वन सभ्यताओं से पहले आते हैं और रेगिस्तान उनके बाद आते हैं | 04 Oct 2024
हम विश्व के वनों के साथ जो कर रहे हैं, वह उसी का दर्पण प्रतिबिंब है जो हम स्वयं के साथ और एक-दूसरे के साथ कर रहे हैं।
— महात्मा गांधी
यह कहावत पर्यावरण और मानव सभ्यता के आपसी संबंध को सरल तथा गहरे अर्थ में प्रस्तुत करती है। यह विचार इस तथ्य पर आधारित है कि सभ्यता का विकास वन संसाधनों के उपयोग पर निर्भर करता है और जब इन संसाधनों का अत्यधिक दोहन होता है, तो पर्यावरणीय असंतुलन की स्थिति उत्पन्न होती है जो अंततः विनाशकारी परिणामों को जन्म देती है। इस निबंध में, हम इस कहावत के महत्त्व को ऐतिहासिक, पर्यावरणीय और सामाजिक संदर्भों में समझने का प्रयास करेंगे, साथ ही इसके आधुनिक परिप्रेक्ष्य में भारत और विश्व की पर्यावरणीय चुनौतियों पर विचार करेंगे।
सभ्यताओं के प्रारंभिक चरण में वन संसाधनों के रूप में अत्यधिक महत्त्वपूर्ण थे। मनुष्य का जीवन भोजन, आश्रय, ईंधन और औषधियों के लिये पूरी तरह से प्रकृति पर निर्भर था। यह मानव सभ्यता के प्रारंभिक विकास में वनों की भूमिका को इंगित करता है। वनों ने न केवल पारिस्थितिकी तंत्र को स्थिर रखा बल्कि सभ्यता को अपने पनपने के लिये आवश्यक आधार प्रदान किया।
प्राचीन सभ्यताएँ जैसे कि सिंधु घाटी, मेसोपोटामिया और मिस्र की सभ्यताएँ, उन स्थानों पर विकसित हुईं जहाँ वन और जल के पर्याप्त संसाधन उपलब्ध थे। जैसे-जैसे मानव ने कृषि और पशुपालन को अपनाया, वनों को काटकर भूमि का उपयोग किया गया। प्रारंभ में यह संतुलित था, लेकिन जब मानवीय गतिविधियों का विस्तार हुआ और प्राकृतिक संसाधनों का अत्यधिक उपयोग शुरू हुआ, तब वनों की स्थिति प्रभावित होने लगी।
इतिहास में कई उदाहरण हैं जहाँ वनों का विनाश सभ्यताओं के पतन का कारण बना। उदाहरण के लिये, मेसोपोटामिया की सभ्यता का पतन, जल संसाधनों के दुरुपयोग और भूमि की उर्वरता की कमी से हुआ, जो कृषि के अति दोहन तथा वनों के विनाश का परिणाम था। इसी प्रकार, माया सभ्यता में भी वनों का अत्यधिक दोहन और भूमि की बर्बादी प्रमुख कारण थे।
जैसे-जैसे मानव सभ्यताएँ विकसित हुईं, वनों का दोहन भी बढ़ता गया। औद्योगिक क्रांति के समय, वनोंमूलन और कार्बन उत्सर्जन ने जलवायु परिवर्तन की समस्या को जन्म दिया, जिसका परिणाम हम आज भूमंडलीय तापन और जलवायु असंतुलन के रूप में देख रहे हैं।
वर्तमान समय में, वनों का महत्त्व पहले से कहीं अधिक है। संयुक्त राष्ट्र के आँकड़ों के अनुसार, 31% पृथ्वी का भूभाग वनों से आच्छादित है, जो जलवायु संतुलन को नियंत्रित रखने एवं जैव विविधता को संरक्षित करने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। वन वर्षा को नियंत्रित करते हैं, जलवायु को स्थिर करते हैं और कार्बन डाइऑक्साइड को अवशोषित कर वायुमंडल को साफ रखते हैं।
भारत में वनों की स्थिति और भी महत्त्वपूर्ण हो जाती है, क्योंकि भारत एक कृषि प्रधान देश है जहाँ जलवायु परिवर्तन का प्रत्यक्ष प्रभाव खाद्य उत्पादन और जल संसाधनों पर पड़ता है। भारत सरकार ने कई वन संरक्षण योजनाएँ लागू की हैं, जैसे कि "राष्ट्रीय वन नीति" तथा "अमेज़न वन संरक्षण" जैसी वैश्विक पहल, जो वनों के महत्त्व को रेखांकित करती हैं।
