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मुख्य परीक्षा


निबंध

आप की मेरे बारे में धारणा, आपकी सोच दर्शाती है; आपके प्रति मेरी प्रतिक्रिया मेरा संस्कार है

  • 30 Aug 2024
  • 12 min read

वास्तविकता को उसके वास्तविक रूप में स्वीकार करना ही जागरूक होने का कार्य है।

— स्वामी विवेकानंद

धारणा का तात्पर्य किसी व्यक्ति की स्वयं की व्याख्याओं पर आधारित अन्य व्यक्ति के लिये कल्पित पुर्वानुमान से है। किसी धारणा के विकास में कई प्रकार के कारकों का योगदान होता है, जिसमें आंतरिक और बाह्य प्रभाव जैसे विचारण प्रतिरूप, जीवन के अनुभव और दूसरों द्वारा किसी के साथ किया गया व्यवहार शामिल है। धारणा में पूर्वकल्पित विचार या अन्य स्व-कल्पित मत शामिल हो सकते हैं। सामान्यतः इसे पाँच इंद्रियों द्वारा प्राप्त संवेदी जानकारी से प्राप्त एक संगठित अनुभव के रूप में समझा जाता है। मनुष्य जो देखता है, सुनता है और स्पर्श करता है, उनको अपने वर्तमान अनुभवों से जोड़ने का प्रयास करता है। इस प्रक्रिया में आत्मिक भावनाओं, आवश्यकताओं, विचारों और दृष्टिकोणों के गहन चिंतन और अवबोधन की आवश्यकता होती है। इस प्रकार, धारणा व्यक्ति की आंतरिक और वास्तविक जगत के बीच एक सेतु का काम करती है, जो पूर्व की घटनाओं और अनुभवों से आकार लेती है।

किसी व्यक्ति का आंयंतर परिवेश और व्यक्तित्व उसका दूसरों के प्रति मत और दृष्टिकोण को एक महत्त्वपूर्ण सीमा तक प्रभावित करता है। धारणा को सार्वभौम परिघटना की संज्ञा दी जा सकती है जो सांस्कृतिक और सामाजिक सीमाओं से परे है। हालाँकि, यदि व्यक्ति स्वयं को आंतरिक अशांति और परेशानी से बचाने के लिये इस पर भरोसा अकर्ता है तो यह उसके नातों और स्थितियों को प्रभावित कर सकता है। समय के साथ, ये धारणाएँ पुष्ट और अनम्य हो सकती हैं, जिससे वास्तविक जगत के बारे में व्यक्ति का दृष्टिकोण सीमित हो जाता है। अपने आस-पास के लोगों जैसे परिवार के सदस्यों, दोस्तों या सहकर्मियों पर विचार कीजिये। उनकी प्रतिक्रियाएँ वार्तालाप को किस  प्रकार प्रभावित करती हैं और इन वार्तालाप में प्रत्येक व्यक्ति के आंतरिक विचार और भावनाएँ किस प्रकार परिलक्षित होती हैं? मूलतः, सामाजिक अंतःक्रियाएँ प्रायः दर्पण की तरह व्यवहार करती हैं, जो व्यक्ति के अपने अनुभवों और धारणाओं को प्रतिबिंबित करती हैं। यह एक निरंतर चली आ रही समस्या है क्योंकि आंतरिक संघर्ष प्रायः बाह्य संघर्षों के रूप में व्यक्त होते हैं और मानसिक दुविधा दैनिक जीवन में शारीरिक और व्यावहारिक बाधाओं का रूप ले सकता है।

किसी व्यक्ति के कार्य उसकी स्वयं की जागरूकता से बहुत प्रभावित होते हैं। आत्म-जागरूकता का सचेत अनुशीलन दूसरों के प्रति व्यवहार और प्रतिक्रियाओं को महत्त्वपूर्ण रूप से प्रभावित करता है। दूसरे के प्रति किसी व्यक्ति के विचार किस प्रकार हैं और उसके साथ उसका व्यवहार किस प्रकार का है, यह सामान्यतः उस व्यक्ति के चरित्र, आत्म-जागरूकता और प्रामाणिकता का प्रतिबिंब होता है। अनेक व्यक्ति अपने व्यक्तित्व, आदर्शों या जीवन निर्वाह के तरीकों को बदलने के प्रयास में काफी समय और ऊर्जा लगाते हैं जिसका उद्देश्य सामाजिक मानदंडों के अनुरूप ढलना और दूसरों की आलोचना से बचना होता है। हालाँकि, वास्तविक संतुष्टि व्यक्ति के आत्म को अपनाने और मूल्यों एवं विश्वासों के अनुरूप कार्य करने से प्राप्त होती है।

