भारत में जनगणना | 07 Oct 2021
अवलोकन
परिभाषा:
- जनगणना किसी देश या देश के एक सुपरिभाषित हिस्से के सभी व्यक्तियों के एक विशिष्ट समय पर जनसांख्यिकीय, आर्थिक और सामाजिक डेटा एकत्र करने, उसके संकलन, विश्लेषण और प्रसारित करने की प्रक्रिया है।
- यह जनसंख्या की विशेषताओं पर भी प्रकाश डालती है।
- भारतीय जनगणना दुनिया में किये जाने वाले सबसे बड़े प्रशासनिक अभ्यासों में से एक है।
नोडल मंत्रालय:
- दशकीय जनगणना का संचालन महारजिस्ट्रार एवं जनगणना आयुक्त का कार्यालय,गृह मंत्रालय द्वारा किया जाता है।
- वर्ष 1951 तक प्रत्येक जनगणना के लिये तदर्थ आधार पर जनगणना संगठन की स्थापना की गई थी।
कानूनी/संवैधानिक प्रावधान:
- जनगणना का कार्य जनगणना अधिनियम, 1948 के प्रावधानों के तहत किया जाता है।
- इस अधिनियम को बनाने हेतु विधेयक भारत के तत्कालीन गृह मंत्री सरदार वल्लभभाई पटेल द्वारा पेश किया गया था।
- भारत के संविधान के अनुच्छेद 246 के तहत जनगणना संघ का विषय है।
- यह संविधान की सातवीं अनुसूची के क्रमांक 69 में सूचीबद्ध है।
सूचना की गोपनीयता:
- जनगणना के दौरान एकत्र की गई जानकारी इतनी गोपनीय होती है कि यह न्यायालयों के लिये भी सुलभ नहीं होती है।
- जनगणना अधिनियम, 1948 द्वारा गोपनीयता की गारंटी दी जाती है। कानून सार्वजनिक और जनगणना अधिकारियों दोनों के लिये गैर-अनुपालन या अधिनियम के किसी भी प्रावधान के उल्लंघन पर दंड निर्दिष्ट करता है।
जनगणना का महत्त्व:
- सूचना का स्रोत: भारतीय जनगणना भारत के लोगों की विशेषताओं के बारे में विभिन्न प्रकार की सांख्यिकीय जानकारी का सबसे बड़ा एकल स्रोत है।
- शोधकर्त्ता जनसंख्या के विकास और प्रवृत्तियों का विश्लेषण करने और अनुमान लगाने के लिये जनगणना के आँकड़ों का उपयोग करते हैं।
- सुशासन: जनगणना के माध्यम से एकत्र किये गए डेटा का उपयोग प्रशासन, योजना और नीति निर्माण के साथ-साथ सरकार द्वारा विभिन्न कार्यक्रमों के प्रबंधन और मूल्यांकन के लिये किया जाता है।
- सीमांकन: जनगणना के आँकड़ों का उपयोग निर्वाचन क्षेत्रों के सीमांकन और संसद, राज्य विधानसभाओं तथा स्थानीय निकायों के प्रतिनिधित्व हेतु आवंटन के लिये भी किया जाता है।
- व्यवसायों की बेहतर पहुँच: व्यावसायिक घरानों और उद्योगों के लिये भी जनगणना के आँकड़े महत्त्वपूर्ण होते हैं, ताकि वे उन क्षेत्रों, जहाँ अब तक उनकी पहुँच नहीं थी, में अपने व्यवसाय को मज़बूती प्रदान करने हेतु योजना बना सकें।
- अनुदान देना: वित्त आयोग जनगणना के माध्यम से उपलब्ध जनसंख्या के आँकड़ों के आधार पर राज्यों को अनुदान प्रदान करता है।
जनगणना का इतिहास
- प्राचीन और मध्यकालीन इतिहास:
- ऋग्वेद: प्रारंभिक साहित्य 'ऋग्वेद' से पता चलता है कि भारत में 800-600 ईसा पूर्व के दौरान एक प्रकार की जनसंख्या गणना को बनाए रखा गया था।
- अर्थशास्त्र: तीसरी शताब्दी ईसा पूर्व 'कौटिल्य' द्वारा लिखे गए 'अर्थशास्त्र' ने कराधान हेतु राज्य की नीति बनाने के एक उपाय के रूप में जनसंख्या के आँकड़ों का संग्रहण निर्धारित किया।
- आइन-ए-अकबरी: मुगल बादशाह अकबर के शासन काल में प्रशासनिक रिपोर्ट 'आइन-ए-अकबरी' में जनसंख्या, उद्योग, धन और कई अन्य विशेषताओं से संबंधित व्यापक आँकड़े भी शामिल थे।
स्वतंत्रता-पूर्व अवधि में जनगणना:
- प्रारंभिक प्रयास:
