सामाजिक-धार्मिक सुधार आंदोलन- भाग ll | 22 Mar 2022
वहाबी/वल्लीउल्लाह आंदोलन क्या था?
- अरब के अब्दुल वहाब की शिक्षाओं और शाह वलीउल्लाह के उपदेशों ने उन पश्चिमी प्रभावों और पतन के प्रति पुनरुत्थानवादी प्रतिक्रिया को प्रेरित किया जो भारतीय मुसलमानों में स्थापित हो गई थी और इस्लाम की सच्ची भावना की वापसी का आह्वान किया था।
- वह 18वीं शताब्दी के पहले भारतीय मुस्लिम नेता थे, जिन्होंने इस आंदोलन के दोतरफा आदर्शों के इर्द-गिर्द मुसलमानों को संगठित किया।
- उनका उद्देश्य मुस्लिम न्यायशास्त्र के उन चार स्कूलों के बीच सद्भाव को बढ़ाना था, जिसने भारतीय मुसलमानों को विभाजित किया था (उन्होंने चार स्कूलों के सर्वोत्तम तत्त्वों को एकीकृत करने की मांग की थी)।
- धर्म में व्यक्तिगत आस्था की भूमिका को मान्यता, जहाँ परस्पर विरोधी व्याख्याएँ कुरान और हदीस से ली गई थीं।
- वलीउल्लाह की शिक्षाओं को शाह अब्दुल अजीज एवं सैयद अहमद बरेलवी ने और अधिक लोकप्रिय बनाया, उन्होंने इसे एक राजनीतिक परिप्रेक्ष्य भी दिया।
- मुस्लिम समाज में व्याप्त गैर-इस्लामी प्रथाओं को समाप्त करने की मांग की गई थी।
- सैयद अहमद ने शुद्ध इस्लाम और उस तरह के समाज की वापसी का आह्वान किया जो पैगंबर के समय अरब में मौजूद था।
- भारत को दार-उल-हरब (काफिरों की भूमि) माना जाता था और इसे दार-उल-इस्लाम (इस्लाम की भूमि) में परिवर्तित करने की आवश्यकता थी।
- प्रारंभ में आंदोलन पंजाब में सिखों के खिलाफ निर्देशित था, लेकिन पंजाब के ब्रिटिश विलय (वर्ष 1849) के बाद आंदोलन को अंग्रेज़ों के खिलाफ निर्देशित किया गया था।
- 1857 के विद्रोह के दौरान वहाबी ने ब्रिटिश विरोधी भावनाओं को फैलाने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई।
- 1870 के दशक में ब्रिटिश सेना के सामने वहाबी आंदोलन विफल हो गया।
टीटू मीर का आंदोलन क्या था?
- टीटू मीर के नाम से मशहूर मीर निथार अली वहाबी आंदोलन के संस्थापक सैय्यद अहमद बरेलवी के शिष्य थे।
- टीटू मीर ने वहाबवाद को अपनाया और शरीयत की वकालत की। उन्होंने बंगाल के मुस्लिम किसानों को ज़मींदारों के खिलाफ संगठित किया, जो ज़्यादातर हिंदू थे।
- यह आंदोलन उतना उग्रवादी नहीं था जितना कि ब्रिटिश रिकॉर्ड बताते हैं। टीटू के जीवन के अंतिम वर्ष में उनके और ब्रिटिश पुलिस के बीच टकराव हुआ था।
फराज़ी आंदोलन क्या था?
- फ़राज़ी आंदोलन की स्थापना 1818 में हाजी शरीयतुल्ला ने की थी।
- इसका कार्यक्षेत्र पूर्वी बंगाल था और इसका उद्देश्य क्षेत्र के मुसलमानों के बीच मौजूद सामाजिक नवाचारों या गैर-इस्लामी प्रथाओं का उन्मूलन करना था तथा मुसलमान के रूप में कर्तव्यों के प्रति उनका ध्यान आकर्षित करना था।
- वर्ष 1840 के बाद से दूदू मियाँ के नेतृत्व में यह आंदोलन क्रांतिकारी बन गया।
- उन्होंने आंदोलन को गाँव से लेकर प्रांत तक हर स्तर पर एक खलीफा या अधिकृत डिप्टी के साथ एक संगठनात्मक प्रणाली प्रदान की।
- फराज़ी ने ज़मींदारों से लड़ने के लिये क्लबों से लैस एक अर्द्धसैनिक बल का गठन किया, जिसमें ज़्यादातर हिंदू थे, हालाँकि नील की खेती करने वालों के अलावा कुछ मुस्लिम ज़मींदार भी थे।
- दूदू मियाँ ने अपने अनुयायियों से किराया नहीं देने को कहा।
- संगठन ने अपनी खुद की कानूनी अदालतें भी स्थापित कीं।
- दूदू मियाँ को कई बार गिरफ्तार किया गया और 1847 में उनकी गिरफ्तारी ने अंततः आंदोलन को कमज़ोर कर दिया। वर्ष 1862 में दूदू मियाँ की मृत्यु के बाद यह आंदोलन बिना राजनीतिक प्रभाव के केवल एक धार्मिक आंदोलन के रूप में जीवित रहा।
अहमदिया आंदोलन क्या था?
