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निबंध

भारत में अधिकतर कृषकों के लिये कृषि जीवन-निर्वाह का एक सक्षम स्रोत नहीं रही है।

  • 07 Jun 2024
  • 14 min read

“अगर कृषि में गड़बड़ी हुई तो देश में किसी और चीज़ के सही होने का मौका नहीं मिलेगा”

- एम.एस. स्वामीनाथन

भारत, एक समृद्ध कृषि विरासत वाला देश है और इसकी अर्थव्यवस्था की नींव हमेशा से कृषि पर ही रही है। सदियों से अधिकांश आबादी अपनी आजीविका के लिये कृषि पर निर्भर रही है। हालाँकि हाल के दशकों में, कृषि ने अधिकांश भारतीय कृषकों के लिये जीविका प्रदान करने की अपनी क्षमता खो दी है। वर्ष 2004-05 और वर्ष 2011-12 के बीच राष्‍ट्रीय प्रतिदर्श सर्वेक्षण कार्यालय के आँकड़ों से पता चलता है कि लगभग 34 मिलियन कृषकों ने कृषि छोड़ दी, जो कृषि क्षेत्र से प्रस्थान की 2.04% वार्षिक दर को दर्शाता है।

भारत की कृषि प्रणाली हमेशा से ही अपने सांस्कृतिक और सामाजिक संरचना में गहराई से निहित रही है। पारंपरिक प्रथाएँ अक्सर संधारणीय और पर्यावरण के अनुकूल होती हैं तथा हज़ारों वर्षों में स्थानीय जलवायु एवं संसाधनों के अनुकूल विकसित हुई हैं। कृषक मिश्रित फसल, फसल चक्र और जैविक खादों पर निर्भर थे, जिससे मृदा की उर्वरता एवं खाद्य सुरक्षा सुनिश्चित हुई।

1960 के दशक में हरित क्रांति की शुरुआत ने एक महत्त्वपूर्ण मोड़ दिखाया। खाद्य उत्पादन बढ़ाने के लिये उच्च उपज वाली किस्म (HYV) के बीज, रासायनिक खाद और कीटनाशकों का इस्तेमाल किया गया। हालाँकि यह भारत को खाद्य-घाटे से खाद्य-अधिशेष राष्ट्र में बदलने में सफल रहा, लेकिन इसके दीर्घकालिक परिणाम हानिकारक थे। मृदा क्षरण, जल आपूर्ति में कमी तथा रासायनिक साधनों पर बढ़ती निर्भरता के परिणामस्वरूप कृषि महंगी और कम संधारणीय हो गई है।

भारतीय कृषि में भूमि जोतों का विखंडन एक गंभीर मुद्दा है। प्रत्येक पीढ़ी के साथ भूमि उत्तराधिकारियों के बीच विभाजित होती जाती है, जिसके परिणामस्वरूप छोटे-छोटे भूखंड बनते जाते हैं। ये छोटे भूखंड अक्सर आर्थिक रूप से अव्यवहारिक होते हैं, जिससे कृषक बड़े पैमाने पर अर्थव्यवस्था हासिल करने में बाधा डालते हैं। कृषि जनगणना 2015-16 के अनुसार, भारत में भूमि जोतों का औसत आकार केवल 1.08 हेक्टेयर है, जो एक परिवार की आजीविका को बनाए रखने के लिये अपर्याप्त है।

पिछले कुछ वर्षों में बीज, उर्वरक, कीटनाशक और मशीनरी जैसे कृषि इनपुट की लागत में वृद्धि हुई है। किसानों, विशेष रूप से छोटे कृषकों के लिये इन आवश्यक वस्तुओं को वहन करना कठिन होता जा रहा है। हरित क्रांति की विरासत, HYV बीजों और रासायनिक उर्वरकों पर निर्भरता ने इस मुद्दे को और बढ़ा दिया है। इसके अतिरिक्त, अक्सर ट्यूबवेल के माध्यम से निजी तौर पर वित्तपोषित सिंचाई बुनियादी अवसरंचना की आवश्यकता वित्तीय बोझ को बढ़ाती है।

भारतीय कृषकों को बाज़ारों तक पहुँचने में महत्त्वपूर्ण चुनौतियों का सामना करना पड़ता है। निष्पक्ष व्यापार को सुविधाजनक बनाने के लिये बनाई गई कृषि उपज मंडी समितियाँ (APMC) अक्सर अकुशलता के कारण इसके विपरीत कार्य करती हैं। किसानों को उनकी उपज के लिये अंतिम बाज़ार मूल्य का केवल एक छोटा-सा हिस्सा ही मिल पाता है और बिचौलिये बहुत ज़्यादा हिस्सा लेते हैं। इसके अलावा, भंडारण सुविधाओं जैसे बुनियादी अवसरंचना की कमी के कारण किसानों को अक्सर कम कीमतों पर फसल कटने के तुरंत बाद अपनी उपज बेचने के लिये मज़बूर होना पड़ता है।