- जनगणना का इतिहास 1800 ई. से शुरू हुआ जब इंग्लैंड ने अपनी जनगणना शुरू की थी।
- इसकी निरंतरता में जेम्स प्रिंसेप द्वारा इलाहाबाद (वर्ष 1824) और बनारस (वर्ष 1827-28) में जनगणना करवाई गई।
- एक भारतीय शहर की पहली पूर्ण जनगणना वर्ष 1830 में हेनरी वाल्टर द्वारा ढाका (अब बांग्लादेश में) में आयोजित की गई थी।
- दूसरी जनगणना वर्ष 1836-37 में फोर्ट सेंट जॉर्ज द्वारा की गई थी।
- वर्ष 1849 में भारत सरकार ने स्थानीय सरकारों को जनसंख्या का पंचवर्षीय संचालन करने का आदेश दिया।
- पहली गैर-तुल्यकालिक जनगणना: यह भारत में वर्ष 1872 में गवर्नर-जनरल लॉर्ड मेयो के शासन काल के दौरान आयोजित की गई थी।
- पहली तुल्यकालिक जनगणना: पहली तुल्यकालिक जनगणना 17 फरवरी, 1881 को ब्रिटिश शासन के तहत डब्ल्यू.सी. प्लौडेन (भारत के जनगणना आयुक्त) द्वारा करवाई गई।
- तब से हर दस साल में एक बार निर्बाध रूप से जनगणना की जाती रही है।
भारत की जनगणना संबंधी प्रमुख घटनाएँ/निष्कर्ष
- पहली जनगणना (वर्ष 1881):
- इसने ब्रिटिश भारत के पूरे महाद्वीप (कश्मीर, फ्रेंच तथा पुर्तगाली उपनिवेशों को छोड़कर) की जनसांख्यिकीय, आर्थिक और सामाजिक विशेषताओं के वर्गीकरण पर विशेष बल दिया।
- दूसरी जनगणना (वर्ष 1891):
- यह लगभग वर्ष 1881 की जनगणना के समान पैटर्न पर ही आयोजित की गई थी।
- इसमें 100% कवरेज के प्रयास किये गए और वर्तमान बर्मा के ऊपरी हिस्से, कश्मीर और सिक्किम को भी शामिल किया गया।
- तीसरी जनगणना (वर्ष 1901):
- इस जनगणना में बलूचिस्तान, राजपूताना, अंडमान निकोबार, बर्मा, पंजाब और कश्मीर के सुदूर इलाकों को शामिल किया गया था।
- पाँचवीं जनगणना (वर्ष 1921):
- 1911-21 का दशक अब तक का एकमात्र ऐसा दशक रहा है, जिसमें जनसंख्या में 0.31% की दशकीय गिरावट देखी गई।
- यह वह दशक था जब वर्ष 1918 में फ्लू महामारी का प्रकोप फैला हुआ था, जिसमें कम-से-कम 12 मिलियन लोगों की जान गई थी।
- भारत की जनसंख्या वर्ष 1921 की जनगणना तक लगातार बढ़ रही थी और वर्ष 1921 की जनगणना के बाद भी यह वृद्धि जारी है।
- इसलिये वर्ष 1921 के जनगणना वर्ष को भारत के जनसांख्यिकीय इतिहास में "द ग्रेट डिवाइड" या महान विभाजक वर्ष कहा जाता है।
- ग्यारहवीं जनगणना (वर्ष 1971):
- स्वतंत्रता के बाद यह दूसरी जनगणना थी।
- इसने वर्तमान में विवाहित महिलाओं की प्रजनन क्षमता के बारे में जानकारी के लिये एक प्रश्न जोड़ा।
- तेरहवीं जनगणना (वर्ष 1991):
- यह स्वतंत्र भारत की पाँचवीं जनगणना थी।
- इस जनगणना में साक्षरता की अवधारणा को बदल दिया गया और 7+ आयु वर्ग के बच्चों को साक्षर माना गया (वर्ष 1981 की तुलना में जब 4+ आयु वर्ग के बच्चों को साक्षर माना जाता था)।
- चौदहवीं जनगणना (2001):
- इसमें प्रौद्योगिकी के मोर्चे पर एक बड़ी छलांग लगाई गई।
- चरणों के शेड्यूल को हाई स्पीड स्कैनर के माध्यम से स्कैन किया गया था और शेड्यूल के हस्तलिखित डेटा को इंटेलिजेंट कैरेक्टर रीडिंग (ICR) के माध्यम से डिजिटल रूप में परिवर्तित किया गया था।
- एक ICR छवि फाइलों से हस्तलेखन को कैप्चर करती है। यह ऑप्टिकल कैरेक्टर रिकॉग्निशन (OCR) तकनीक का एक उन्नत संस्करण है जिसमें मुद्रित वर्ण कैप्चर किये जाते हैं।
- पंद्रहवीं जनगणना (वर्ष 2011):
