प्रसन्नता का कोई मार्ग नहीं है, प्रसन्नता ही मार्ग है | 18 Oct 2024
“प्रसन्नता तब होती है जब आप जो सोचते हैं, जो कहते हैं और जो करते हैं, सब एक साथ हों।”
-महात्मा गांधी
प्रसन्नता का अर्थ केवल किसी विशेष उपलब्धि या स्थिति तक पहुँचने में नहीं, बल्कि जीवन के हर क्षण में आनंद और संतोष का अनुभव करना है। यह विचार हमें यह सिखाता है कि प्रसन्नता कोई गंतव्य नहीं है जिसे प्राप्त किया जा सके, बल्कि यह एक जीवनशैली है। इस निबंध में, हम इस विचार की गहराई में जाएंगे और यह समझने की कोशिश करेंगे कि कैसे प्रसन्नता हमारे जीवन का मार्ग हो सकती है और क्यों इसे एक अंतहीन खोज के रूप में नहीं देखना चाहिये।
प्रसन्नता को अक्सर बाहरी कारकों, जैसे संपत्ति, सफलता और प्रतिष्ठा से जोड़ा जाता है। यह धारणा है कि जब हम इन चीजों को प्राप्त कर लेंगे, तभी हमें प्रसन्नता मिलेगी। किंतु यह विचार वास्तविकता से बहुत दूर है। प्रसन्नता बाहरी नहीं, बल्कि आंतरिक स्थिति है। यह हमारे मानसिक और भावनात्मक दृष्टिकोण पर निर्भर करती है, न कि भौतिक उपलब्धियों पर।
महात्मा गांधी और बुद्ध जैसे महान विचारकों ने भी प्रसन्नता के आंतरिक स्रोत पर बल दिया है। उन्होंने यह सिखाया कि वास्तविक प्रसन्नता केवल तब मिल सकती है जब हम अपने भीतर शांति और संतोष प्राप्त करें।
वर्तमान युग में, जहाँ लोग धन, शक्ति और प्रतिष्ठा की अंधी दौड़ में लगे हुए हैं, प्रसन्नता की खोज और भी जटिल हो गई है। लोग सोचते हैं कि यदि वे अधिक धन अर्जित करेंगे, अधिक प्रसिद्धि प्राप्त करेंगे, तो वह प्रसन्नता को प्राप्त कर सकेंगे। यद्यपि यह मानसिकता उन्हें निरंतर असंतोष और तनाव की स्थिति में धकेलती है।
भारत जैसे विकासशील देश में भी, जहाँ आर्थिक और सामाजिक समस्याएँ मूल रूप से अभी भी विद्यमान हैं, प्रसन्नता की यह खोज महत्त्वपूर्ण हो जाती है। आज, जहाँ लोग आर्थिक सुरक्षा के लिये संघर्ष कर रहे हैं, वहीं मानसिक स्वास्थ्य संबंधी मुद्दे भी एक प्रमुख समस्या के रूप में उभरे हैं। वर्ल्ड हैप्पीनेस रिपोर्ट के अनुसार, भारत का स्थान प्रसन्नता के स्तर में बहुत पीछे है, जो यह दर्शाता है कि हमें प्रसन्नता को समझने और उसे अपने जीवन में शामिल करने की आवश्यकता है।
मनोविज्ञान में, प्रसन्नता को "सकारात्मक मनोविज्ञान" के दृष्टिकोण से देखा जाता है। प्रसिद्ध मनोवैज्ञानिक मार्टिन सेलिगमन ने "सकारात्मक मनोविज्ञान" के सिद्धांत को प्रस्तुत किया, जिसमें उन्होंने बताया कि प्रसन्नता जीवन के तीन महत्त्वपूर्ण स्तंभों पर आधारित है: आनंद, संलग्नता और अर्थपूर्ण जीवन।
- आनंद: जब हम छोटे-छोटे पलों में खुशी पाते हैं।
- संलग्नता: जब हम अपने काम और रिश्तों में पूर्ण रूप से शामिल होते हैं।
- अर्थपूर्ण जीवन: जब हम अपने जीवन को एक उद्देश्य और दिशा देते हैं।
यदि हम इन तीन तत्वों पर ध्यान दें, तो हम प्रसन्नता को एक मार्ग के रूप में अपना सकते हैं और इसे केवल एक लक्ष्य के रूप में देखने से बच सकते हैं।
भारत की प्राचीन परंपराएँ, विशेष रूप से योग और ध्यान, प्रसन्नता को जीवन का अभिन्न हिस्सा मानती हैं। योग के सिद्धांतों में बताया गया है कि वास्तविक प्रसन्नता तब मिलती है जब हम अपने मन और शरीर के बीच संतुलन बनाए रखते हैं।