- अहमदिया इस्लाम का एक संप्रदाय है जिसकी उत्पत्ति भारत में हुई। इसकी स्थापना वर्ष 1889 में मिर्जा गुलाम अहमद ने की थी।
- यह उदारवादी सिद्धांतों पर आधारित था। इसने खुद को मुस्लिम पुनर्जागरण के मानक-वाहक के रूप में वर्णित किया और खुद को ब्रह्म समाज की तरह मानवता के सार्वभौमिक धर्म के सिद्धांतों पर आधारित बताया, साथ ही जिहाद (गैर-मुसलमानों के खिलाफ पवित्र युद्ध) का विरोध किया।
- इस आंदोलन ने भारतीय मुसलमानों के बीच पश्चिमी उदार शिक्षा का प्रसार किया।
- अहमदिया समुदाय एकमात्र इस्लामी संप्रदाय है जो यह मानता है कि मसीहा मिर्जा गुलाम अहमद का जन्म धार्मिक युद्धों और रक्तपात को समाप्त करने एवं नैतिकता, शांति व न्याय को बहाल करने के लिये हुआ था।
- वे मस्जिद (धर्म) को राज्य से अलग करने के साथ-साथ मानवाधिकार और सहिष्णुता में भी विश्वास करते थे।
- हालाँकि अहमदिया आंदोलन, वहाबवाद की तरह जो कि पश्चिम एशियाई देशों में फला-फूला, रहस्यवाद से युक्त था।
अलीगढ़ आंदोलन क्या था?
- सर सैयद अहमद खान मुसलमानों के लिये शैक्षिक अवसरों को बदलने व बढ़ाने में सबसे पहले और महत्त्वपूर्ण भूमिका के लिये जाने जाते हैं।
- उन्होंने महसूस किया कि मुसलमान तभी प्रगति कर सकते हैं जब वे आधुनिक शिक्षा को अपनाएँ। इसके लिये उन्होंने अलीगढ़ आंदोलन शुरू किया।
- यह एक व्यवस्थित आंदोलन था जिसका उद्देश्य मुस्लिम समुदाय के सामाजिक, राजनीतिक और शैक्षिक पहलुओं में सुधार करना था।
- इस आंदोलन ने पारंपरिक शिक्षाओं पर ध्यान केंद्रित करने के बजाय अंग्रेज़ी सीखने और इसे पश्चिमी शिक्षा के माध्यम के रूप में अपनाने के लिये मुस्लिम शिक्षा के आधुनिकीकरण का बीड़ा उठाया।
- वह पश्चिमी वैज्ञानिक शिक्षा को कुरान की शिक्षाओं के साथ समेटना चाहते थे, जिनकी व्याख्या समकालीन तर्कवाद और विज्ञान के प्रकाश में की जानी थी, भले ही उन्होंने कुरान को अंतिम सत्ता भी माना था।
- उन्होंने कहा कि धर्म समय के अनुकूल होना चाहिये अन्यथा यह समाप्त हो जाएगा और धार्मिक सिद्धांत अपरिवर्तनीय नहीं थे।
- उन्होंने आलोचनात्मक दृष्टिकोण और विचार की स्वतंत्रता की वकालत की, न कि परंपरा या प्रथा पर पूर्ण निर्भरता की।
- सर सैयद ने वर्ष 1864 में अलीगढ़ में साइंटिफिक सोसाइटी की स्थापना की ताकि पश्चिमी कार्यों का भारतीय भाषाओं में अनुवाद किया जा सके और मुसलमानों को पश्चिमी शिक्षा स्वीकार करने के लिये तैयार किया जा सके तथा मुसलमानों में वैज्ञानिक प्रवृत्ति पैदा की जा सके।
- अलीगढ़ इंस्टीट्यूट गजट, सर सैयद द्वारा प्रकाशित एक पत्रिका- साइंटिफिक सोसाइटी का एक अंग था।
- वर्ष 1877 में उन्होंने ऑक्सफोर्ड और कैम्ब्रिज विश्वविद्यालयों की तर्ज पर मोहम्मडन एंग्लो ओरिएंटल कॉलेज की स्थापना की। यह कॉलेज बाद में अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय के रूप में विकसित हुआ।
- अलीगढ़ आंदोलन ने मुस्लिम पुनरुत्थान में मदद की। इसने उन्हें एक आम भाषा दी- उर्दू।
- सर सैयद ने सामाजिक सुधारों पर भी ज़ोर दिया और वे लोकतांत्रिक आदर्शों व अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के समर्थक थे।
