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आरंभिक भारतीय इतिहास के पुनर्निर्माण में यद्यपि तत्कालीन साहित्यिक स्रोत महत्त्वपूर्ण भूमिका अदा करते हैं, तथापि उनकी अपनी सीमाएँ भी हैं। ठोस तर्कों को प्रस्तुत करते हुए इस पर चर्चा कीजिये।
21 May, 2020उत्तर :
भारत में 2500 ई. पूर्व में सिंधु सभ्यता की भावचित्रात्मक लिपि के पश्चात् भारतीय इतिहास के विभिन्न चरणों में साहित्यिक रचनाएँ हुई। ये रचनाएँ तत्कालीन राजनीति, समाज तथा अर्थव्यवस्था पर पर्याप्त प्रकाश डालती है। आरंभिक प्राचीन इतिहास के पुनर्निर्माण में साहित्यिक स्रोतों की भूमिका जानने के लिये इन्हें धार्मिक, लौकिक तथा विदेशी साहित्य के रूप में वर्गीकृत किया जा सकता है।
धार्मिक साहित्य
- हिंदुओं का धार्मिक साहित्य, विशेषकर वेद, रामायण, महाभारत, पुराण, सूत्र साहित्य, प्राचीन भारत की सामाजिक-सांस्कृतिक स्थिति पर काफी प्रकाश डालते हैं।
- पालि भाषा में लिखे गए प्राचीन बौद्ध ग्रंथ बुद्ध के जीवन के साथ तत्कालीन मगध, उत्तरी बिहार तथा पूर्वी उत्तर प्रदेश के कई शासकों के बारे में जानकारी उपलब्ध कराते हैं। जातक कथाओं से उस समय की सामाजिक, राजनीतिक और आर्थिक घटनाओं की जानकारी मिलती है।
- प्राकृत भाषा में रचित जैन ग्रंथों के आधार पर महावीरकालीन बिहार और पूर्वी उत्तर प्रदेश के राजनीतिक इतिहास तथा इनमें व्यापार एवं व्यापारियों के उल्लेख से आर्थिक इतिहास के पुनर्निर्माण में सहायता मिलती है।
लौकिक साहित्य
- ईसा पूर्व 600 ई. से लेकर ईसा पश्चात् 600 ई. तक के समय में रचित धर्मसूत्र, स्मृतियों और टीकाओं के सम्मिलित रूप धर्मशास्त्र में विभिन्न राजाओं, वर्णों तथा पदाधिकारियों के कर्तव्यों का वर्णन किया गया है।
- कौटिल्य का अर्थशास्त्र मौर्यकालीन समाज और अर्थव्यवस्था की झलक प्रस्तुत करता है।
- शूद्रक, कालिदास आदि की रचनाओं में साहित्यिक मूल्यों के साथ-साथ तत्कालीन समाज की स्थितियाँ भी प्रतिबिंबित होती है। कालिदास के ‘अभिज्ञान शाकुंतलम’ में गुप्तकालीन उत्तरी मध्य भारत के सामाजिक और सांस्कृतिक जीवन की झलक मिलती है।
- लौकिक कोटि के संगम साहित्य में ईसा की प्रारंभिक सदी में तमिलनाडु के लोगों के सामाजिक, आर्थिक, राजनीतिक जीवन का चित्रण हुआ है। संगम ग्रंथों में बहुत सारे नगरों, जैसे- कावेरीपट्टनम का उल्लेख हुआ है।
विदेशी वितरण
- मेगस्थनीज की इंडिका के माध्यम से मौर्यकालीन शासन व्यवस्था, सामाजिक वर्गों तथा आर्थिक क्रियाकलापों के बारे में महत्त्वपूर्ण जानकारी मिलती है।
- यूनानी भाषा में लिखी गई ‘पेरिप्लुस ऑफ द एरिथ्रियन सी’ और टोलेमी की ‘ज्योग्राफिया’ नामक पुस्तकों में प्राचीन भूगोल और वाणिज्य के अध्ययन के लिये प्रचुर मात्रा में महत्त्वपूर्ण सामग्री मिली है।
- 1510 ई. के आसपास लैटिन भाषा में लिखी गई प्लिनी की ‘नेचुरल हिस्टोरिका’ में भारत और इटली के मध्य होने वाले व्यापार की जानकारी मिलती है।
- फाह्यान ने गुप्तकालीन भारत की सामाजिक, धार्मिक और आर्थिक स्थिति पर प्रकाश डाला है, वहीं ह्वेनसांग ने इसी प्रकार की जानकारी हर्षकालीन भारत के बारे में दी है।
इन सबके बावजूद साहित्यिक स्रोत आरंभिक भारतीय इतिहास की पूर्णतया प्रामाणिक जानकारी उपलब्ध नहीं कराते, क्योंकि इनकी अपनी सीमाएँ हैं, जैसे-
- अधिकांश प्राचीन साहित्य धार्मिक साहित्य है। मिशकोटा प्रकार के इस साहित्य को प्रचलित मानकों का समर्थन करने एवं लोकाचारों को वैध ठहराने के कारण पूर्णतया प्रामाणिक ऐतिहासिक स्रोत नहीं माना जा सकता।
- साहित्य में मुख्यत: आत्मनिष्ठता की प्रवृत्ति होने से वस्तुनिष्ठता के अभाव की संभावना हमेशा विद्यमान रहती है। किसी भी साहित्यिक रचना में निष्कर्ष प्राय: लेखक की वयक्तिगत विचारधारा से प्रभावित हो सकते हैं। इसलिये प्रामाणिक ऐतिहासिक स्रोत के रूप में साहित्य को शामिल करा हमेशा संशयुक्त रहता है।
- सभी वैदिक ग्रंथों तथा अन्य प्राचीन भारतीय साहित्य के ग्रंथों के प्रारंभ, अंत पर मध्य में क्षेपक मिलते हैं, जिन्हें संभवत: बाद में जोड़ा गया है। इनके क्षेपकों के कारण भी प्राचीन भारतीय साहित्य स्रोतों की प्रामाणिकता संदिग्ध लगती है।
इस प्रकार आरंभिक भारतीय साहित्य अपनी कुछ सीमाओं के बावजूद तत्कालीन भारतीय सामाजिक, आर्थिक, राजनीतिक स्थिति के बारे में जानकारी उपलब्ध कराता है। बेहतर निष्कर्ष के लिये इसे पुरातात्विक साक्ष्यों से समर्थित किया जाना चाहिये।