वनोंमूलन तथा इसके प्रभाव के रूप में मरुस्थलीकरण (रेगिस्तान बनने की प्रक्रिया) एक गंभीर पर्यावरणीय संकट बन चुका है। यह प्रक्रिया जिसे "मरुस्थलीकरण" कहा जाता है, उन क्षेत्रों में होती है जहाँ वन कटाव, कृषि की अधिकता और जल संसाधनों का अनुचित उपयोग के कारण वनोंमूलन हुआ है। संयुक्त राष्ट्र के अनुसार, विश्व में लगभग 2 अरब हेक्टेयर भूमि मरुस्थलीकरण से प्रभावित है।
भारत में राजस्थान का थार रेगिस्तान इसका प्रमुख उदाहरण है। अत्यधिक वनोन्मूलन, पशुचारण और जलवायु परिवर्तन ने इस क्षेत्र को और भी शुष्क बना दिया है। रेगिस्तान के विस्तार से न केवल पारिस्थितिकी तंत्र प्रभावित होता है, बल्कि यह मानव जीवन, कृषि और जल संसाधनों पर भी गहरा प्रभाव डालता है।
वनों के संरक्षण के लिये विश्व स्तर पर कई प्रयास किये जा रहे हैं। भारत ने भी वन संरक्षण के लिये कई महत्त्वपूर्ण कदम उठाए हैं। "राष्ट्रीय वन नीति" का उद्देश्य वन क्षेत्र को बढ़ाकर 33% तक करना है। इसके अलावा, "वन अधिनियम 1980" के तहत वनों की अवैध कटाई को रोकने के लिये कड़े नियम बनाए गए हैं।
वन महोत्सव, वृक्षारोपण अभियान और विभिन्न पर्यावरणीय शिक्षा कार्यक्रमों के माध्यम से जन जागरूकता बढ़ाने के प्रयास किये जा रहे हैं। इसके अलावा, संयुक्त राष्ट्र के "रेड प्लस" कार्यक्रम के तहत विकासशील देशों को वन संरक्षण के लिये वित्तीय सहायता प्रदान की जा रही है।
वनों का संरक्षण और सतत् विकास आपस में जुड़े हुए हैं। सतत् विकास का अर्थ है ऐसे विकास को अपनाना जो आने वाली पीढ़ियों की आवश्यकताओं को ध्यान में रखे बिना वर्तमान संसाधनों का उपयोग किये बिना। सतत् विकास लक्ष्यों (SDG) में "जलवायु कार्रवाई" और "पारिस्थितिक तंत्र का संरक्षण" प्रमुख रूप से शामिल हैं।
भारत ने जलवायु परिवर्तन को संबोधित करने के लिये कई पहल की हैं, जैसे "राष्ट्रीय सौर मिशन" और "स्वच्छ भारत अभियान"। ये पहलें न केवल पर्यावरण संरक्षण के लिये महत्त्वपूर्ण हैं बल्कि सतत् विकास की दिशा में भी योगदान देती हैं।
"वन सभ्यताओं से पहले आते हैं और रेगिस्तान उनके बाद आते हैं" एक गंभीर चेतावनी है, जो मानवता को प्राकृतिक संसाधनों के सतत् उपयोग की आवश्यकता इंगित करती है। इतिहास इस तथ्य का साक्षी रहा है कि जो सभ्यताएँ अपने पर्यावरण का संरक्षण नहीं करतीं, वे अंततः विनाश की ओर बढ़ती हैं।
वर्तमान संदर्भ में, जलवायु परिवर्तन, जैव विविधता की हानि और प्राकृतिक आपदाओं का बढ़ता खतरा यह दर्शाता है कि हमें अपने पर्यावरण को प्राथमिकता देनी होगी। वन संरक्षण केवल एक पर्यावरणीय आवश्यकता नहीं है, बल्कि यह मानव अस्तित्व के लिये भी अनिवार्यता है। भारत जैसे विकासशील देशों के लिये, वनों का संरक्षण, जलवायु परिवर्तन को संबोधित करने और सतत् विकास प्राप्त करने के लिये अत्यंत महत्त्वपूर्ण है।
यदि हम अपने वनों का संरक्षण नहीं करेंगे, तो वह दिन दूर नहीं जब हमारी धरती भी रेगिस्तान में बदल जाएगी। इसलिये, सतत् विकास एवं पर्यावरणीय जागरूकता के माध्यम से हमें वनों का संरक्षण करना चाहिये ताकि हमारी आने वाली पीढ़ियाँ भी इस धरती पर सुरक्षित और समृद्ध जीवन जी सकें।
Trees are the Earth’s Endless Effort to Speak to the Listening Heaven.
पृथ्वी द्वारा स्वर्ग से बोलने का अथक प्रयास हैं ये पेड़
–रबींद्रनाथ टैगोर