प्राथमिक स्वास्थ्य सेवा और शिक्षा की उपेक्षा भारत के पिछड़ेपन के कारण हैं | 19 Mar 2024
शरीर की स्वस्थता सुनिश्चित करना हमारा कर्त्तव्य है अन्यथा हम अपने मन को दृढ़ और सजग रखने में अक्षम होंगे।
—गौतम बुद्ध
भारत, जो अपनी समृद्ध सांस्कृतिक विरासत और तीव्र आर्थिक विकास के लिये जाना जाता है, वर्तमान में भी व्यापक विकास का लक्ष्य हासिल करने में चुनौतियों का सामना कर रहा है। इन चुनौतियों में, प्राथमिक स्वास्थ्य सेवा और शिक्षा की उपेक्षा इसकी प्रगति में बाधा उत्पन्न करने वाले प्रमुख कारक हैं।
भारत में प्राथमिक स्वास्थ्य सेवा और शिक्षा की उपेक्षा की पृष्ठभूमि ऐतिहासिक, सामाजिक-आर्थिक और राजनीतिक कारकों में हैं। औपनिवेशिक शासन और स्वतंत्रता के बाद की चुनौतियों ने देश के विकास पथ को समग्र रूप से प्रभावित किया है। औपनिवेशिक शासन के दौरान, विशाल जनसमूह के हितों के बजाय सत्तारूढ़ अभिजात वर्ग के हितों को प्राथमिकता देते हुए स्वास्थ्य सेवा और शिक्षा की प्रायः उपेक्षा की जाती थी। इन क्षेत्रों में अपर्याप्त निवेश की स्थिति स्वतंत्रता के बाद भी बनी रही, जो निर्धनता, जनसंख्या में वृद्धि और नौकरशाह वर्ग की अक्षमताओं जैसे मुद्दों से और भी बढ़ गई।
प्राथमिक स्वास्थ्य सेवा किसी भी प्रभावी स्वास्थ्य प्रणाली की आधारशिला होती है, जो समुदायों को आवश्यक सेवाएँ प्रदान करती है। हालाँकि भारत में प्राथमिक स्वास्थ्य सेवा का बुनियादी ढाँचा गंभीर रूप से अपर्याप्त है, जिसके कारण ग्रामीण क्षेत्र प्रभावित होते हैं। गुणवत्तापूर्ण स्वास्थ्य सेवा तक सीमित पहुँच, प्रशिक्षित चिकित्सा कर्मियों की कमी और अपर्याप्त निधीयन के कारण भारतीयों के स्वास्थ्य परिणामों को बेहतर बनाने में बाधा उत्पन्न हुई। प्राथमिक स्वास्थ्य सेवा की उपेक्षा के अनेक परिणाम हैं, जिसमें उच्च मातृ और शिशु मृत्यु दर, संक्रामक रोगों की व्यापकता और हाशियाई समुदायों की सीमित स्वास्थ्य सेवा-मांग व्यवहार शामिल हैं।
राष्ट्रीय स्वास्थ्य प्राधिकरण (NHA) द्वारा वर्ष 2019 में किये गए एक अध्ययन के अनुसार मध्य प्रदेश के ग्रामीण क्षेत्रों में, लगभग 18% आबादी की निकटतम प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्र (PHC) से दूरी 5 किमी. से अधिक है। यह दूरी, विशेष रूप से गर्भवती महिलाओं या गंभीर व्याधियों से ग्रस्त लोगों के लिये, आवश्यक देखभाल तक पहुँच सुनिश्चित करने में एक गंभीर बाधा उत्पन्न करती है।
विश्व स्वास्थ्य संगठन (WHO) के अनुसार, आदर्श एलोपैथिक डॉक्टर-रोगी अनुपात 1:1000 है। भारत में, यह अनुपात 1:1445 (2018 डेटा) है। यह अंतराल ग्रामीण क्षेत्रों में विशेष रूप से और गंभीर है, जहाँ यदि किसी PHC की सुविधा हो भी तो उसमें केवल एक डॉक्टर नियोजित होता है।
