्रति नेहरू की प्रतिबद्धता भारतीय संविधान की आधारशिला बन गई, जिससे देश के कानूनी और राजनीतिक ढाँचे को इस तरह से आकार देने में मदद मिली, जिससे समावेशिता को बढ़ावा मिला तथा धार्मिक संघर्षों में कमी आई।
निष्कर्ष:
नेहरू की सांप्रदायिकता की आलोचना और धर्मनिरपेक्षता की वकालत एक समावेशी, एकजुट भारत के लिये उनके व्यापक दृष्टिकोण को दर्शाती है। उनका संतुलित दृष्टिकोण, जिसमें राज्य की धार्मिक मामलों में तटस्थता और विभाजनकारी धार्मिक राजनीति की अस्वीकृति शामिल थी, भारत के लोकतांत्रिक मूल्यों का एक महत्त्वपूर्ण आधार बना रहा तथा राष्ट्रीय पहचान व सामाजिक समरसता पर जारी बहस को प्रभावित करता रहा।