जलवायु परिवर्तन का भारत में कृषि पर गहरा असर पड़ता है। अप्रत्याशित मौसम प्रारूप, अनावृष्‍टि और बाढ़ जैसी चरम घटनाओं की बढ़ती आवृत्ति तथा तापमान में उतार-चढ़ाव फसल की पैदावार को प्रतिकूल रूप से प्रभावित करते हैं। कृषक, विशेषकर वे जो वर्षा आधारित कृषि पर निर्भर हैं, विशेष रूप से असुरक्षित हैं। पूर्वानुमानित मानसून पर आधारित पारंपरिक कृषि कैलेंडर अब अविश्वसनीय है।

गहन कृषि पद्धतियों के कारण मृदा का बहुत अधिक क्षरण हुआ है। रासायनिक खादों और कीटनाशकों के अत्यधिक उपयोग से मृदा की उर्वरता कम हो गई है, जिससे पैदावार में गिरावट आई है। जल की कमी एक और गंभीर समस्या है। सिंचाई के लिये अत्यधिक दोहन के कारण भूजल स्तर में गिरावट आई है, विशेषकर पंजाब और हरियाणा जैसे राज्यों में। दूषित जल स्रोत समस्या को और बढ़ा देते हैं जिससे जल सिंचाई के लिये अनुपयुक्त हो जाता है।

भारत में कृषक महत्त्वपूर्ण सामाजिक मुद्दों से भी जूझते हैं। कई कृषक अनौपचारिक उधारदाताओं से अत्यधिक ब्याज दरों पर ऋण लेते हैं, जिससे उन पर कर्ज का बोझ बहुत बढ़ गया है। इन ऋणों को चुकाने में असमर्थता ऋण और निराशा के दुष्चक्र को जन्म देती है, जिसके परिणामस्वरूप अक्सर कृषक आत्महत्या करते हैं। राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो (NCRB) के अनुसार वर्ष 2022 में भारत में कृषि क्षेत्र में 11,290 आत्महत्याएँ हुईं, जो वर्ष 2021 में दर्ज 10,881 आत्महत्याओं से 3.75% अधिक थी।

भारत सरकार ने किसानों की सहायता के लिये कई नीतियाँ लागू की हैं, जिनमें खाद, बीज और विद्युत पर सब्सिडी के साथ-साथ कुछ फसलों के लिये न्यूनतम समर्थन मूल्य (MSP) शामिल हैं। जबकि MSP का उद्देश्य यह सुनिश्चित करना है कि कृषकों को उनकी उपज का उचित मूल्य मिले, लेकिन व्यवहार में वे कृषक समुदाय के केवल एक छोटे से हिस्से को ही लाभ पहुँचाते हैं। खरीद प्रणाली अकुशलता और भ्रष्टाचार से भरी हुई है, जिसके कारण कई कृषक इसके दायरे से बाहर हैं।

ऋण संबंधी छूट/अधित्यजन वित्तीय कठिनाइयों में फँसे किसानों की सहायता के लिये राज्य सरकारों द्वारा अपनाई जाने वाली एक अन्य आम रणनीति है। हालाँकि, ये अल्पकालिक समाधान हैं जो अंतर्निहित मुद्दों को संबोधित नहीं करते हैं। इसके अलावा बार-बार ऋण संबंधी छूट से राज्य सरकारों के वित्तीय संसाधनों पर दबाव पड़ता है और कृषकों के बीच ऋण अनुशासन हतोत्साहित होता है।

हाल ही में कृषि सुधार जैसे कि कृषक उपज व्यापार और वाणिज्य (संवर्धन और सरलीकरण) अधिनियम, 2020 और कृषक (सशक्तीकरण और संरक्षण) मूल्य आश्वासन और कृषि सेवा पर करार अधिनियम, 2020 का उद्देश्य कृषि बाज़ार को उदार बनाना है। इन सुधारों का उद्देश्य बिचौलियों को हटाना और कृषकों को अपनी उपज सीधे खरीदारों को बेचने की अनुमति देना है। हालाँकि, उन्हें कृषकों की ओर से व्यापक विरोध का सामना करना पड़ा है, जिन्हें डर है कि APMC और MSP को समाप्त करने से वे कॉर्पोरेट खरीदारों की दया पर रह जाएँगे।

