निबंध
आवश्यकता लालच का कारण है, और जब लालच बढ़ता है तो यह पीढ़ियों को बिगाड़ता है
- 14 Aug 2024
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There is a Sufficiency in the World for Man’s Need but not for Man’s Greed
अर्थात्
यह संसार मानवीय आवश्यकताओं के लिये पर्याप्त है, किंतु मानवीय लालच को संतुष्ट करने के लिये नहीं।
— महात्मा गांधी
मानव इतिहास आवश्यकता और लालच की अवधारणाओं के साथ गहनता से जुड़ा हुआ है। मानव अस्तित्व के प्रारंभिक दिनों से लेकर आज की जटिल सामाजिक संरचनाओं तक, इन दो शक्तियों ने सभ्यताओं, अर्थव्यवस्थाओं और पारस्परिक संबंधों को आयाम दिया है। आवश्यकता जीवन का एक मूलभूत पहलू है, जो व्यक्तियों और समुदायों को अस्तित्व एवं कल्याण के लिये आवश्यक वस्तुओं की तलाश करने के लिये प्रेरित करती है। हालाँकि, जब आवश्यकता या ज़रूरत लालच में बदल जाती है, तो इसके परिणाम न केवल मनुष्य के लिये बल्कि व्यापक सामाजिक संरचना के लिये भी हानिकारक हो सकते हैं।
आवश्यकता, अपने सबसे बुनियादी रूप में जीवन निर्वहन के लिये भोजन, जल, आश्रय और सुरक्षा जैसी मूलभूत आवश्यकताओं को संदर्भित करती है। जैसे-जैसे मानव समाज विकसित हुआ, आवश्यकता की अवधारणा का विस्तार भावनात्मक, सामाजिक और मनोवैज्ञानिक पहलुओं जैसे प्रेम, मोह, अपनापन, सम्मान एवं आत्म-साक्षात्कार को शामिल करने के रूप में हुआ। ये आवश्यकताएँ मानव व्यवहार को विकसित करती हैं, मनुष्य को ऐसे कार्य करने के लिये प्रेरित करती हैं जो उनके अस्तित्व एवं कल्याण को सुनिश्चित करते हैं।
सामाजिक स्तर पर, आवश्यकताओं ने अर्थव्यवस्थाओं, प्रौद्योगिकियों और सामाजिक संरचनाओं के विकास को प्रेरित किया है। भोजन की आवश्यकता ने कृषि के विकास को जन्म दिया; सुरक्षा की आवश्यकता ने समुदायों और अंततः राष्ट्रों के गठन को जन्म दिया; सामाजिक संपर्क एवं सहयोग की आवश्यकता ने सामाजिक मानदंडों व संस्थानों की स्थापना को जन्म दिया। इस अर्थ में, आवश्यकता प्रगति और नवाचार के लिये एक प्रभावशाली शक्ति है।
हालाँकि, आवश्यकता का एक गंभीर पक्ष भी है। जब बुनियादी आवश्यकताएँ पूरी नहीं हो पाती हैं, तो व्यक्ति और समूह आततायी उपायों का सहारा ले सकते हैं, जिससे संघर्ष, अपराध व सामाजिक अशांति उत्पन्न होती है। यह उग्रता लालच को जन्म दे सकती है, क्योंकि व्यक्ति और समूह अपने अस्तित्व व सुरक्षा को सुनिश्चित करने के लिये आवश्यकता से अधिक संसाधन प्राप्त करने की कोशिश करते हैं।
लालच आवश्यकता से अधिक प्राप्त करने की उत्कट इच्छा है, विशेषतौर पर भौतिक संपदा, शक्ति या हैसियत (सामाजिक स्थिति) के मामले में। यह कई तरह के कारकों से प्रेरित होता है, जिसमें भय, असुरक्षा और सामाजिक मान्यता या श्रेष्ठता की आकांक्षा शामिल है। आवश्यकता का लालच में रूपांतरण प्रायः तब होता है जब वैध आवश्यकताओं की तलाश इन कारकों के कारण विकृत हो जाती है, जो अत्यधिक प्राप्ति की निरंतर इच्छा को जन्म देती है।
