प्रश्न पूछने वाला ही विज्ञान का सच्चा सिपाही है | 26 Oct 2024

विज्ञान संगठित ज्ञान है। बुद्धि संगठित जीवन है।

- इमैनुअल कांट

संशय एवं प्रश्न करने की प्रकृति विज्ञान के विषय में अत्यधिक महत्त्व रखते हैं। विज्ञान वह दृष्टिकोण है, जो चीजों को जिज्ञासापूर्ण दृष्टि से देखता है तथा सत्य की खोज में सतत् प्रयत्नशील रहता है। विज्ञान की प्रगति का आधार वही व्यक्ति है जो किसी भी धारणा को बिना प्रश्न किये स्वीकार नहीं करता है, सदैव नवीन उत्तरों की खोज करता है और पारंपरिक धारणाओं को चुनौती देने का साहस रखता है। इस निबंध में हम इस विचार की गहराई में जाएंगे कि कैसे प्रश्न पूछने की प्रवृत्ति विज्ञान के विकास और मानव समाज की उन्नति के लिये आवश्यक है।

विज्ञान का सबसे महत्त्वपूर्ण सिद्धांत यह है कि वह किसी भी धारणा को बिना परीक्षण और प्रमाण के स्वीकार नहीं करता। विज्ञान प्रश्नों से जन्म लेता है तथा जिज्ञासा उसका ईंधन है। आइजैक न्यूटन से लेकर अल्बर्ट आइंस्टीन तक, सभी वैज्ञानिकों ने विज्ञान के मौलिक प्रश्नों को उठाया तथा उनके उत्तर खोजने का प्रयास किया। उदाहरण के लिये, न्यूटन ने यह प्रश्न उठाया कि आखिर सेब नीचे क्यों गिरता है और इस प्रश्न ने गुरुत्वाकर्षण के सिद्धांत को जन्म दिया।

इसी तरह, प्रश्न पूछने की प्रवृत्ति ने वैज्ञानिक क्रांति का मार्ग प्रशस्त किया। जब लोग यह समझने लगे कि पारंपरिक धारणाएँ अपर्याप्त हैं जो कि नवीन प्रश्नों को उत्तरित नहीं करती हैं, तभी विज्ञान ने वास्तविक प्रगति की।

प्रश्न पूछना विज्ञान का आधार है क्योंकि यह हमें नए विचारों, खोजों और सिद्धांतों तक पहुँचने के लिये प्रेरित करता है। हर वैज्ञानिक सिद्धांत एक प्रश्न से आरंभ होता है। "यह कैसे हुआ?","क्यों हुआ?","इसके पीछे का कारण क्या है?" - ये प्रश्न वैज्ञानिकों को समस्याओं के समाधान एवं नए आविष्कारों की ओर ले जाते हैं।

प्रश्न पूछना न केवल एक वैज्ञानिक दृष्टिकोण को विकसित करता है, बल्कि यह एक समालोचनात्मक चिंतन को भी बढ़ावा देता है। समालोचनात्मक चिंतन हमें परंपरागत धारणाओं को चुनौती देने और उनके पीछे के तर्क को समझने की शक्ति देता है। यही कारण है कि वैज्ञानिक और शिक्षाविद हमेशा विद्यार्थियों को प्रश्न पूछने के लिये प्रेरित करते हैं।

इतिहास इस बात का गवाह है कि वैज्ञानिक खोजें हमेशा किसी न किसी प्रश्न से शुरू होती हैं।

गैलीलियो गैलीली ने एक मौलिक प्रश्न उठाया: "क्या पृथ्वी ब्रह्मांड के केंद्र में है?" यह प्रश्न इतना शक्तिशाली था कि उसने समूचे खगोलशास्त्र की दिशा बदल दी। गैलीलियो ने अपने उत्तर खोजने के लिये प्रेक्षण और परीक्षण का सहारा लिया तथा यह साबित किया कि पृथ्वी सूर्य के चारों ओर परिभ्रमण करती है। यह खोज उस समय की धार्मिक और सांस्कृतिक धारणाओं को चुनौती देने वाली थी, जो कि प्रश्न पूछने के महत्त्व को रेखांकित करती है।

चार्ल्स डार्विन ने जीवन के विकास के संबंध में कई प्रसांगिक प्रश्नों को उठाया। उन्होंने यह समझने का प्रयास किया कि कैसे प्रजातियाँ विकसित होती हैं और इसके पीछे का कारण क्या है। उनके प्रश्नों ने उन्हें प्राकृतिक वरण के सिद्धांत तक पहुँचाया, जो आज के जैविक विज्ञान का एक महत्त्वपूर्ण स्तंभ है। डार्विन के इस सिद्धांत ने न केवल जैविक विज्ञान में क्रांति ला दी, बल्कि मानव अस्तित्व को भी नए दृष्टिकोण से समझाया।

विज्ञान में प्रश्न पूछने की प्रक्रिया एक विधिवत प्रणाली है। इसे वैज्ञानिक पद्धति (Scientific Method) कहा जाता है। वैज्ञानिक पद्धति में निम्नलिखित चरण होते हैं:

अवलोकन (Observation): किसी घटना या समस्या का ध्यानपूर्वक अवलोकन करना।

प्रश्न (Questioning): इस घटना के पीछे के कारण या तर्क को समझने के लिये प्रश्न करना।

परिकल्पना (Hypothesis): प्रश्न के संभावित उत्तर के रूप में एक परिकल्पना प्रस्तुत करना।

प्रयोग (Experimentation): परिकल्पना के परीक्षण के लिये प्रयोग करना।

विश्लेषण (Analysis): प्रयोग के परिणामों का विश्लेषण करना।

निष्कर्ष (Conclusion): विश्लेषण के आधार पर निष्कर्ष निकालना।

यह प्रक्रिया निरंतर प्रश्न एवं परीक्षण पर आधारित होती है। अगर प्रयोग के बाद भी कोई प्रश्न अनुत्तरित रह जाता है, तो नए प्रश्न उत्पन्न होते हैं, जिससे वैज्ञानिक खोज की प्रक्रिया सतत् बनी रहती है।

विज्ञान में प्रश्न पूछना जितना आवश्यक है, उतना ही आवश्यक है कि समाज में प्रश्न पूछने की एक स्वस्थ संस्कृति हो। भारत जैसे समाज में अक्सर यह देखा गया है कि पारंपरिक धारणाओं या व्यवस्थाओं पर प्रश्न उठाने को प्रोत्साहित नहीं किया जाता। विद्यालयों में विद्यार्थियों की रटने की प्रवृत्ति अधिक होती है जिस कारण उन्हें स्वतंत्र चिंतन एवं उनमें प्रश्न पूछने की प्रवृति को प्रोत्साहन नहीं मिलता।

यह प्रवृत्ति वैज्ञानिक चिंतन व नवाचार को बाधित करती है। प्रश्न पूछने से ही नवीन समाधान और तकनीकी प्रगति संभव होती है। इसलिये, शिक्षा प्रणाली को इस दिशा में कार्य करने की आवश्यकता है, ताकि विद्यार्थियों में जिज्ञासा और प्रश्न पूछने की प्रवृत्ति विकसित हो सके।

वर्तमान समय में, जहाँ विज्ञान और तकनीक तेज़ी से उन्नति कर रहे हैं, वहाँ प्रश्न पूछने की प्रवृत्ति को अभी भी कई चुनौतियों का सामना करना पड़ता है। आज के दौर में तकनीकी प्रगति ने हमें इतनी सुविधाएँ प्रदान कर दी हैं कि कई बार हम प्रश्न पूछना ही भूल जाते हैं।

उदाहरण के लिये, इंटरनेट और गूगल जैसी तकनीकें हमें तुरंत समाधान उपलब्ध करा देती हैं, लेकिन क्या वे हमें यह सिखाती हैं कि प्रश्न कैसे पूछे जाएँ? आज के डिजिटल युग में यह आवश्यक है कि हम सूचनाओं के लिये केवल तकनीक पर निर्भर न हों, बल्कि ज्ञान और समझ के लिये सही प्रश्न पूछने की प्रवृत्ति विकसित करें।

विज्ञान में प्रश्न पूछना केवल वैज्ञानिक अनुसंधान तक सीमित नहीं है, बल्कि यह लोकतंत्र की नींव भी है। एक लोकतांत्रिक समाज में नागरिकों का यह अधिकार है कि वे सरकार से सवाल पूछें, नीतियों पर प्रश्न उठाएँ और जवाबदेहीता को सुनिश्चित करें।

भारत जैसे लोकतंत्र में, जहाँ विविधता और विचारों की बहुलता है, यह महत्त्वपूर्ण है कि लोग स्वतंत्र रूप से प्रश्न पूछ सकें। बिना प्रश्नों के, लोकतंत्र केवल एक औपचारिक प्रक्रिया बनकर रह जाएगा। विज्ञान और लोकतंत्र का संबंध इसी प्रश्न पूछने की संस्कृति पर आधारित है, जो वास्तविकता तथा न्याय की खोज के लिये महत्त्वपूर्ण है।

"प्रश्न पूछने वाला ही विज्ञान का सच्चा सिपाही है" यह कथन विज्ञान की आत्मा को दर्शाता है। विज्ञान किसी भी विचार या सिद्धांत को बिना परीक्षण व प्रश्न के स्वीकार नहीं करता।

विज्ञान की प्रगति का मूल आधार वही व्यक्ति है जो प्रश्न पूछने का साहस करता है और नए उत्तरों की खोज जारी रखता है। यही प्रवृत्ति हमें न केवल विज्ञान में बल्कि जीवन के हर क्षेत्र में सफलता दिलाती है।

आधुनिक भारत को भी एक ऐसे समाज की आवश्यकता है, जहाँ जिज्ञासा और प्रश्न पूछने की संस्कृति को प्रोत्साहित किया जाए। यदि शिक्षा, अनुसंधान और नीति निर्माण में अगर हम प्रश्नों को प्राथमिकता देंगे, तो हम एक अधिक प्रगतिशील एवं सशक्त समाज का निर्माण कर सकेंगे।

विज्ञान मानवता के लिये एक सुंदर उपहार है, हमें इसे विकृत नहीं करना चाहिये।

- ए.पी.जे. अब्दुल कलाम