- वह धार्मिक असहिष्णुता, अज्ञानता और तर्कहीनता के खिलाफ थे। उन्होंने पर्दा, बहुविवाह तथा तीन तलाक की निंदा की।
- तहज़ेबुल अखलाक (अंग्रेज़ी में समाज सुधारक), उनके द्वारा स्थापित एक पत्रिका ने बहुत ही अभिव्यंजक गद्य में सामाजिक और धार्मिक मुद्दों पर लोगों की चेतना को जगाने की कोशिश की।
देवबंद आंदोलन क्या था?
- देवबंद आंदोलन का आयोजन मुस्लिम उलेमाओं के बीच रूढ़िवादी वर्ग द्वारा एक पुनरुत्थानवादी आंदोलन के रूप में किया गया था, जिसका उद्देश्य मुसलमानों के बीच कुरान और हदीस की पवित्र शिक्षाओं का प्रचार करना तथा विदेशी शासकों के खिलाफ जिहाद की भावना को जीवित रखना था।
- देवबंद आंदोलन की शुरुआत वर्ष1866 में सहारनपुर ज़िले (संयुक्त प्रांत) के दारुल उलूम (या इस्लामिक शैक्षणिक केंद्र), देवबंद में मोहम्मद कासिम नानोत्वी और राशिद अहमद गंगोही द्वारा मुस्लिम समुदाय के लिये धार्मिक नेताओं को प्रशिक्षित करने हेतु की गई थी।
- अलीगढ़ आंदोलन, जिसका उद्देश्य पश्चिमी शिक्षा व ब्रिटिश सरकार के समर्थन के माध्यम से मुसलमानों का कल्याण करना था, के विपरीत देवबंद आंदोलन का उद्देश्य मुस्लिम समुदाय का नैतिक और धार्मिक उत्थान था।
- राजनीतिक मोर्चे पर देवबंद स्कूल ने भारतीय राष्ट्रीय काॅन्ग्रेस के गठन का स्वागत किया और वर्ष 1888 में सैयद अहमद खान के संगठनों- यूनाइटेड पैट्रियटिक एसोसिएशन और मोहम्मडन एंग्लो-ओरिएंटल एसोसिएशन के खिलाफ एक फतवा (धार्मिक फरमान) जारी किया।
- नए देवबंद नेता महमूद-उल-हसन ने धार्मिक, राजनीतिक और बौद्धिक विचार दिये।
- उन्होंने इस्लामी सिद्धांतों और राष्ट्रवादी आकांक्षाओं के संश्लेषण पर काम किया।
- जमीयत-उल-उलेमा ने भारतीय एकता और राष्ट्रीय उद्देश्यों के समग्र संदर्भ में मुसलमानों के धार्मिक व राजनीतिक अधिकारों के संरक्षण संबंधी हसन के विचारों को एक ठोस आकार दिया।
- देवबंद स्कूल के समर्थक शिबली नुमानी ने शिक्षा प्रणाली में अंग्रेज़ी भाषा और यूरोपीय विज्ञान को शामिल करने का समर्थन किया।
- उन्होंने वर्ष 1894-96 में लखनऊ में नदवाताल उलेमा और दारुल उलूम की स्थापना की।
- वह काॅन्ग्रेस के आदर्शवाद में विश्वास करते थे और भारत के मुसलमानों तथा हिंदुओं के बीच एक ऐसा राज्य बनाने के लिये सहयोग की वकालत करते थे जिसमें दोनों सौहार्दपूर्ण ढंग से रह सकें।
पारसियों में धार्मिक सुधार:
- 19वीं शताब्दी के मध्य में मुंबई में पारसियों के बीच धार्मिक सुधार की शुरुआत हुई। वर्ष 1851 में नौरोजी फुरदोंजी, दादाभाई नौरोजी, एस.एस. बंगाली और अन्य ने रहनुमाई मजदायसन सभा या धार्मिक सुधार संघ की स्थापना की।
- उन्होंने पारसियों के बीच सामाजिक-धार्मिक सुधारों के उद्देश्य से रस्त गोफ्तार नामक एक पत्रिका शुरू की।
- उन्होंने शिक्षा के प्रसार में खासकर लड़कियों हेतु महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई।
- उन्होंने धार्मिक क्षेत्र में व्याप्त रूढ़िवादिता के खिलाफ अभियान चलाया और लड़कियों की शादी, शिक्षा तथा विशेष रूप से महिलाओं की सामाजिक स्थिति के संबंध में पारसी सामाजिक रीति-रिवाजों के आधुनिकीकरण की पहल की।
- समय के साथ पारसी समाज, भारतीय समाज का सबसे पाश्चात्य वर्ग बन गए।
सिखों में धार्मिक सुधार क्या था?