सबसे व्यापक भ्रांतियों में से एक यह धारणा है कि दूसरे लोगों की राय को महत्त्व दिया जाना चाहिये। दूसरों के विचारों के बारे में निरंतर चिंतित रहना आंतरिक शांति और स्थिरता को कम करता है। जीवन चुनौतियों से परिपूर्ण है और इन चुनौतियों का सामना केवल शांत और संयमित मन से ही प्रभावी ढंग से किया जा सकता है। दूसरों की धारणाओं को मानसिक स्थिरता को बाधित करने देना एक कमज़ोरी को दर्शाता है जिसका समाधान किया जा सकता है।अन्य व्यक्तियों के विचारों और राय पर ध्यान केंद्रित करने के बजाय, व्यक्तियों को इस बात पर ध्यान केंद्रित करना चाहिये कि वे अपने कार्यों एवं मनः स्थिति को कैसे नियंत्रित कर सकते हैं। यदि कोई व्यक्ति अपने मार्ग पर आश्वस्त रहता है तो समय के साथ दूसरों की धारणाएँ बदल सकती हैं।

यह स्मरण करना महत्वपूर्ण है कि प्रत्येक व्यक्ति की अपनी कहानी और अनूठा दृष्टिकोण होता है। किसी व्यक्ति की कथनी और कार्य उसके चरित्र एवं आकांक्षाओं को दूसरों की राय से कहीं ज़्यादा स्पष्ट रूप से प्रकट करते हैं। अंततः, दूसरे क्या सोचते हैं और किसी व्यक्ति के प्रति उनका क्या दृष्टिकोण है, यह अप्रासंगिक है क्योंकि इसे नियंत्रित नहीं किया जा सकता है। आत्म-जागरूकता, स्वयं को निष्पक्ष रूप से देखने और गहन चिंतन करने की क्षमता महत्त्वपूर्ण है। आत्म-जागरूकता सिद्धांत के अनुसार, व्यक्ति वह नहीं है जो उसके विचार हैं; बल्कि वह है जो उसके विचार कृत्य में निरूपित होते हैं। वे अपने द्वारा अनुभव की जाने वाली मानसिक प्रक्रम से अलग हैं।

उदाहरण के लिये, सूर्यास्त की एक ही पेंटिंग को देखने वाले दो लोगों पर विचार कीजिये। एक व्यक्ति छवि की सकारात्मक व्याख्या कर सकता है, जबकि दूसरा, दुखी महसूस करते हुए, पेंटिंग को नीरस या अनाकर्षक मान सकता है। हालाँकि दोनों एक ही दृश्य देख रहे हैं किंतु उनकी भावनाओं, विचारों तथा मनः स्थितियों के कारण उनकी व्याख्याएँ बहुत भिन्न हैं। यह इस बात पर प्रकाश डालता है कि धारणा किसी की भावनाओं और आंतरिक मानसिकता से कैसे प्रभावित होती है। आंतरिक अशांति का सामना करने वाले व्यक्ति को सबसे सुंदर दृश्य भी निराशाजनक लग सकता है। इसी प्रकार, दूसरों के बारे में निर्णय प्रायः वस्तुनिष्ठ सत्य के बजाय व्यक्ति की अपनी भावनाओं एवं विचारों को परिलक्षित करते हैं। उदाहरण के लिये किसी अन्य व्यक्ति के बारे में सकारात्मक राय प्रायः स्वयं के भीतर आत्मविश्वास की भावना से जनित होता है।

