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सिक्कों और अभिलेखों की सहायता के बिना प्रारंभिक भारतीय इतिहास का पुननिर्माण करना बहुत मुश्किल है। चर्चा कीजिये।
22 May, 2020उत्तर :
प्राचीन भारत में यूनान के हेरोडोटस एवं थ्यूसीडाइडिस, रोम के लेवी और तुर्की के अलबरूनी जैसे इतिहासकारों की उपस्थिति नहीं रही है। साथ ही प्रारंभिक भारतीय इतिहास की रचना में प्रचलित मानकों और लोकाचार को वैध ठहराने वाले पौराणिक मिथकों को अधिक महत्त्व दिया गया है। इन सबके कारण सिक्कों एवं अभिलेखों जैसे ठोस पुरातात्विक साक्ष्यों का अध्ययन करना अधिक महत्त्वपूर्ण हो जाता है।
सिक्कों का अध्ययन/न्यूमिस्मेटिक्स
प्राचीनकाल में तांबे, चांदी, सोने और सीसे की धातु मुद्रा का प्रचलन था। भारत के अनेक भागों से भारतीय सिक्कों के साथ रोमन साम्राज्य जैसी विदेशी टकसालों में ढाले गए सिक्के भी मिले हैं। ये सिक्के प्राचीन भारतीय इतिहास के बारे में महत्त्वपूर्ण सूचनाएँ प्रदान करते हैं, जैसे-
- ईसा पूर्व छठी शताब्दी से ईसा पूर्व दूसरी शताब्दी के आरंभिक पंचमार्क सिक्कों पर प्रतीक मिलते हैं, किंतु बाद के सिक्कों पर राजाओं और देवताओं के नाम तथा तिथियाँ अंकित है। इस आधार पर प्राप्त सिक्कों के आधार पर कई राजवंशों के इतिहास का पुनर्निर्माण संभव हुआ है, विशेषकर दूसरी शताब्दी ईसा पूर्व उत्तरी अफगानिस्तान से आए हिंद-पवन शासकों का।
- चूँकि सिक्कों का प्रयोग दान-दक्षिणा, खरीद-बिक्री और वेतन-मजदूरी के भुगतान के रूप में होता था। इस कारण सिक्कों के अध्ययन से प्राचीन भारत के आर्थिक इतिहास के बारे में जानकारी मिलती है।
- मौर्योत्तर काल में विशेषत: सीसे, वोटिन, ताँबे, काँसे, सोने और चाँदी के सिक्के अधिक मात्रा में मिले हैं। गुप्त शासकों ने सोने के सिक्के सबसे अधिक जारी किये। इन कालों में व्यापारियों और स्वर्णकारों द्वारा भी सिक्के चलाए गए। इससे पता चलता है कि गुप्त मौर्योत्तरकाल में व्यापार-वाणिज्य तथा शिल्पकारी उन्नतावस्था में थे। गुप्तोत्तरकाल में बहुत कम सिक्के मिले हैं, जिससे व्यापार-वाणिज्य में शिथिलता का पता चलता है।
- सिक्कों पर अंकित राजवंशों और देवताओं के चित्रों, धार्मिक प्रतीकों तथा लेखों से तत्कालीन धर्म और कला पर भी प्रकाश पड़ता है।
अभिलेखों के अध्ययन/पुरालेखशास्त्र का महत्त्व
अभिलेख प्राचीन भारत में मुहरों, प्रस्तर स्तंभों, स्तूपों, चट्टानो और ताम्रपत्रों पर मिलते हैं। आरंभिक अभिलेख प्राकृत भाषा में है जो ईसा पूर्व तीसरी सदी के हैं। दूसरी शताब्दी ई. में संस्कृत भाषा में अभिलेख मिले तथा नौवीं-दसवीं शताब्दी तक अभिलेखों में प्रादेशिक भाषाओं का प्रयोग होने लगा।
- हड़प्पा संस्कृति के आरंभिक अभिलेख चित्रात्मक लिपि में लिखे होने के कारण अभी तक पढ़े नहीं जा सके हैं। इस कारण आरंभिक रूप से तीसरी शताब्दी ई. पूर्व में अशोक के ब्राह्मी और खरोष्ठी लिपि में लिखे अभिलेख महत्त्वपूर्ण है।
- अभिलेखों से प्राचीन भारत की आनुष्ठानिक परंपराओं के बारे में भी जानकारी मिलती है। बौद्ध, जैन, शैव तथा वैष्णव आदि संप्रदायों के अनुयायियों ने भक्तिभाव से स्थापित स्तंभों, प्रस्तर फलकों, मंदिरों तथा प्रतिमाओं पर अभिलेखों का उत्कीर्ण करवाया है।
- कुछ अभिलेखों का निर्माण प्रशस्तियों के रूप में हुआ है, जिनमें राजाओं और विजेताओं के गुणों और कीर्तियों का बखान तो रहता है, पर उनकी पराजयों और कमजोरियों का जिक्र नहीं रहता। समुद्रगुप्त की प्रयाण-प्रशस्ति इस कोटि का उदाहरण है।
- राजाओं और सामंतों द्वारा दिये गए अभिलेख विशेष महत्त्व के हैं, क्योंकि इनमें प्राचीन भारत की भूव्यवस्था और प्रशासन के बारे में उपयोगी सूचनाएँ मिलती है।
- इनके अलावा अभिलेखों से हमें इतिहास की महत्त्वपूर्ण घटनाओं और तिथियों की जानकारी मिलती है, जो आरंभिक भारतीय इतिहास के पुननिर्माण में अत्यंत सहायक है। जैसे- शक शासक रुद्रदामन द्वारा संस्कृत में लिखवाए अभिलेख में सुदर्शन झील के निर्माण का उल्लेख है।
इस प्रकार मिथकीय दृष्टिकोण से अलग हटकर सिक्कों व अभिलेखों का अध्ययन आरंभिक भारतीय इतिहास की राजनीतिक, सामाजिक एवं आर्थिक व्यवस्था के बारे में ठोस पुरातात्विक साक्ष्य प्रदान करता है, जिससे भारतीय इतिहास के पुननिर्माण में इनकी उपेक्षा करना संभव नहीं।