- वर्ष 2011 की जनगणना में EAG राज्यों (अधिकार प्राप्त कार्रवाई समूह/Empowered Action Group): उत्तर प्रदेश, उत्तराखंड, बिहार, झारखंड, मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़, राजस्थान और ओडिशा) के मामले में पहली बार महत्त्वपूर्ण गिरावट देखी गई थी।
- सोलहवीं जनगणना (2021):
- जनगणना 2021 को कोविड-19 महामारी के प्रकोप के कारण स्थगित कर दिया गया था।
- हालाँकि यह पहली डिजिटल जनगणना होगी, जिसमें स्व-गणना का भी प्रावधान होगा।
- यह पहली बार है कि ऐसे परिवार और परिवारों में रहने वाले सदस्यों की जानकारी एकत्र की जाएगी, जिसका मुखिया कोई ट्रांसजेंडर हो।
- पहले केवल पुरुष और महिला के लिये एक कॉलम था।
सामाजिक-आर्थिक और जाति जनगणना (एसईसीसी):
- सामाजिक-आर्थिक और जाति जनगणना (SECC) वर्ष 1931 के बाद पहली बार वर्ष 2011 में आयोजित की गई थी।
- इसके अंतर्गत ग्रामीण और शहरी भारत के प्रत्येक भारतीय परिवार के बारे में जानने का प्रयास किया जाता है तथा उनकी निम्नलिखित जानकारी प्राप्त की जाती है:
- आर्थिक स्थिति के बारे में ताकि केंद्र/राज्य प्राधिकरण इसका उपयोग गरीब/गरीबी या वंचित व्यक्ति को परिभाषित करने के लिये कर सकें और इसके लिये विभिन्न प्रकार के संकेतक विकसित किये जा सकें।
- विशिष्ट जाति का नाम, सरकार को यह पुनर्मूल्यांकन करने के लिये कि कौन से जाति समूह आर्थिक रूप से बदतर स्थिति में हैं और कौन से बेहतर।
जनगणना और SECC के बीच अंतर:
- कवरेज का क्षेत्र: जनगणना भारतीय जनसंख्या का एक मानचित्र प्रदान करती है, जबकि SECC राज्य द्वारा प्रदान की जाने वाली सहायता के लाभार्थियों की पहचान करने का एक उपकरण है।
- डेटा की गोपनीयता: जनगणना के आँकड़ों को गोपनीय माना जाता है, जबकि SECC के आँकड़े सरकारी विभागों द्वारा लोगों को लाभ देने या अनुचित लाभ प्राप्त करने से रोकने के लिये उपयोग हेतु उपलब्ध होते हैं।
SECC का महत्त्व:
- असमानताओं का बेहतर मानचित्रण: SECC में व्यापक स्तर पर असमानताओं के मानचित्रण की क्षमता होती है।
- इससे जाति आधारित सकारात्मक कार्रवाई या कल्याणकारी योजनाओं के लिये सांख्यिकीय औचित्य स्थापित करना उपयोगी होगा।
- कानूनी रूप से अनिवार्य: यह कानूनी रूप से भी अनिवार्य है क्योंकि अदालतों को आरक्षण के मौजूदा स्तरों का समर्थन करने के लिये 'मात्रात्मक डेटा' की आवश्यकता होती है।
- संवैधानिक जनादेश: भारत का संविधान भी जाति जनगणना कराने का पक्षधर है।
- अनुच्छेद 340 सामाजिक और शैक्षिक रूप से पिछड़े वर्गों की स्थितियों की जाँच करने और सरकारों द्वारा उठाए जाने वाले कदमों के बारे में सिफारिशें करने के लिये एक आयोग की नियुक्ति को अनिवार्य बनाता है।
SECC से संबद्ध चिंताएँ:
- जाति आधारित जनगणना के नतीजे: जाति का एक भावनात्मक पक्ष होता है और इस प्रकार जाति जनगणना के राजनीतिक और सामाजिक परिणाम सामने आते हैं।
- ऐसी चिंताएँ देखी गई हैं कि जाति आधारित जनगणना से जातिगत पहचान को मज़बूत करने मदद मिल सकती है।
- इन नतीजों के कारण सामाजिक-आर्थिक और जाति जनगणना (SECC) के लगभग एक दशक बाद भी इसके डेटा का एक बड़ा हिस्सा अप्रकाशित या केवल टुकड़ों में जारी किया जाता है।
जाति विशिष्ट संदर्भ से जुड़ी हुई है: जाति कभी भी भारत में वर्ग या वंचना के लिये एक अनिवार्य शर्त नहीं रही है; यह एक विशिष्ट प्रकार के अंतर्निहित भेदभाव का गठन करती है जो अक्सर वर्ग से परे होता है।