- सिखों में धार्मिक सुधार 19वीं शताब्दी के अंत में शुरू हुआ जब अमृतसर में खालसा कॉलेज की शुरुआत हुई।
- सिंह सभा (वर्ष 1870) के प्रयासों और ब्रिटिश समर्थन से खालसा कॉलेज की स्थापना वर्ष 1892 में अमृतसर में हुई थी।
- इन प्रयासों के परिणामस्वरूप स्थापित इस कॉलेज और स्कूल ने गुरुमुखी, सिख शिक्षा और पंजाबी साहित्य को समग्र रूप से बढ़ावा दिया।
- वर्ष1920 के बाद जब पंजाब में अकाली आंदोलन का उदय हुआ तो सिख सुधार आंदोलन ने गति पकड़ी।
- अकालियों का मुख्य उद्देश्य उन गुरुद्वारों या सिख तीर्थस्थलों के प्रबंधन में सुधार करना था जो कि पुजारियों या महंतों के नियंत्रण में थे, जो उन्हें अपनी निजी संपत्ति मानते थे।
- वर्ष 1925 में एक कानून पारित किया गया जिसने शिरोमणि गुरुद्वारा प्रबंधक समिति को गुरुद्वारों के प्रबंधन का अधिकार दिया।
थियोसोफिकल आंदोलन क्या था?
- मैडम एच.पी. ब्लावात्स्की और कर्नल एम.एस. ओल्कॉट के नेतृत्व में पश्चिमी लोगों का एक समूह (जो भारतीय विचार और संस्कृति से प्रेरित थे) ने 1875 में न्यूयॉर्क शहर, संयुक्त राज्य अमेरिका में थियोसोफिकल सोसाइटी की स्थापना की।
- वर्ष 1882 में उन्होंने अपना मुख्यालय भारत में (उस समय) मद्रास के बाहरी इलाके अड्यार में स्थानांतरित कर दिया।
- इनका मानना था कि चिंतन, प्रार्थना, रहस्योद्घाटन आदि से व्यक्ति की आत्मा और ईश्वर के बीच एक विशेष संबंध स्थापित किया जा सकता है।
- इसने पुनर्जन्म और कर्म में हिंदू मान्यताओं को स्वीकार किया, उपनिषदों एवं सांख्य, योग व वेदांत विचारधारा के दर्शन से प्रेरणा ली।
- इसका उद्देश्य जाति, पंथ, लिंग, जाति या रंग के भेद के बिना मानवता के सार्वभौमिक भाईचारे के लिये काम करना था।
- समाज ने प्रकृति के अस्पष्ट नियमों और मनुष्य में छिपी शक्तियों की जांच करने की भी मांग की।
- थियोसोफिकल आंदोलन हिंदू पुनर्जागरण के साथ संबद्ध हो गया।
- इसने बाल विवाह का विरोध किया और जातिगत भेदभाव के उन्मूलन, बहिष्कृतों के उत्थान, विधवाओं की स्थिति में सुधार की वकालत की।
- भारत में वर्ष 1907 में ओल्कॉट की मृत्यु के बाद एनी बेसेंट (वर्ष 1847-1933) के अध्यक्ष के रूप में चुनाव के साथ आंदोलन कुछ हद तक लोकप्रिय हो गया।
- एनी बेसेंट वर्ष 1893 में भारत आई थी।
- उन्होंने वर्ष 1898 में बनारस में सेंट्रल हिंदू कॉलेज की नींव रखी जहाँ हिंदू धर्म और पश्चिमी वैज्ञानिक विषयों दोनों को पढ़ाया जाता था।
- वर्ष 1916 में बनारस हिंदू विश्वविद्यालय के गठन के लिये यह कॉलेज केंद्र बन गया।
- एनी बेसेंट ने भी महिलाओं की शिक्षा के लिये काफी कार्य किये।
महत्त्व:
- थियोसोफिकल सोसाइटी ने विभिन्न संप्रदायों के लिये एक समान आधार प्रदान किया।
