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दक्षिण भारत में मंदिर स्थापत्य के उद्भव और विकास की रूपरेखा को उनकी प्रादेशिक शैलियों और विभिन्नताओं का उल्लेख करते हुए प्रदर्शित कीजिये।
03 Jun, 2020उत्तर :
सातवीं से नौवीं शताब्दी के मध्य दक्षिण भारत में अलवार और नयनार संतों के नेतृत्व में धार्मिक आंदोलनों का प्रादुर्भाव हुआ। पल्लव एवं चोल शासकों द्वारा इसी भक्ति परंपरा को मंदिर स्थापत्य से जोड़ने एवं कालांतर में अन्य दक्षिण भारतीय राजवंशों द्वारा मंदिरों के निर्माण से दक्षिण भारत में मंदिर स्थापत्य की अनेक प्रादेशिक शैलियों का विकास हुआ, जो पारस्परिक भिन्नताएँ लिये हुई थी।
दक्षिण भारत में विकसित विभिन्न प्रादेशिक शैलियाँ
द्रविड़ शैली: 7वीं से 8वीं शताब्दी के मध्य दक्षिण भारतीय पल्लव शासकों द्वारा तमिलनाडु के महाबलीपुरम् एवं कांचीपुरम् के शैलकृत एवं संरचनात्मक मंदिरों में द्रविड़ मंदिर स्थापत्य के आरंभिक लक्षण देखने को मिलते हैं। आगामी चोल शासकों द्वारा इसी शैली को अपनाकर एवं इसमें परिष्करण कर इसे परिपक्वता के उच्च स्तर पहुँचा दिया गया , जैसे- तंजौर का वृहदेश्वर मंदिर।
द्रविड़ शैली के मंदिर स्थापत्य की प्रमुख विशेषताएँ
- सीढ़ीदार पिरामिडनुमा आकार में मंदिर के विमान की उपस्थिति।
- मंदिरों में प्रतिमाओं के अंकनयुक्त गोपुरमों का निर्माण।
- मंदिरों में जलाशयों की उपस्थिति।
- मंदिर के गर्भगृह के प्रवेश द्वार पर द्वारपालों की भयानक आकृतियाँ।
- दीवारों और स्तंभों पर वास्तुकलात्मक डिज़ाइन।
- मंदिरों के चारों ओर चारदीवारी का निर्माण।
मंदिर स्थापत्य की बेसर शैली: कर्नाटक के दक्षिणी भाग यानी कर्नाटक में चालुक्यकालीन एवं होयसलकालीन, अनेक शैलियों के संकरण एवं समावेशन से युक्त, बेसर शैली में मंदिर स्थापत्य का विकास हुआ। पट्टदकल में स्थित विरुपाक्ष मंदिर, पापनाथ मंदिर, ऐहोल का दुर्गा मंदिर, लाडखान मंदिर एवं बेलूर का चेन्नाकेशव मंदिर इस शैली के मंदिर स्थापत्य के प्रमुख उदाहरण है।
प्रमुख विशेषताएँ
- द्रविड़ एवं नागर शैली के मंदिर स्थापत्य विशेषताओं का मिश्रण एवं समावेशन।
- मुख्य पूजा स्थल/वेदी की बाहरी दीवारों पर अलंकरण।
- मानव आकृतियों, जैसे- रामायण एवं महाभारत के नायकों और प्रेमी युगल (मिथुन) की आकृतियों का अंकन इस शैली के मंदिर स्थापत्य की प्रमुख विशेषता है।
- भारी मात्रा में सजावट, जैसे- बेलूर का चेन्नाकिशन मंदिर।
- मंदिरों की दीवारों व स्तंभों पर हिंदू पौराणिक आख्यानों से संबंधित भित्ति चित्रों का निर्माण।
- ‘कल्याण मंडपों’ के रूप में नवीन मंडपों का निर्माण।
- सरोवरों के साथ मंदिरों का निर्माण, जैसे- हरे राम मंदिर, विरुपाक्ष मंदिर, रघुनाथ मंदिर, विट्ठल मंदिर एवं महानवमी डिब्बा।
नायक शैली: विजयनगर शासन के पत्तन के पश्चात् 16वीं से 18वीं शताब्दी के मध्य नायक शासकों ने शासन किया। इन्होंने नायक/मदुरई शैली में अनेक मंदिरों का निर्माण करवाया। मदुरै का मीनाक्षी मंदिर इसका प्रमुख उदाहरण है।
प्रमुख विशेषताएँ
- मंदिरों में लंबे गलियारों का निर्माण।
- नक्काशीदार सौ-स्तंभों व हजार स्तंभों वाले मंडपों की उपस्थिति।
- ऊँचे व बहुमंजिली गोपुरमों का निर्माण।
- चमकीले पत्थर तथा पशुओं, देवताओं और राक्षसों की मूर्तियों द्वारा सजावट।
इस प्रकार अपनी विशिष्ट भौगोलिक स्थिति, स्थानीय परंपराओं तथा सामग्री की उपलब्धता, शासकों की व्यक्तिगत रुचि एवं विभिन्न शैलियों के संकट एवं समावेशन के फलस्वरूप दक्षिण भारत में अनेक प्रादेशिक शैलियों का विकास हुआ, जिसमें पर्याप्त विभिन्नताएँ विद्यमान थी।
होयसल शैली: चोलों और पांड्यों की शक्ति के अवसान के पश्चात् कर्नाटक के होयसल शासक दक्षिण भारत में वास्तुकला के प्रमुख संरक्षक के रूप में उभरे। बेलूर, हेलेसिड तथा सोमनाथपुर के मंदिर इनके द्वारा निर्मित मंदिरों में विशेष उल्लेखनीय है।
प्रमुख विशेषताएँ
- केंद्रीय वर्गाकार योजना से आगे बढ़े हुए कोणों के कारण मंदिरों की तारकीय योजना।
- मंडपों के प्रवेश द्वार के रूप में ‘मकर तोरणों’ का निर्माण।
- पौराणिक महिला आकृति शालमंजिका/मदनिका का उत्कीर्णन।
विजयनगर शैली
कर्नाटक के तुंगभद्रा क्षेत्र में पल्लव, चोल तथा पांड्यों की द्रविड़ वास्तु शैलियों तथा सल्तनतों द्वारा प्रस्तुत इस्लामिक वास्तुकला के सामंजस्यपूर्ण संयोजन से विजयनगर शैली के मंदिर स्थापत्य का विकास हुआ।
महत्त्वपूर्ण लक्षण
- ‘प्रोविदा’ नामक स्वयं की शैली का विकास, जिसमें विशाल गोपुरम् तथा उत्कीर्णित स्तंभों का निर्माण करवाया गया।