निबंध
सोशल मीडिया युवाओं में 'छूटने का डर' पैदा कर रहा है, जिसके कारण उनमें अवसाद और अकेलापन बढ़ रहा है
- 11 Nov 2024
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आपका समय सीमित है, इसे किसी और का जीवन जीने में बर्बाद न करें।
-स्टीव जॉब्स
सोशल मीडिया, जो प्रारंभ में एक सकारात्मक संचार एवं सूचनाओं के प्रेषण का माध्यम था, वर्तमान समय में युवाओं के मानसिक स्वास्थ्य पर नकारात्मक प्रभाव डाल रहा है। "छूटने का डर" या FOMO (Fear of Missing Out) एक ऐसा मनोवैज्ञानिक प्रभाव है, जो सोशल मीडिया पर अत्यधिक और लगातार उपस्थिति से उत्पन्न हो रहा है। इसके कारण वर्तमान युवा पीढ़ी में अवसाद, तनाव और अकेलापन जैसी समस्याएँ बढ़ती जा रही हैं। इस निबंध में हम इस समस्या के कारणों, प्रभावों और संभावित समाधान पर चर्चा करेंगे।
सोशल मीडिया वर्तमान समय में जीवन का एक अभिन्न हिस्सा बन चुकी है। युवा पीढ़ी फेसबुक, इंस्टाग्राम, ट्विटर और स्नैपचैट जैसे प्लेटफार्मों पर घंटों समय बिताती है। ये मंच सूचना प्राप्त करने, मित्रों और परिवार से जुड़े रहने तथा अपने विचारों को साझा करने का एक साधन हैं। लेकिन, इसके साथ ही यह लगातार दूसरों की गतिविधियों, जीवनशैली और उपलब्धियों को देखते रहने का एक माध्यम भी बन गया है।
युवाओं में "छूटने का डर" इसलिये उत्पन्न हो रहा है क्योंकि वे अपने साथियों की ऑनलाइन गतिविधियों से यह महसूस करते हैं कि वे किसी खास घटना, उपलब्धि, या सामाजिक गतिविधि से वंचित हो रहे हैं। जब कोई अपने सोशल मीडिया पर मित्रों की यात्रा, सफलता, या पार्टी की तस्वीरें देखता है, तो उसे यह महसूस होता है कि वे उस अनुभव से वंचित हो रहे हैं, जिससे उन्हें मानसिक तनाव और असुरक्षा का अनुभव होता है।
FOMO एक गहरी मानसिक स्थिति का संकेत है, जो हमारे सामाजिक और मानसिक ताने-बाने पर गहरा असर डालती है। यह युवाओं में आत्मसम्मान की कमी और आत्मसंदेह को बढ़ाता है। जब कोई व्यक्ति यह महसूस करता है कि वे दूसरों की तुलना में कम अनुभव या उपलब्धियाँ प्राप्त कर रहे हैं, तो इसका प्रत्यक्ष प्रभाव उनके मानसिक स्वास्थ्य पर पड़ता है।
सोशल मीडिया पर बार-बार पोस्ट और स्टोरीज देखने से उन्हें यह अहसास होता है कि उनकी ज़िन्दगी में कुछ कमी है। यह मानसिक स्थिति धीरे-धीरे अवसाद और चिंता की ओर ले जाती है। इस स्थिति में व्यक्ति अपने जीवन को दूसरों से कमतर मानने लगता है, जिससे आत्मसम्मान में कमी और अकेलापन बढ़ता है।
"छूटने का डर" केवल एक अस्थायी भावना नहीं है, बल्कि यह लंबे समय तक चलने वाले मानसिक स्वास्थ्य के मुद्दों को जन्म दे सकता है। अवसाद और अकेलापन इन समस्याओं के प्रमुख परिणाम हैं। सोशल मीडिया का अत्यधिक उपयोग करने वाले युवा धीरे-धीरे अपने वास्तविक जीवन के संबंधों से कटने लगते हैं। वे अपने ऑनलाइन मित्रों और आभासी दुनिया को अधिक प्राथमिकता देने लगते हैं, जिससे उनका सामाजिक जीवन प्रभावित होता है।
अकेलेपन की यह भावना उन्हें सामाजिक और भावनात्मक रूप से कमज़ोर बना देती है। इस स्थिति में व्यक्ति समाज से कटने लगता है और उसे यह महसूस होता है कि उसके पास कोई नहीं है जो उसकी बात समझ सके। यह अवसाद और आत्महत्या जैसी गंभीर समस्याओं का कारण बन सकता है। विश्व स्वास्थ्य संगठन (WHO) की रिपोर्ट के अनुसार, मानसिक स्वास्थ्य समस्याओं से ग्रसित युवाओं की संख्या में बढ़ोतरी हो रही है और इसका एक प्रमुख कारण सोशल मीडिया का दुरुपयोग है।
सोशल मीडिया का उपयोग अक्सर वास्तविकता से अलग होता है। अधिकांश लोग सोशल मीडिया पर अपनी जीवन की केवल सफलताओं, खुशियों और उत्सवों को साझा करते हैं। यह एक आभासी दुनिया का निर्माण करता है, जो वास्तविक जीवन से अलग होती है। जब युवा इन पोस्ट्स को देखते हैं, तो उन्हें यह लगता है कि बाकी सभी लोग उनके मुकाबले बेहतर जीवन जी रहे हैं।