- हालाँकि एक औसत भारतीय के लिये थियोसोफिस्ट दर्शन अस्पष्ट था एवं एक सकारात्मक कार्यक्रम की कमी थी, कुछ हद तक इसका प्रभाव पश्चिमी वर्ग के एक छोटे से हिस्से तक ही सीमित था।
- धार्मिक पुनरुत्थानवादियों के रूप में थियोसोफिस्ट्स को अधिक सफलता नहीं मिली, लेकिन भारतीय धार्मिक और दार्शनिक परंपराओं का महिमामंडन करने वाले पश्चिमी लोगों के एक आंदोलन के रूप में इसने ब्रिटिश औपनिवेशिक शासन से लड़ने वाले भारतीयों को आत्म-सम्मान की भावना प्रदान की।
- दूसरे दृष्टिकोण से देखे जाने पर थियोसोफिस्ट्स ने भारतीयों में अपनी पुरानी और पिछड़ी हुई परंपराओं तथा दर्शन पर गर्व की झूठी भावना उत्पन्न करने का भी कार्य किया।
सुधार आंदोलनों का महत्त्व क्या था?
- समाज के रूढ़िवादी वर्ग सामाजिक-धार्मिक विद्रोहियों की वैज्ञानिक वैचारिकता को स्वीकार नहीं कर सके। इसके परिणामस्वरूप सुधारकों को प्रतिक्रियावादियों द्वारा दुर्व्यवहार, उत्पीड़न, फतवा जारी करने और यहाँ तक कि हत्या के प्रयासों का भी शिकार होना पड़ा।
- हालाँकि विरोध के बावजूद ये आंदोलन व्यक्ति को भय से पैदा हुए अनुरूपता और पुजारियों व अन्य वर्गों द्वारा शोषण से मुक्ति की दिशा में आगे बढ़ाने में योगदान देने में कामयाब रहे।
- धार्मिक ग्रंथों का स्थानीय भाषाओं में अनुवाद, शास्त्रों की व्याख्या करने के व्यक्ति के अधिकार पर ज़ोर तथा अनुष्ठानों के सरलीकरण ने पूजा को और अधिक व्यक्तिगत अनुभव बना दिया।
- आंदोलनों ने मानव बुद्धि की सोचने और तर्क करने की क्षमता पर ज़ोर दिया।
- सुधार आंदोलनों ने उभरते हुए मध्य वर्गों को सांस्कृतिक जड़ें प्रदान की और अपमान की भावना को कम करने के उद्देश्य से काम किया।
- आधुनिक समय की विशेष आवश्यकताओं की प्राप्ति, विशेष रूप से वैज्ञानिक ज्ञान के संदर्भ में, धर्मनिरपेक्ष और तर्कसंगत दृष्टिकोण को बढ़ावा देना इन सुधार आंदोलनों का प्रमुख योगदान था।
- सामाजिक रूप से यह रवैया 'प्रदूषण और शुद्धता' (Pollution and Purity) की धारणाओं में एक बुनियादी बदलाव को दर्शाता है।
- सुधार आंदोलनों ने आधुनिकीकरण के लिये एक अनुकूल सामाजिक माहौल बनाने की मांग की। कुछ हद तक इन आंदोलनों ने शेष विश्व से भारत के सांस्कृतिक और बौद्धिक अलगाव को समाप्त कर दिया।
- यह सांस्कृतिक वैचारिक संघर्ष राष्ट्रीय चेतना के विकास में एक महत्त्वपूर्ण उपकरण और औपनिवेशिक संस्कृति व वैचारिक आधिपत्य का विरोध करने के भारतीय राष्ट्रीय संकल्प का एक हिस्सा साबित हुआ।
- हालाँकि ये सभी प्रगतिशील, राष्ट्रवादी प्रवृत्तियाँ सांप्रदायिक और रूढ़िवादी दृष्टिकोण को आगे बढ़ाने में सक्षम नहीं थीं।
- यह संभवतः सांस्कृतिक और राजनीतिक संघर्षों के अलग-अलग द्वंद्व के कारण था, जिसके परिणामस्वरूप राजनीतिक उन्नति के बावजूद सांस्कृतिक पिछड़ेपन की स्थिति देखी गई।
सुधार आंदोलनों की सीमाएँ क्या थीं?