हालाँकि दूसरों के पास किसी व्यक्ति के व्यक्तित्त्व के बारे में पूर्व धारणाएँ और धारणाएँ हो सकती हैं किंतु यह आवश्यक नहीं कि ये धारणाएँ वास्तविक हों। व्यक्ति यह नियंत्रित नहीं कर सकता कि दूसरों का उसके प्रति क्या विचार है किंतु वह यह नियंत्रित कर सकता है कि उनकी प्रतिक्रिया किस प्रकार होगी। ग्रहणशीलता और समावेशिता के साथ नैतिक रूप से कार्य करना सुनिश्चित करता है कि व्यक्ति के कार्य नैतिक मूल्यों के अनुरूप हैं। आत्मबोध की खोज और आत्म-जागरूकता का परिष्करण आंतरिक संघर्षों का समाधान करने की कुंजी है। ऐसी परिस्थितियों में, अंतर्मन का पालन करना महत्त्वपूर्ण है क्योंकि यह जीवन की चुनौतियों का सामना करने हेतु सर्वश्रेष्ठ पथप्रदर्शक है।

नैतिक रूप से कार्य करने और आत्म-जागरूकता विकसित करने के बारे में व्यक्ति के विचार अत्यंत प्रगाढ़ हैं। बुद्ध की शिक्षाएँ इन अवधारणाओं में मूल्यवान अंतर्दृष्टि प्रदान करती हैं। एक उल्लेखनीय उदाहरण नैतिक आत्म-अनुशासन (शील-पारमिता) की संपूर्णता है। बुद्ध ने नैतिक व्यवहार के महत्त्व पर ज़ोर दिया, जिसमें हानिकर कार्यों से बचना और सर्जनात्मक कार्यों में संलग्न होना शामिल है। यह अनुशासन स्वयं को सीमित करने के बारे में नहीं है बल्कि स्वयं को और दूसरों को लाभ पहुँचाने की स्वतंत्रता की सुविधा से संबंधित हैं।

बुद्ध ने यह भी शिक्षा दी कि आत्म-जागरूकता और सचेतनता अत्यंत आवश्यक है। दुख के कारणों को समझकर और नैतिक व्यवहार का अनुशीलन करके, व्यक्ति आंतरिक शांति और सजगता की स्थिति प्राप्त कर सकता है। यह चार आर्य सत्यों के अनुरूप है, जो दुख की प्रकृति और इसके निवारण के मार्ग को रेखांकित करते हैं।

भगवान कृष्ण द्ववारा भगवद गीता में दी गई शिक्षा के अनुसार, अनियंत्रित इच्छाएँ उस बुद्धि, ज्ञान और कौशल को नष्ट कर सकती हैं जिसे विकसित करने के लिये व्यक्ति ने कड़ी मेहनत की है। ये इच्छाएँ अक्सर व्यक्तियों को आवेगशील होकर कार्य करने के लिये प्रेरित करती हैं, जिससे दीर्घकालिक लक्ष्य प्रभावित होते हैं और मात्र तात्कालिक संतुष्टि प्राप्त होती है। एक स्थिर और संतोषप्रद जीवन जीने के लिये, आत्मसंयम में निपुण होना और क्षणभंगुर इच्छाओं के प्रलोभनों से अप्रभावित रहना महत्त्वपूर्ण है।

गीता का दर्शन गहन सत्य और शाश्वत ज्ञान पर ज़ोर देता है। सुधार की प्रक्रिया भीतर से आरंभ होती है; आमूल परिवर्तन का प्रारंभन स्व से ही होना चाहिये। आत्मसंयम को व्यवहार में लाना और अपनी इंद्रियों पर नियंत्रण हासिल करना हर व्यक्ति के समक्ष विद्यमान आंतरिक संघर्ष का निवारण करने हेतु आवश्यक है। भगवान कृष्ण की शिक्षाओं के अनुसार, बौद्धिक प्रगति और आत्मसंयम के समक्ष विद्यमान सबसे बड़ी बाधा इच्छाएँ हैं। ये इच्छाएँ विभिन्न तरीकों से प्रकट हो सकती हैं, जैसे तत्काल आनंद की लालसा या मुख्य उद्देश्यों से विमुख करने वाले विकर्षण।

मन की प्रशान्ति, सद्भावना, मौन, आत्म-संयम, निष्कपट स्वभाव, ये सभी मिलकर आत्मिक तपश्चर्या कहलाते हैं।

—श्रीमद्भगवद्गीता

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