भारतीय सीमा विवादों का प्रबंधन - एक जटिल कार्य | 03 May 2024

भारतीय सीमा विवादों का प्रबंधन - एक जटिल कार्य

बल से सब कुछ जीता जा सकता है, लेकिन इसकी जीत अल्पकालिक होती है।

― अब्राहम लिंकन

सीमा विवाद विश्व भर के देशों के लिये एक लंबे समय से एक महत्त्वपूर्ण चुनौती बना हुआ है, जो प्रायः तनाव और संघर्ष को बढ़ावा देता है। भारत के मामले में सीमा विवादों का प्रबंधन अपने विविध भूगोल, जटिल इतिहास और पड़ोसी देशों के साथ जटिल संबंधों के कारण एक बहुआयामी चुनौती प्रस्तुत करता है।

भारतीय सीमा विवादों के ऐतिहासिक संदर्भ को समझना उसकी जटिलताओं को समझने के लिये महत्त्वपूर्ण है। इनमें से कई विवाद औपनिवेशिक विरासत, मनमाने सीमा सीमांकन और अनसुलझे क्षेत्रीय दावों से उत्पन्न हुए हैं। उदाहरण के लिये भारत-चीन सीमा विवाद वर्ष 1914 में अंग्रेज़ों द्वारा खींची गई मैकमोहन रेखा से संबंधित है, जिसे चीन ने कभी मान्यता नहीं दी। इसी प्रकार भारत-पाकिस्तान सीमा विवाद, विशेष रूप से कश्मीर को लेकर, वर्ष 1947 में ब्रिटिश भारत के विभाजन और उसके बाद दोनों देशों के बीच हुए युद्धों में निहित है।

भू-राजनीतिक परिदृश्य भारतीय सीमा विवादों को महत्त्वपूर्ण रूप से प्रभावित करता है, जिसमें क्षेत्रीय शक्तियाँ रणनीतिक लाभ और क्षेत्रीय नियंत्रण के लिये बराबरी करती हैं। रणनीतिक रूप से महत्त्वपूर्ण भारतीय राज्यों/केंद्रशासित प्रदेशों में चीन के मुखर क्षेत्रीय दावे इसकी सुरक्षा और क्षेत्रीय अखंडता के लिये एक बड़ी चुनौती पेश करते हैं। वर्ष 2017 में डोकलाम गतिरोध भारत और चीन के बीच भू-राजनीतिक तनाव का उदाहरण है, जिसमें दोनों पक्ष भूटान द्वारा दावा किये गए क्षेत्र को लेकर गतिरोध में उलझे हुए हैं। इसी प्रकार कश्मीर में विद्रोही समूहों के लिये पाकिस्तान का समर्थन भारत-पाकिस्तान सीमा विवाद में जटिलता की एक और परत जोड़ता है, जिससे तनाव बढ़ता है और शांतिपूर्ण समाधान के प्रयासों में बाधा आती है।

सीमा विवादों के प्रबंधन में अंतर्राष्ट्रीय कानून और स्थापित कानूनी ढाँचे महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। भारत ने अपने पड़ोसियों के साथ विवादों को सुलझाने के लिये मध्यस्थता और अंतर्राष्ट्रीय न्यायाधिकरण जैसे विधिक तंत्रों पर विश्वास करने का प्रयास किया है। उदाहरण के लिये भारत और बाँग्लादेश ने वर्ष 2014 में स्थायी मध्यस्थ न्यायालय द्वारा मध्यस्थता के माध्यम से बंगाल की खाड़ी में क्षेत्रीय जल पर अपने समुद्री सीमा विवाद को सफलतापूर्वक समाधान किया। हालाँकि कानूनी व्यवस्था प्रायः पक्षों के अपने फैसलों का पालन करने के आशय और ज़मीन पर निर्णयों को लागू करने की जटिलताओं से सीमित होते हैं।

कूटनीति भारतीय सीमा विवादों के प्रबंधन के लिये एक प्राथमिक उपकरण के रूप में कार्य करती है, जिसके लिये पड़ोसी देशों के साथ चतुराई, धैर्य और रणनीतिक जुड़ाव की आवश्यकता होती है। भारत ने सीमा मुद्दों का समाधान करने के लिये द्विपक्षीय वार्ता, ट्रैक-टू संवाद और विश्वास-निर्माण उपायों समेत विभिन्न कूटनीतिक रणनीतियों का पालन किया है। वर्ष 1993 में भारत-चीन सीमा शांति तथा शांति समझौते और वर्ष 2005 में वास्तविक नियंत्रण रेखा (LAC) विश्वास-निर्माण उपायों जैसे समझौतों पर हस्ताक्षर करना चीन के साथ कूटनीतिक जुड़ाव के लिये भारत की प्रतिबद्धता को दर्शाता है। इसी प्रकार वर्ष 1972 का शिमला समझौता और वर्ष 1999 का लाहौर घोषणापत्र पाकिस्तान के साथ सीमा विवादों को प्रबंधित करने के लिये भारत के कूटनीतिक प्रयासों को दर्शाता है।