आवश्यकता से लालच में परिवर्तन साम्राज्यों, निगमों और मनुष्य के व्यवहार में देखा जा सकता है। सुरक्षा और समृद्धि की तलाश में छोटे समुदायों के रूप में गठित हुए साम्राज्य प्रायः अधिक भूमि, संसाधनों और शक्ति के लालच से प्रेरित होकर विजय एवं उपनिवेशीकरण के माध्यम से विस्तारित हुए। इसी तरह, सामाजिक आवश्यकताओं को पूरा करने के लक्ष्य के साथ शुरू हुए निगम प्रायः नैतिक विचारों और सामाजिक दायित्व की कीमत पर अधिक बाज़ार हिस्सेदारी एवं लाभ की इच्छा से प्रेरित होकर एकाधिकार में विस्तारित हुए।
व्यक्तिगत स्तर पर, आवश्यकता का लालच में रूपांतरण प्रायः भय और असुरक्षा से प्रेरित होता है। उदाहरण के लिये गरीबी में पले-बढ़े व्यक्ति में अभाव का गहरा भय विकसित हो सकता है, जिसके कारण वे अपनी मूलभूत आवश्यकताओं की पूर्ति होने पर भी धन या संसाधनों का संचय करने लगते हैं। यह भय-आधारित लालच दूसरों को नुकसान पहुँचाने वाले व्यवहारों जैसे: शोषण, छल और भ्रष्टाचार को जन्म दे सकता है।
जब लालच को अनियंत्रित रूप से पनपने दिया जाता है, तो व्यक्ति, समाज और पर्यावरण पर इसके विनाशकारी परिणाम हो सकते हैं। लालच के सबसे तात्कालिक परिणामों में से एक सामाजिक विश्वास और सामंजस्य का ह्रास है। लालच व्यक्तियों को दूसरों के हितों पर अपने हितों को प्राथमिकता देने के लिये प्रेरित करता है, जिससे प्रतिस्पर्द्धा, संघर्ष और सामाजिक विखंडन होता है।
चरम मामलों में, इसका परिणाम हिंसा, युद्ध और सामाजिक व्यवस्था का विघटन हो सकता है। वर्ष 1984 में भोपाल गैस त्रासदी इसका एक स्पष्ट उदाहरण है क्योंकि यूनियन कार्बाइड कॉरपोरेशन द्वारा लागत में कटौती के उपायों और लापरवाही के कारण, गैस रिसाव हुआ, जिससे हजारों लोगों की मौत हुई तथा स्थानीय आबादी के लिये दीर्घकालिक स्वास्थ्य समस्याएँ उत्पन्न हुईं।
हाल ही में, ‘ग्रीडफ्लेशन’ अर्थात् लालच में वृद्धि की घटना देखी गई है, जहाँ कंपनियों पर महामारी के बाद लाभ बढ़ाने के लिये कीमतें बढ़ाने का आरोप लगाया गया है। इससे आर्थिक असमानता बढ़ी है और औसत उपभोक्ता पर वित्तीय दबाव बढ़ा है।
लालच का पर्यावरणीय प्रभाव भी बहुत गंभीर है। अधिक संसाधनों की अतृप्त इच्छा ने प्राकृतिक संसाधनों के अत्यधिक दोहन, निर्वनीकरण, प्रदूषण और जलवायु परिवर्तन को जन्म दिया है। इससे न केवल अनगिनत प्रजातियों के अस्तित्व को खतरा है, बल्कि पृथ्वी पर मानव जीवन की नींव भी कमज़ोर हो रही है। अल्पकालिक लाभ की आकांक्षा भी लोगों और निगमों को उनके कार्यों के दीर्घकालिक