फसलों के विविधीकरण से चावल और गेहूँ जैसी कुछ मुख्य फसलों पर निर्भरता कम करने में सहायता मिल सकती है, जो जल की अधिक खपत करती हैं तथा बाज़ार में उतार-चढ़ाव के प्रति संवेदनशील होती हैं। कृषकों को फलों, सब्जियों और दालों सहित विभिन्न प्रकार की फसलें उगाने के लिये प्रोत्साहित करने से उनकी आय एवं पोषण सुरक्षा बढ़ सकती है। इसके अतिरिक्त खाद्य प्रसंस्करण एवं कृषि-उद्योगों के माध्यम से मूल्य संवर्धन से राजस्व के नए स्रोत और रोज़गार के अवसर उत्पन्न हो सकते हैं।

जैविक कृषि एवं एकीकृत कीट प्रबंधन, कृषि वानिकी और संरक्षण कृषि जैसी संधारणीय प्रथाओं को बढ़ावा देने से मृदा स्वास्थ्य में सुधार लाने और रासायनिक इनपुट पर निर्भरता को कम करने में सहायता मिल सकती है। सरकारी प्रोत्साहन और प्रशिक्षण कार्यक्रम कृषकों को इन प्रथाओं को अपनाने में सहायता कर सकते हैं। सिक्किम जैसे राज्यों ने बड़े पैमाने पर जैविक कृषि को सफलतापूर्वक अपनाया है तथा इसकी व्यवहार्यता और लाभों को प्रदर्शित किया है।

तकनीकी प्रगति भारतीय कृषि को पुनर्जीवित करने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभा सकती है। GPS, रिमोट सेंसिंग और IoT जैसी तकनीकों का उपयोग करके परिशुद्ध कृषि संसाधनों के उपयोग को अनुकूलित कर सकती है तथा उत्पादकता बढ़ा सकती है। मोबाइल ऐप और डिजिटल प्लेटफॉर्म कृषकों को मौसम, बाज़ार की कीमतों और सर्वोत्तम प्रथाओं के विषय में वास्तविक समय की जानकारी प्रदान कर सकते हैं। इसके अतिरिक्त, जैव प्रौद्योगिकी के माध्यम से अनावृष्‍टि प्रतिरोधी और उच्च उपज वाली फसल किस्मों को विकसित करने से जलवायु परिवर्तन के प्रभावों को कम करने में सहायता मिल सकती है।

कृषक सहकारी समितियाँ सामूहिक सौदेबाजी की शक्ति, ऋण तक पहुँच तथा साझा संसाधनों को उपलब्ध कराकर छोटे और सीमांत कृषकों को सशक्त बना सकती हैं। अमूल डेयरी सहकारी जैसे सफल मॉडल को कृषि के अन्य क्षेत्रों में भी दोहराया जा सकता है। सहकारी समितियाँ प्रत्यक्ष विपणन की सुविधा भी प्रदान कर सकती हैं, जिससे बिचौलियों पर निर्भरता कम हो सकती है और किसानों के लिये बेहतर मूल्य सुनिश्चित हो सकते हैं।

भारतीय कृषि में संरचनात्मक मुद्दों को हल करने के लिये व्यापक नीति और संस्थागत सुधार आवश्यक हैं। APMC के निष्पक्ष एवं पारदर्शी कामकाज को सुनिश्चित करना, MSP की पहुँच का विस्तार करना और छोटी जोतों को समेकित करने के लिये भूमि सुधारों को लागू करना कृषि की आर्थिक व्यवहार्यता में सुधार कर सकता है। कृषि उत्पादकता एवं बाज़ार तक पहुँच बढ़ाने के लिये सड़कों, भंडारण सुविधाओं और सिंचाई प्रणालियों सहित ग्रामीण बुनियादी अवसरंचना को मज़बूत करना महत्त्वपूर्ण है।

अधिकांश भारतीय कृषकों के लिये जीविका के एक व्यवहार्य स्रोत के रूप में कृषि का पतन आर्थिक, सामाजिक और पर्यावरणीय आयामों वाला एक जटिल मुद्दा है। इस संकट से निपटने के लिये एक बहुआयामी दृष्टिकोण की आवश्यकता है जिसमें नीतिगत सुधार, तकनीकी नवाचार और संधारणीय कृषि पद्धतियाँ शामिल हों। कृषकों को सशक्त बनाकर, कृषि में विविधता लाकर और उचित बाज़ार पहुँच सुनिश्चित करके भारत अपने कृषि क्षेत्र को पुनर्जीवित कर सकता है तथा लाखों लोगों के लिये आजीविका के एक संधारणीय स्रोत के रूप में अपनी भूमिका को बहाल कर सकता है। आगे का मार्ग चुनौतीपूर्ण है लेकिन सरकार, निजी क्षेत्र तथा नागरिक समाज के ठोस प्रयासों से भारत के लिये एक लचीला और समृद्ध कृषि भविष्य प्राप्त किया जा सकता है।

"जय जवान, जय किसान"

-लाल बहादुर शास्त्री

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