कूटनीतिक प्रयासों और कानूनी तंत्रों के बावजूद, भारतीय सीमा विवादों के प्रबंधन में कई चुनौतियों और बाधाओं का सामना करना पड़ता है। ऐतिहासिक दुश्मनी, राष्ट्रवादी भावनाएँ, घरेलू राजनीति और सैन्य रुख प्रायः शांतिपूर्ण समाधान की दिशा में होने वाली प्रगति में बाधा डालते हैं। इसके अतिरिक्त भारत और उसके पड़ोसी, विशेष रूप से चीन और पाकिस्तान के बीच शक्ति की विषमता, पारस्परिक रूप से स्वीकार्य समाधान खोजने के प्रयासों को जटिल बनाते हैं। विश्वास, पारदर्शिता और संचार की कमी तनाव को बढ़ाने के साथ जोखिम भी बढ़ाती है, जैसा कि समय-समय पर सीमा पर होने वाली झड़पों और गतिरोधों से स्पष्ट होता है।

विशिष्ट केस स्टडीज़ की जाँच करने से भारतीय सीमा विवादों के प्रबंधन की जटिलताओं के बारे में जानकारी मिलती है। भारत और पाकिस्तान के बीच सियाचिन ग्लेशियर संघर्ष अनसुलझे क्षेत्रीय विवादों की मानवीय और पर्यावरणीय लागतों का उदाहरण है। इसी प्रकार वर्ष 2020 में लद्दाख में भारत-चीन सीमा गतिरोध ने LAC पर शांति का कमज़ोर होना और प्रतिस्पर्द्धी क्षेत्रीय दावों के बीच तनाव को कम करने में बाधाओं को रेखांकित किया।

भारत के सीमा प्रबंधन के लिये निरंतर संवाद, विश्वास-निर्माण उपायों और मौज़ूदा समझौतों का पालन करना आवश्यक है। तनाव बढ़ने के जोखिम को कम करने के लिये सैन्य मुद्रा पर कूटनीति को प्राथमिकता देना। लोगों के बीच आदान-प्रदान और सांस्कृतिक कूटनीति आपसी समझ को बढ़ावा दे सकती है। विश्वास निर्माण और गलतफहमियों को रोकने के लिये पारदर्शिता और संचार संबंधों को बढ़ावा देना। क्षेत्रीय सुरक्षा चिंताओं को दूर करने और सहयोग को बढ़ावा देने के लिये बहुपक्षीय मंचों में शामिल होना। सीमा क्षेत्रों को शांति और समृद्धि के क्षेत्रों में बदलने के लिये संयुक्त विकास परियोजनाओं जैसे अभिनव समाधानों को आगे बढ़ाना आवश्यक है।

भारत म्याँमार के साथ एक लंबी सीमा साझा करता है, जिसका अधिकांश भाग पहाड़ी और सघन वनों से आवृत है, जिससे सीमा का सीमांकन चुनौतीपूर्ण हो जाता है। सीमा स्तंभों, अवैध क्रॉसिंग और सीमा पर विद्रोही गतिविधियों जैसे मुद्दों पर विवाद उत्पन्न हुए हैं। म्याँमार दक्षिण एशिया को दक्षिण पूर्व एशिया से जोड़ने वाले एक भूमि सेतु के रूप में कार्य करता है। भारत के पूर्वोत्तर राज्यों से म्याँमार की निकटता एक रणनीतिक संबंध स्थापित करती है और क्षेत्रीय संपर्क को सुगम बनाती है।

भारत और म्याँमार के बीच फ्री मूवमेंट रेज़ीम (FMR) समझौता वास्तव में सुरक्षा संबंधी चिंताएँ उत्पन्न करता है, मूलतः विद्रोहियों, अवैध अप्रवासियों और अपराधियों का सीमा पार आवागमन से संबंधित मुद्दों को संबोधित करने में। FMR दोनों देशों के बीच एक पारस्परिक रूप से सहमत व्यवस्था है जो दोनों तरफ की सीमा पर रहने वाली जनजातियों को बिना वीज़ा के दूसरे देश के अंदर 16 किलोमीटर तक यात्रा करने की अनुमति देती है। इसे वर्ष 2018 में भारत सरकार की एक्ट ईस्ट नीति के तहत लागू किया गया था। यह क्षेत्रीय अखंडता के बारे में चिंताएँ उत्पन्न कर सकता है।