ग्रामीण खेत्र के PHC में बाल रोग विशेषज्ञ और स्त्री रोग विशेषज्ञ जैसे विशेषज्ञों की उपस्थिति और अधिक चिंतनीय है। विशेषज्ञ देखभाल की कमी के कारण रोगियों को मूल परामर्श के लिये भी लंबी दूरी तय करके ज़िला अस्पतालों में जाना पड़ता है, जिससे पहले से ही बोझिल स्वास्थ्य सेवा प्रणाली पर और अधिक दबाव पड़ता है।
PHC के लिये अपर्याप्त सरकारी निधीयन के कारण, कई PHC उपयोगकर्त्ता (रोगी) शुल्क पर निर्भर होते हैं। इसके परिणामस्वरूप गरीब परिवारों की आवश्यक स्वास्थ्य सेवा तक पहुँच बाधित होती है, जिससे उन्हें उपचार प्राप्त करने में देरी होती है अथवा वे अन्य परंपरागत चिकित्सा पद्धति का सहारा लेते हैं, जिसके प्रायः हानिकारक प्रभाव होते हैं।
भारत की MMR (प्रति 100,000 जीवित जन्मों पर मृत्यु) 97 (2018-20) है। भारत के MMR में गत वर्षों (2014-2017) की अपेक्षा उल्लेखनीय सुधार हुआ है किंतु ग्रामीण क्षेत्रों में स्थित PHC में गुणवत्तापूर्ण प्रसवपूर्व देखभाल और प्रसव के कुशल सहायकों तक पहुँच का अभाव अभी भी बना हुआ है।
भारत में क्षय रोग और मलेरिया जैसी व्याधियों को पूर्ण रूप से समाप्त नहीं किया जा सका है। संसाधनों के अभाव के कारण उचित निदान, उपचार और लोक स्वास्थ्य शिक्षा प्रदान करने में PHC की अक्षमता के फलस्वरूप ये व्याधियाँ वर्तमान में भी यथास्थित हैं।
शिक्षा को व्यापक रूप से एक मूल अधिकार और सामाजिक-आर्थिक विकास के उत्प्रेरक के रूप में स्वीकार किया जाता है। हालाँकि, भारत में, गुणवत्तापूर्ण शिक्षा तक पहुँच में असमानताएँ विभिन्न क्षेत्रों और सामाजिक-आर्थिक स्तरों पर बनी हुई हैं। शिक्षा प्रणाली समक्ष अपर्याप्त बुनियादी ढाँचे, शिक्षकों की कमी, पुरातन पाठ्यक्रम और उच्च ड्रॉपआउट दरों सहित कई अन्य चुनौतियाँ विद्यमान हैं। विशेष रूप से ग्रामीण और दूरवर्ती क्षेत्रों में, बच्चों को प्रायः स्कूल की सुविधा नहीं होती है या उन्हें निम्न गुणवत्ता की शिक्षा प्राप्त होती है, जिससे गरीबी और असमानता का चक्र बना रहता है। शिक्षा की उपेक्षा न केवल व्यक्तियों को वैयक्तिक उन्नति के अवसरों से वंचित करती है बल्कि राष्ट्र की मानव पूंजी और नवाचार क्षमता को भी कमज़ोर करती है।
शिक्षा पर विशेष ध्यान देने वाले राज्य केरल में साक्षरता दर 94% से अधिक है जबकि बिहार जैसे गरीब राज्य में साक्षरता दर लगभग 61.8% है। धनी परिवार के बच्चों के निजी स्कूलों में दाखिला लेने की संभावना काफी अधिक है, जो अक्सर ग्रामीण क्षेत्रों के सरकारी स्कूलों की तुलना में बेहतर सुविधाएँ और शिक्षण प्रदान करते हैं। यूनेस्को की रिपोर्ट के अनुसार भारत में 1 मिलियन से अधिक शिक्षकों का अभाव है, जिसका ग्रामीण स्कूलों पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ रहा है। कुछ स्कूलों का पाठ्यक्रम समालोचनात्मक चिंतन विकसित करने और आधुनिक नौकरी बाज़ार हेतु आवश्यक डिजिटल कौशल विकसित करने पर आधारित नहीं है।
