मृदा कई ठोस, तरल और गैसीय पदार्थों का मिश्रण है जो भूपर्पटी के सबसे ऊपरी स्तर में पाई जाती है।
जैविक, भौतिक और रासायनिक प्रक्रियाओं के एक लंबी अवधि तक बने रहने से मृदा का निर्माण होता है।
भिन्न स्थानों पर भिन्न-भिन्न प्रकार की मृदा पाई जाती है फलस्वरूप फसलों, घासों तथा पेड़-पौधों में भी भिन्नता पाई जाती है।
जिस मृदा में चूने की मात्रा कम होती है वह अम्लीय मृदा होती है तथा जिसमें चूने की अधिक मात्रा होती है वह क्षारीय मृदा होती है।
प्रत्येक वर्ष 5 दिसंबर को विश्व मृदा दिवस मनाया जाता है।
मृदा की संरचना और संघटन:
मृदा के संघटन का संबंध विभिन्न प्रकार के अवसादों के अनुपात से है, जबकि अवसादों की व्यवस्था का संबंध मृदा की संरचना से होता है।
जब मृदा के कण आपस में संघटित होकर पिंड का रूप लेते हैं तो इन संघटित पिंडों को मृदा की संरचना कहा जाता है।
मृदा की संरचना एवं गठनता इसकी सरंध्रता एवं पारगम्यता को निर्धारित करते हैं।
बारीक कणों से निर्मित चीका युक्त मृदा में छिद्रों का आकार छोटा एवं संख्या अधिक होती है इसलिये जल को अवशोषित करने की क्षमता अधिक हो जाती है जिससे चीका युक्त मृदा आर्द्र होने पर चिपचिपी हो जाती है और शुष्क होने पर इसमें दरारें पड़ जाती हैं।
वहीं बड़े आकार के कणों से निर्मित रेतीली मृदा में जल अवशोषण की क्षमता कम होती है और पारगम्यता अधिक हो जाती है जिस कारण जल का रिसाव ऊपर की परतों से नीचे की परतों में होता है यही कारण है कि रेतीली मृदा शुष्क होती है।
दोमट मृदा में रेत और चीका का अनुपात लगभग समान होता है इसलिये इसकी पारगम्यता में एक प्रकार का संतुलन होता है फलतः यह कृषि के लिये उपजाऊ मृदा होती है।
मृदा निर्माण को प्रभावित करने वाले कारक:
चट्टानी संरचना-
मृदाके नीचे स्थित चट्टानी संस्तर से मृदा का निर्माण होता है। यह आवश्यक नहीं है कि किसी क्षेत्र की मृदा उसी चट्टानी संस्तर पर स्थित हो जिससे वह बनी हो।
ग्रेनाइट चट्टान के टूटने से बालू मिश्रित चिकनी मृदा का, जबकि बेसाल्ट चट्टान के अपक्षय से महीन कणों की उपजाऊ काली मृदा का निर्माण होता है।
शेल जैसी चट्टानें अच्छी मृदा उत्पादक होती हैं क्योंकि ये चट्टानें शीघ्र ही अपक्षयित हो जाती हैं, जबकि चुना पत्थर जैसी चट्टानें निम्न कोटि की मृदा उत्पादक होती हैं।
जलवायु-
एक ही जलवायु क्षेत्र में दो भिन्न प्रकार के जनक पदार्थ एक ही प्रकार की मृदा का निर्माण कर सकते हैं तथा एक ही तरह के जनक पदार्थ दो भिन्न जलवायु क्षेत्र में दो भिन्न प्रकार की मृदा का निर्माण कर सकते हैं।
जलवायवीय भिन्नताओं के कारण रवेदार ग्रेनाइट चट्टानें मानसूनी प्रदेश के आर्द्र भागों में लैटेराइट मृदा का और शुष्क भागों में लैटेराइट से भिन्न प्रकार की मृदा का निर्माण करती है, जबकि यही ग्रेनाइट चट्टानें स्टेपी तुल्य जलवायु में काली मृदा और टैग जलवायु में भूरी मृदा का निर्माण करती हैं।
मृदा का रंग जीवाश्म की मात्रा पर निर्भर करता है।
आर्द्र जलवायु प्रदेशों में वर्षा की मात्रा वास्पीकरण से अधिक होने के कारण वहाँ क्षारीय तत्त्व निक्षालन के द्वारा मृदा के नीचे की परतों में चले जाते हैं इसलिये आर्द्र जलवायु प्रदेशों की मृदा क्षारीय नहीं होती।
इसके विपरीत अर्द्ध-शुष्क एवं शुष्क जलवायु प्रदेशों की मृदा क्षारीय होती है क्योंकि यहाँ वाष्पीकरण की मात्रा वर्षा की मात्रा से अधिक होने के कारण केशिकात्त्व क्रिया द्वारा जल के साथ घुले हुए क्षारीय तत्त्व मृदा की निचली सतह से ऊपर की सतह में आ जाते हैं।
निम्न अक्षांशों से उच्च अक्षांशों की ओर जाने पर मृदा की अम्लीयता में वृद्धि होती जाती है।
वनस्पति-
उच्च अक्षांशों से निम्न अक्षांशों की ओर जाने पर वनस्पति की सघनता में वृद्धि के बावजूद ह्यूमस की मात्रा में पहले वृद्धि फिर कमी होती जाती है।
उच्च अक्षांशों में तापमान कम होने के कारण कार्बनिक पदार्थों का विघटन नहीं हो पाता, जबकि निम्न अक्षांशीय प्रदेशों में सूक्ष्म जीवों के द्वारा पत्तियों का उपभोग किये जाने के साथ निक्षालन के द्वारा ह्यूमस जल के साथ घुलकर मृदा की निचली सतहों में चले जाते हैं।
जीवाणु-
उष्ण एवं उपोष्ण कटिबंधीय जलवायु प्रदेशों में तापमान अधिक होने के कारण जीवाणु अधिक सक्रिय होते हैं जो मृदा से ह्यूमस की मात्रा को ग्रहण कर लेते हैं, फलतः इन प्रदेशों में ह्यूमस की मात्रा अपेक्षाकृत कम हो जाती है।
इसके विपरीत ठंडे प्रदेशों में जीवाणु कम सक्रिय रहते हैं जिसके कारण इन प्रदेशों की मृदा में ह्यूमस की क्षति कम होती है।
स्थलीय उच्चावच-
तीव्र ढाल वालीचट्टानी सतह पर जल बहाव अधिक तीव्र होने के कारण मृदा निर्माणकारी पदार्थों का जमाव कम हो जाता है फलतः यहाँ मृदा की बहुत पतली परत का ही निर्माण हो पाता है जिसे अवशिष्ट मृदा कहते हैं।
सपाट एवं समतल धरातल पर आदर्श अपवाह होता है एवं न्यूनतम अपरदन होता है अतः पूर्णतया अपक्षालित तथा गहरी मृदाओं का निर्माण होता है, जबकि चौरस परंतु निचले धरातल पर जल भराव होने एवं अच्छे अपवाह के अभाव में नीली भूरी, तर एवं चिपकने वाली मृदा की मोटी परत का निर्माण होता है।
ढाल की प्रवणता, लंबाई एवं ढाल पक्ष आधी किसी भी स्थान में मृदाओं के रासायनिक, भौतिक एवं जैविक गुणों को बड़े पैमाने पर प्रभावित करते हैं।