योग एवं ध्यान मानसिक शांति और आंतरिक प्रसन्नता के साधन हैं। ये हमें बाह्य जगत के तनावों और चिंताओं से ऊपर उठने में मदद करते हैं तथा हमें यह सिखाते हैं कि प्रसन्नता एक आंतरिक विषय है। अंतर्राष्ट्रीय योग दिवस के माध्यम से भारत ने विश्व भर में प्रसन्नता और मानसिक शांति की इस परंपरा को प्रसारित में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई है।
भारतीय दर्शन में प्रसन्नता को मोक्ष, यानी आत्मा की मुक्ति के रूप में देखा जाता है। यह जीवन के चक्र से मुक्त होने की स्थिति है, जहाँ व्यक्ति पूर्ण शांति और आनंद की प्राप्ति करता है। भगवद गीता में, श्रीकृष्ण ने अर्जुन को सिखाया कि निष्काम कर्म योग द्वारा व्यक्ति वास्तविक प्रसन्नता और शांति प्राप्त कर सकता है।
गीता के अनुसार, जब व्यक्ति अपने कर्मों को फल की अपेक्षा के बिना करता है, तब उसे वास्तविक प्रसन्नता मिलती है। यह विचार आधुनिक समय में भी अत्यंत प्रासंगिक है, जहाँ लोग अपने कार्यों के परिणामों को लेकर चिंतित रहते हैं और इससे मानसिक तनाव का सामना करते हैं।
प्रसन्नता केवल व्यक्तिगत स्तर पर नहीं, बल्कि सामूहिक और सामाजिक स्तर पर भी महत्त्वपूर्ण है। एक समाज, जहाँ लोग संतुलन और प्रसन्नता के साथ जीवन जीते हैं, वह समाज स्थिर तथा समृद्ध होता है।
भारत जैसे विविधता वाले देश में, जहाँ अलग-अलग संस्कृतियाँ, धर्म और जातियाँ एक साथ रहती हैं, सामाजिक संतुलन बनाए रखना चुनौतीपूर्ण है। प्रसन्नता केवल तभी संभव है जब समाज में समानता, न्याय और आपसी सम्मान की भावना हो। भारत की सामाजिक नीतियाँ, जैसे "सबका साथ, सबका विकास," इस दिशा में प्रयास कर रही हैं कि समाज के प्रत्येक व्यक्ति को समान अवसर और संसाधन प्राप्त हों, जिससे उनकी व्यक्तिगत और सामाजिक प्रसन्नता अक्षुण्ण रहे।
प्रसन्नता का प्रत्यक्ष संबंध शासन और नीति निर्माण से भी है। यदि सरकारें जनहितैषी नीतियाँ बनाती हैं और सामाजिक न्याय, समानता तथा अवसरों की उपलब्धता को प्राथमिकता देती हैं, तो समाज में प्रसन्नता का स्तर बढ़ता है।
भूटान का उदाहरण यहाँ प्रासंगिक है, जहाँ "ग्रॉस नेशनल हैपीनेस" (GNH) को सकल घरेलू उत्पाद (GDP) से अधिक महत्त्व दिया जाता है। भूटान ने यह आदर्श प्रस्तुत किया है कि आर्थिक विकास केवल एक साधन है, न कि अंतिम लक्ष्य। सरकारें अगर प्रसन्नता पर केंद्रित नीतियाँ बनाएँ, तो इससे समाज के प्रत्येक वर्ग का उत्थान हो सकता है।
"प्रसन्नता का कोई मार्ग नहीं है, प्रसन्नता ही मार्ग है" यह कथन हमें सिखाता है कि हमें प्रसन्नता को एक गंतव्य के रूप में देखने की बजाय उसे जीवन की एक सतत् प्रक्रिया के रूप में अपनाना चाहिये।
प्रसन्नता का अर्थ केवल भौतिक उपलब्धियों में नहीं, बल्कि आंतरिक शांति, संतोष और जीवन के प्रति सकारात्मक दृष्टिकोण में है। व्यक्तिगत, सामाजिक और राष्ट्रीय स्तर पर प्रसन्नता की खोज और उसकी प्राप्ति से ही एक स्वस्थ और समृद्ध समाज का निर्माण संभव है।
भारत जैसे देश में, जहाँ आर्थिक और सामाजिक असमानताएँ व्याप्त हैं, प्रसन्नता पर ध्यान केंद्रित करना अत्यंत महत्त्वपूर्ण है। सरकार, समाज और व्यक्ति सभी को मिलकर प्रसन्नता की दिशा में कार्य करना चाहिये, ताकि हर नागरिक मानसिक शांति तथा संतोष का अनुभव कर सके।
इस प्रकार, यह स्पष्ट है कि प्रसन्नता केवल एक लक्ष्य नहीं है जिसे प्राप्त किया जा सके, बल्कि यह एक सतत् यात्रा है, जिसे हर व्यक्ति को अपनाना चाहिये। जीवन का प्रत्येक क्षण प्रसन्नता का स्रोत हो सकता है, बशर्ते हम उसके प्रति समुचित दृष्टिकोण अपनाएँ।
"खुशी कोई पहले से बनाई हुई चीज़ नहीं है। यह आपके अपने कार्यों से आती है।"
-दलाई लामा