वार्षिक शिक्षा स्थिति रिपोर्ट (ASER) 2023 के अनुसार, भारत के ग्रामीण क्षेत्रों में कक्षा आठ के लगभग एक तिहाई छात्र अपेक्षित स्तर पर पढ़ पाने में अक्षम थे।
ग्रामीण क्षेत्रों के कई स्कूलों में उचित भवन, स्वच्छता सुविधाएँ और शैक्षिक संसाधनों का अभाव है।
भारतीय उच्च शिक्षा संस्थान लगभग चार दशक पहले संशोधित पाठ्यक्रम के साथ समसामयिक चुनौतियों और आधुनिक कौशल की आवश्यकता की अपेक्षाओं को पूरा करने के लिये संघर्षरत हैं। पाठ्यक्रम किसी शिक्षा प्रणाली के आधार के सामान है, जिसे उद्विकासी सामाजिक-आर्थिक और अन्य कारकों के साथ नियमित रूप से मिलाने की आवश्यकता होती है। देश के लगभग सभी कॉलेजों और संस्थानों को छात्रों को भविष्य के कौशल प्रदान करने और उद्योग की ज़रूरतों के साथ उनके अधिगम के परिणामों को संरेखित करने के लिये स्वयं में परिवर्तन लाना होगा। "भारत के स्नातक कौशल सूचकांक: 2023 रिपोर्ट के अनुसार लगभग 44 प्रतिशत स्नातक विद्यार्थी शीर्ष तकनीकी नौकरियों के लिये नियोजनीय हैं जबकि 53 प्रतिशत भारतीय स्नातक विद्यार्थी शीर्ष गैर-तकनीकी नौकरियों के लिये नियोजनीय हैं।
प्राथमिक स्वास्थ्य सेवा और शिक्षा की उपेक्षा का भारत के विकास एजेंडे पर दूरगामी परिणाम है। सामाजिक रूप से, इससे असमानताएँ बढ़ती हैं और जाति, लिंग तथा क्षेत्रीय असमानताएँ व्याप्त होती है। आर्थिक रूप से, इससे उत्पादकता बाधित होती है, श्रम बाज़ार की दक्षता प्रभावित होती है और समावेशी विकास के अवसर सीमित होते हैं। साक्षरता दर और जीवन प्रत्याशा जैसे मानव विकास संकेतक स्वास्थ्य एवं शिक्षा में निवेश से निकटता से जुड़े हुए हैं। इन क्षेत्रों की उपेक्षा करके, भारत द्वारा सतत् विकास लक्ष्यों की प्राप्ति और वैश्विक आर्थिक महाशक्ति के रूप में अपनी क्षमता प्रदर्शित करने की संभावनाएँ प्रभावित हो सकती हैं।
गुणवत्तापूर्ण शिक्षा के बिना, विशेष रूप से वंचित पृष्ठभूमि से आने वाले व्यक्तियों को रोज़गार के लिये प्रतिस्पर्धा करने और गरीबी से बचने में संघर्ष करना पड़ता है। एक कुशल कार्यबल राष्ट्र के विकास के लिये आवश्यक है। शैक्षिक असमानताएँ भारत की नवाचार क्षमता और आर्थिक प्रतिस्पर्धा को सीमित कर सकती हैं।
स्वास्थ्य और शिक्षा के बीच परस्पर निर्भरता एकीकृत नीतियों एवं हस्तक्षेपों की आवश्यकता को रेखांकित करती है। बेहतर स्वास्थ्य परिणाम शैक्षिक प्राप्ति को सकारात्मक रूप से प्रभावित करते हैं, क्योंकि स्वस्थ बच्चों के नियमित रूप से स्कूल जाने और अकादमिक रूप से बेहतर प्रदर्शन करने की संभावना अधिक होती है। इसके विपरीत, शिक्षित व्यक्ति सूचित स्वास्थ्य निर्णय लेने, निवारक व्यवहार अपनाने और स्वास्थ्य सेवाओं तक पहुँचने के लिये बेहतर ढंग से सुसज्जित होते हैं। इस संबंध को पहचानते हुए, स्कूल स्वास्थ्य कार्यक्रम और समुदाय-आधारित शिक्षा हस्तक्षेप जैसी पहल दोनों क्षेत्रों के लिये सहक्रियात्मक लाभ प्रदान कर सकती हैं, जिससे समग्र विकास को बढ़ावा मिलता है।