परिणामों के प्रति अंधा बना देती है, जिससे पर्यावरण का क्षरण होता है तथा जैव विविधता का ह्रास होता है। हाल ही में वायनाड में हुआ भूस्खलन अनियंत्रित मानवीय लालसा के पर्यावरणीय प्रभाव का एक दुखद उदाहरण है। भारी बारिश के कारण पुंजिरिमट्टम, मुंडक्कई, चूरलमाला, अट्टामाला, मेप्पाडी और कुनहोम सहित कई गाँवों में भूस्खलन हुआ। इस आपदा के परिणामस्वरूप जान-माल का काफी नुकसान हुआ। वनों की कटाई एवं अनियमित निर्माण गतिविधियों के कारण भूस्खलन और भी बढ़ गया।
वैश्वीकरण ने वैश्विक बाज़ार बनाकर इन मुद्दों को और बढ़ा दिया है, जहाँ धन एवं संसाधन कुछ बहुराष्ट्रीय कंपनियों के हाथों में केंद्रित हैं। ये निगम प्रायः सरकारों और अंतर्राष्ट्रीय संस्थाओं पर बहुत बड़ा प्रभाव डालते हैं, अपने हितों की पूर्ति के लिये नीतियों एवं विनियमों को आयाम देते हैं। शक्ति और धन के इस संकेंद्रण ने एक वैश्विक अर्थव्यवस्था को जन्म दिया है जो मानव तथा पर्यावरण की तुलना में लाभ को प्राथमिकता देती है, जिससे सामाजिक व पर्यावरणीय कल्याण का क्षरण होता है।
इसके अतिरिक्त, वैश्विक अर्थव्यवस्था ने उपभोक्तावाद की संस्कृति को जन्म दिया है, जहाँ भौतिक वस्तुओं और धन की निरंतर खोज़ को सफलता एवं खुशी का पैमाना माना जाता है। यह संस्कृति न केवल लालच को बढ़ावा देती है, बल्कि दूसरों और वास्तविक संसार से अलगाव की भावना को भी बढ़ावा देती है। जैसे-जैसे व्यक्ति और समाज उपभोग एवं संचय पर अधिक केंद्रित होते जाते हैं, वे करुणा, सहयोग तथा स्थिरता के मूल्यों को भूल सकते हैं।
कुछ व्यक्तियों और निगमों के हाथों में धन के संकेंद्रण ने देश पर गहरा प्रभाव डाला है, सामाजिक और आर्थिक असमानताओं को बढ़ाया है, राजनीतिक एवं आर्थिक प्रणालियों में हेरफेर किया है तथा सामाजिक गतिशीलता के अवसरों को सीमित किया है। हाल के दशकों में, भारत ने तेज़ी से आर्थिक विकास का अनुभव किया है, विशेष रूप से 1990 के दशक में आर्थिक उदारीकरण के बाद। जबकि इस विकास ने लाखों लोगों को गरीबी से बाहर उबारा है, इसने महत्त्वपूर्ण धन संकेंद्रण को भी जन्म दिया है। भारत की आबादी का सबसे अमीर 1% आबादी के पास अब देश की संपत्ति का एक बड़ा हिस्सा है। ऑक्सफैम की ‘टाइम टू केयर’ रिपोर्ट (वर्ष 2020) के अनुसार, भारत की शीर्ष 1% आबादी के पास देश की 40% से अधिक संपत्ति है, जबकि निचले 50% के पास केवल 2.8% संपत्ति है। महत्त्वपूर्ण आर्थिक क्षेत्रों पर नियंत्रण रखने वाले अरबपति परिवारों और कंपनियों का उदय, धन के संकेंद्रण का संकेत है। ये संस्थाएँ अपार आर्थिक शक्ति रखती हैं, जिससे वे बाज़ारों को प्रभावित कर सकती हैं, उद्योग मानकों को आयाम दे सकती हैं और सार्वजनिक नीति को प्रभावित कर सकती हैं।