- धार्मिक सुधार आंदोलनों की प्रमुख सीमाओं में से एक उनका संकीर्ण सामाजिक आधार था, अर्थात् शिक्षित और शहरी मध्य वर्ग, जबकि किसानों व शहरी गरीबों की विशाल जनसंख्या की ज़रूरतों को नज़रअंदाज कर दिया गया था।
- सुधारकों ने अतीत की महानता को याद दिलाया और शास्त्रों पर भरोसा करने के लिये प्रेरित किया एवं इस तरह से नए वेश में रहस्यवाद को प्रोत्साहित किया। साथ ही एक आधुनिक वैज्ञानिक दृष्टिकोण की आवश्यकता की पूर्ण स्वीकृति पर कतिपय संशय करते हुए छद्म वैज्ञानिक सोच को बढ़ावा दिया।
- इन प्रवृत्तियों ने कम-से-कम कुछ हद तक हिंदुओं, मुसलमानों, सिखों और पारसियों को विभाजित करने तथा उच्च जाति के हिंदुओं को निम्न जाति के हिंदुओं से अलग करने का कर किया।
- सांस्कृतिक विरासत के धार्मिक और दार्शनिक पहलुओं पर ज़ोर कुछ हद तक संस्कृति के अन्य पहलुओं- कला, वास्तुकला, साहित्य, संगीत, विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी पर अपर्याप्त ज़ोर के कारण बढ़ गया।
- हिंदू सुधारकों ने भारतीय अतीत की प्रशंसा को उसके प्राचीन काल तक ही सीमित रखा और भारतीय इतिहास के मध्ययुगीन काल को अनिवार्य रूप से पतन के युग के रूप में देखा।
- इसने लोगों के दो अलग-अलग वर्गों की धारणा को जन्म दिया, दूसरी ओर अतीत की एक गैर-आलोचनात्मक प्रशंसा समाज के निम्न जाति के वर्गों को स्वीकार्य नहीं थी, जो प्राचीन काल से धार्मिक शोषण से पीड़ित थे।
- इसके अलावा अतीत को ही पक्षपातपूर्ण आधार पर रखा जाता था।
- मुस्लिम मध्य वर्गों में से कई अपनी परंपराओं और गौरवमयी इतिहास के लिये पश्चिम एशिया के इतिहास की ओर मुड़ने की हद तक चले गए।
- एक समग्र संस्कृति के विकास की प्रक्रिया जो कि भारतीय इतिहास में स्पष्ट थी, ने मध्य वर्गों के बीच राष्ट्रीय चेतना के साथ-साथ चेतना के एक अन्य रूप सांप्रदायिक चेतना के उदय होने के संकेत दिखाए।
- आधुनिक समय में सांप्रदायिकता के जन्म के लिये निश्चित रूप से कई अन्य कारक ज़िम्मेदार थे, लेकिन निसंदेह धार्मिक सुधार आंदोलनों की प्रकृति ने भी इसमें योगदान दिया।
- हालाँकि कुल मिलाकर इन सुधार आंदोलनों का परिणाम जो भी हो, इस संघर्ष से ही भारत में एक नए समाज का विकास हुआ।
मुख्य परीक्षा हेतु प्रश्नप्रश्न. भारत में सामाजिक-धार्मिक सुधार आंदोलनों के महत्त्व और सीमाओं पर चर्चा कीजिये। प्रारंभिक परीक्षा हेतु प्रश्नप्रश्न. एनी बेसेंट थी:
नीचे दिये गए कूट का प्रयोग कर सही कथन/कथनों का चयन कीजिये। (a) केवल 1 प्रश्न. निम्नलिखित कथनों पर विचार कीजिये:
उपर्युक्त कथनों में से कौन-सा/से सही है/हैं? (a) केवल 1 और 3 |