भारत में प्राथमिक स्वास्थ्य देखभाल और शिक्षा की उपेक्षा को दूर करने के लिये नीतिगत सुधार, अधिक निवेश और सामुदायिक सहभागिता सहित बहुआयामी दृष्टिकोण की आवश्यकता है।
प्राथमिक स्वास्थ्य देखभाल के बुनियादी ढाँचे के विस्तार और उन्नयन को प्राथमिकता दें, विशेषकर ग्रामीण और वंचित क्षेत्रों में। सेवा वितरण में अंतर को पाटने और निवारक देखभाल को बढ़ावा देने के लिये सामुदायिक स्वास्थ्य कार्यकर्त्ताओं को प्रशिक्षित करने एवं तैनात करने में निवेश करना चाहिये।
पाठ्यक्रमों को संशोधित करके उन्हें विविध शिक्षार्थियों की आवश्यकताओं के अनुरूप अधिक प्रासंगिक, समावेशी और उत्तरदायी बनाया जाना चाहिये। शैक्षणिक कौशल और कक्षा प्रभावशीलता को बढ़ाने के लिये शिक्षक प्रशिक्षण एवं सहायता तंत्र में सुधार किया जाना चाहिये। दूरदराज के क्षेत्रों में रहने वाले लोगों तक पहुँचने और व्यक्तिगत शिक्षण अनुभव को सुविधाजनक बनाने के लिये प्रौद्योगिकी-सक्षम शिक्षण प्लेटफॉर्म में निवेश किया जाना चाहिये।
स्वास्थ्य सेवा तथा शिक्षा तक पहुँच में असमानताओं को दूर करने के लिये लक्षित हस्तक्षेपों को लागू करें, जिसमें महिलाओं, बच्चों और जनजातीय समुदायों जैसे हाशियाई समूहों पर ध्यान केंद्रित किया जाए। स्वीकार्यता और उपयोग को बढ़ाने के लिये सांस्कृतिक रूप से संवेदनशील एवं भाषाई रूप से उपयुक्त तरीकों से आवश्यक सेवाओं का प्रावधान सुनिश्चित करना चाहिये।
अंतर्राष्ट्रीय मानकों को पूरा करने और संसाधन अंतराल को दूर करने के लिये स्वास्थ्य एवं शिक्षा पर सार्वजनिक व्यय बढ़ाएँ। अतिरिक्त वित्तपोषण का लाभ उठाने और संसाधन आवंटन को अनुकूलित करने के लिये सार्वजनिक-निजी भागीदारी और सामाजिक प्रभाव निवेश सहित अभिनव वित्तपोषण तंत्रों का पता लगाना चाहिये।
स्वास्थ्य और शिक्षा से संबंधित निर्णय लेने की प्रक्रियाओं में सक्रिय रूप से भाग लेने के लिये समुदायों को सशक्त बनाना। हस्तक्षेपों के स्वामित्व, जवाबदेही एवं संधारणीयता को बढ़ावा देने के लिये ज़मीनी स्तर के संगठनों और समुदाय-आधारित पहलों को मज़बूत करना।
भारत में प्राथमिक स्वास्थ्य सेवा और शिक्षा की उपेक्षा राष्ट्र की विकास आकांक्षाओं के लिये एक महत्त्वपूर्ण बाधा है। इन प्रणालीगत चुनौतियों का समाधान करके और मानव पूंजी में निवेश करके, भारत अपनी पूरी क्षमता को अनलॉक कर सकता है तथा समावेशी व संधारणीय विकास के मार्ग पर चल सकता है। विभिन्न क्षेत्रों और हितधारकों के सम्मिलित प्रयासों के माध्यम से भारत अपने पिछड़ेपन को दूर कर सकता है तथा विश्व के लिये प्रगति और समृद्धि का एक प्रकाश स्तंभ बन सकता है।