युवा अपने जीवन की तुलना इन आभासी छवियों से करते हैं और यह समझ नहीं पाते कि जो वे देख रहे हैं वह वास्तविकता नहीं, बल्कि केवल जीवन के अच्छे हिस्से का प्रदर्शन है। यह असमानता की भावना उन्हें मानसिक और भावनात्मक रूप से तोड़ देती है, जिससे अकेलापन और तनाव बढ़ता है।
सोशल मीडिया ने भले ही लोगों को एक-दूसरे से जोड़ने का कार्य किया हो, लेकिन इसके दुष्प्रभाव भी व्यापक हैं। वास्तविक सामाजिक संबंधों की जगह आभासी संबंधों ने ले ली है। पहले जहाँ लोग अपने परिवार और मित्रों से व्यक्तिगत रूप से मिलते थे, अब उनकी बातचीत और संवाद सोशल मीडिया प्लेटफार्मों तक सीमित हो गया है।
इसका परिणाम यह हुआ है कि युवा वास्तविक संबंधों को समय नहीं दे पा रहे हैं। वे आभासी दुनिया में इतने खो जाते हैं कि उनके पास अपने आस-पास के लोगों के साथ वास्तविक जुड़ाव का समय नहीं रहता। यह भावनात्मक दूरी अकेलेपन और अवसाद का एक प्रमुख कारण बनती है।
भारत में भी सोशल मीडिया का प्रभाव तेज़ी से बढ़ रहा है। इंटरनेट की बढ़ती पहुँच और स्मार्टफोन के उपयोग ने इसे और भी व्यापक बना दिया है। भारतीय युवाओं में भी FOMO का प्रभाव बढ़ता जा रहा है। भारत में सामाजिक दबाव, प्रतिस्पर्धा और परिवार की अपेक्षाएँ पूर्व से ही मानसिक तनाव का कारण रही हैं। ऐसे में, सोशल मीडिया पर दूसरों की उपलब्धियों को देखना इस तनाव को और बढ़ा देता है।
विशेषकर शहरी क्षेत्रों में, जहाँ युवा लगातार अपने साथियों की उपलब्धियों से तुलना करते हैं, वहाँ FOMO का प्रभाव अधिक दिखाई देता है। शिक्षा, कॅरियर और सामाजिक प्रतिष्ठा को लेकर बने दबाव के कारण युवा अपनी मानसिक शांति खो रहे हैं।
हालाँकि सोशल मीडिया को पूरी तरह से त्यागना संभव नहीं है, लेकिन इसे सही ढंग से उपयोग करके इसके दुष्प्रभावों से बचा जा सकता है। कुछ प्रमुख उपाय इस प्रकार हैं:
(i) सोशल मीडिया डिटॉक्स: समय-समय पर सोशल मीडिया से ब्रेक लेना आवश्यक है। यह मानसिक शांति के लिये महत्त्वपूर्ण है, क्योंकि यह व्यक्ति को वास्तविक जीवन से फिर से जोड़ने में मदद करता है।
(ii) सीमित उपयोग: सोशल मीडिया का सीमित और सोच-समझकर उपयोग करना आवश्यक है। युवाओं को चाहिये कि वे इसके अत्यधिक उपयोग से बचें और केवल जरूरी जानकारी प्राप्त करने के लिये इसका उपयोग करें।
(iii) वास्तविक जीवन के संबंध: आभासी दुनिया के बजाय वास्तविक जीवन के संबंधों को प्राथमिकता देनी चाहिये। मित्रों और परिवार के साथ समय बिताना मानसिक स्वास्थ्य के लिये आवश्यक है।
(iv) मानसिक स्वास्थ्य के प्रति जागरूकता: युवाओं में मानसिक स्वास्थ्य के प्रति जागरूकता बढ़ानी चाहिये। स्कूलों और कॉलेजों में मानसिक स्वास्थ्य शिक्षा को बढ़ावा देना चाहिये, ताकि युवा इन समस्याओं को संबोधित करने के लिये तैयार रहें।
"छूटने का डर" यानी FOMO एक गंभीर मनोवैज्ञानिक समस्या है, जो युवाओं के मानसिक स्वास्थ्य पर गहरा प्रभाव डाल रही है। सोशल मीडिया, जो एक साधन होना चाहिये था, अब अवसाद और अकेलेपन का कारण बनता जा रहा है। यह आवश्यक है कि युवा इस समस्या को समझें और इसका समाधान खोजें।
सरकारों, शिक्षण संस्थानों और समाज के हर वर्ग को यह सुनिश्चित करना चाहिये कि युवा मानसिक स्वास्थ्य के प्रति जागरूक रहें और सोशल मीडिया के सकारात्मक और नकारात्मक दोनों पहलुओं को समझें। सही दिशा में उठाए गए कदम न केवल युवाओं को मानसिक शांति प्रदान करेंगे, बल्कि समाज में भी एक संतुलन और समृद्धि को बढ़ावा देंगे।
सबसे बड़ा धन थोड़े में संतुष्ट रहना है।
— प्लेटो