भारत और भूटान के बीच एक अनोखा रिश्ता है, जिसमें भारत भूटान को महत्त्वपूर्ण आर्थिक और सैन्य सहायता प्रदान करता है। जबकि दोनों देशों के बीच सीमा का मामला काफी हद तक सुलझा हुआ है, सीमा सीमांकन और नदी क्षेत्रों को लेकर कुछ छोटे-मोटे विवाद मौज़ूद हैं। वर्ष 2017 में डोकलाम गतिरोध में भूटान द्वारा दावा किया जाने वाला एक विवादित क्षेत्र शामिल था, जहाँ भारतीय और चीनी सैनिक तनावपूर्ण गतिरोध में लगे हुए थे। भारत और भूटान 699 किलोमीटर लंबी सीमा साझा करते हैं, जो काफी हद तक शांतिपूर्ण रही है।

भारत और नेपाल के बीच तनाव तब बढ़ गया, जब नेपाल ने वर्ष 2020 में एक नया राजनीतिक नक्शा जारी किया, जिसमें उत्तराखंड के कालापानी, लिंपियाधुरा और लिपुलेख के साथ-साथ बिहार के पश्चिमी चंपारण ज़िले के सुस्ता पर अपना दावा किया गया। भारत ने इस नक्शे पर आपत्ति जताते हुए कहा कि नेपाल के दावे ऐतिहासिक साक्ष्यों पर आधारित नहीं हैं और यह उसके क्षेत्र का कृत्रिम विस्तार है। इस कदम ने सीमा विवादों को पुनः आग में घी डालने की कोशिश की है, खासकर भारत, नेपाल और चीन द्वारा साझा किए गए कालापानी-लिंपियाधुरा-लिपुलेख ट्राइजंक्शन के साथ-साथ सुस्ता क्षेत्र को लेकर।

कालापानी एक घाटी है जो उत्तराखंड के पिथौरागढ़ ज़िले के एक भाग के रूप में भारत द्वारा प्रशासित है। यह कैलाश मानसरोवर मार्ग पर स्थित है। कालापानी 20,000 फीट से अधिक की ऊँचाई पर स्थित है और उस क्षेत्र के लिये एक अवलोकन केंद्र के रूप में कार्य करता है। कालापानी क्षेत्र में काली नदी भारत और नेपाल के बीच सीमा का सीमांकन करती है। वर्ष 1816 में नेपाल साम्राज्य और ब्रिटिश भारत (एंग्लो-नेपाली युद्ध, वर्ष 1814-16 के पश्चात्) द्वारा हस्ताक्षरित सुगौली की संधि ने काली नदी को भारत के साथ नेपाल की पश्चिमी सीमा के रूप में स्थापित किया। काली नदी के स्रोत का पता लगाने में विसंगति के कारण भारत और नेपाल के बीच सीमा विवाद हुआ, जिसमें प्रत्येक देश ने अपने-अपने दावों का समर्थन करते हुए मानचित्र तैयार किये। दोनों देशों के बीच खुली सीमा और लोगों के बीच संपर्क के बावजूद, भारत के बारे में नेपाल में अविश्वास का स्तर बढ़ता ही गया है।

भारतीय सीमा विवादों का प्रबंधन एक जटिल और बहुआयामी कार्य है जिसके लिये ऐतिहासिक समझ, भू-राजनीतिक जागरूकता, विधिक ढाँचा और कूटनीतिक रणनीतियों के संयोजन की आवश्यकता होती है। चुनौतियों और बाधाओं के बावज़ूद भारत ने अपने पड़ोसियों के साथ संवाद, वार्ता और जुड़ाव के माध्यम से शांतिपूर्ण समाधान के लिये प्रतिबद्धता व्यक्त की है। हालाँकि इन विवादों के मूल कारणों को दूर करने और क्षेत्र में स्थायी शांति एवं स्थिरता के लिये विश्वास और आत्मविश्वास बनाने के लिये निरंतर प्रयासों की आवश्यकता है। केवल रचनात्मक जुड़ाव और सहयोग के माध्यम से ही भारत अपने सीमा विवादों की जटिलताओं को दूर कर सकता है साथ ही अपनी क्षेत्रीय अखंडता और राष्ट्रीय हितों को सुरक्षित कर सकता है।

जब कूटनीति का समापन होता है, तब युद्ध की शुरूआत होती है।

― एडोल्फ हिटलर