मनोवैज्ञानिक रूप से, लालच व्यक्तियों पर हानिकारक प्रभाव डाल सकता है, जिससे तनाव, चिंता और खालीपन या असंतोष की भावना उत्पन्न हो सकती है। भौतिक धन या शक्ति की खोज़ प्रायः स्थायी आनंद या तृप्ति लाने में विफल रहती है, जिससे इच्छा और असंतोष का एक दुष्चक्र बन जाता है। इसके परिणामस्वरूप मानसिक स्वास्थ्य संबंधी समस्याएँ हो सकती हैं जैसे कि अवसाद, लत और जीवन में अर्थ या उद्देश्य का नुकसान।
नैतिक दृष्टिकोण से, लालच को प्रायः एक बुराई या नैतिक विफलता माना जाता है। अधिकांश धार्मिक और दार्शनिक परंपराएँ लालच की निंदा करती हैं, इसे एक विनाशकारी शक्ति के रूप में देखती हैं जो मानवीय गरिमा एवं सामाजिक सद्भाव को कमज़ोर करती है। बौद्ध धर्म में, लालच (लोभ) घृणा (दोष) और भ्रम (मोह) के साथ तीन विषों में से एक है। इन विषों को दुख का मूल कारण माना जाता है जो आत्मज्ञान के मार्ग में बाधा डालते हैं। लालच को भौतिक इच्छाओं और लालसाओं के प्रति लगाव के रूप में देखा जाता है, जो असंतोष एवं पीड़ा की ओर ले जाता है। लालच ईसाई धर्मशास्त्र में सात घातक पापों में से एक है। इसे धन या संपत्ति की उत्कट इच्छा के रूप में देखा जाता है, जो अन्य पापों और अनैतिक व्यवहार को जन्म दे सकता है। पवित्र हिंदू ग्रंथ भगवद गीता, में भी लालच की निंदा की गई है। भगवान कृष्ण लालच को एक महान विध्वंसक और पाप की नींव के रूप में वर्णित करते हैं, जो व्यक्तियों को धार्मिकता एवं आध्यात्मिक विकास से दूर ले जाता है। इस्लाम में, लालच को एक बड़ा पाप माना जाता है। कुरान धन और संपत्ति के लिये अत्यधिक प्रेम के खिलाफ चेतावनी देता है, दान के महत्त्व और ज़रूरतमंदों की मदद करने पर ज़ोर देता है। लालच को आध्यात्मिक विकास और सामाजिक न्याय में बाधा के रूप में देखा जाता है।
आवश्यकता और लालच की गतिशीलता ने मानव इतिहास को गंभीर रूप से प्रभावित किया है, सभ्यताओं, अर्थव्यवस्थाओं और नैतिक मूल्यों को आयाम दिया है। जबकि आवश्यकताओं की पूर्ति प्रगति और नवाचार को बढ़ावा देती है, अनियंत्रित लालच सामाजिक, पर्यावरणीय एवं नैतिक पतन की ओर ले जाता है। लालच के परिणाम, जिसमें असमानता, पर्यावरणीय विनाश और सामाजिक सामंजस्य का क्षरण शामिल है, मानव इच्छाओं के प्रति संतुलित दृष्टिकोण को बढ़ावा देने के महत्त्व को उजागर करते हैं। नैतिक सिद्धांतों, करुणा और स्थिरता पर जोर देना एक अधिक न्यायपूर्ण व सामंजस्यपूर्ण विश्व स्थापित करने के लिये आवश्यक है जहाँ आवश्यकताओं की खोज़ विनाशकारी लालच में न बदल जाए।
He Who is not Contented with What He has, would not be Contented with What He would Like to Have.
जो व्यक्ति अपनी वर्तमान स्थिति से संतुष्ट नहीं है, उससे भी संतुष्ट नहीं होगा जो वह पाना चाहता है।
— सुकरात