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भारतीय राजव्यवस्था

सामूहिक अधिकार एवं व्यक्तिगत मानवाधिकार क्या आपस में असंगत हैं?

  • 07 May 2020
  • 9 min read

मानवीय गरिमा क्या है? एक खुले हुए समाज के लिये कौन से अधिकार मूलभूत हैं? राजनीतिक शक्ति की सीमाएँ क्या है? ये सभी प्रश्न बहुत महत्त्वपूर्ण हैं। प्राचीन काल से ही ये विचार मनुष्य को उद्वेलित करते रहे हैं एवं इन्हीं विचारों की शृंखलाओं ने संकल्पनाओं को जन्म दिया, जिसने मनुष्य के जीवन को बेहतर बनाया। मानवाधिकार इन्हीं संकल्पनाओं में से एक है।

जैसा कि हम जानते हैं विभिन्न संकल्पनाओं में संगतता का अभाव होता है जिसके कारण विरोधी संकल्पनाएँ जन्म लेती हैं। व्यक्तिगत मानवाधिकार एवं सामूहिक अधिकार भी ऐसी ही दो संकल्पनाएँ हैं। व्यक्ति के सर्वांगीण विकास हेतु अधिकार एक आवश्यक शर्त है। इस अधिकार का आधार बहुत विस्तृत होता है जिसमें विधिक अधिकार, मौलिक अधिकार, नागरिक अधिकार आदि शामिल हैं। मानवाधिकार भी इन्हीं संकल्पनाओं में निहित है।

अगर मानवाधिकार की बात की जाए तो ये वे अधिकार हैं जो मानव को मानव होने के कारण प्राप्त होते हैं। मनुष्य को अपने व्यक्तिगत विकास हेतु जिन अधिकारों की आवश्यकता होती है, वह मानवाधिकार कहलाते हैं। व्यक्ति के स्वयं के विकास हेतु प्रयोग किये जाने वाले अधिकार, व्यक्तिगत मानवाधिकार कहलाते हैं। वहीं समाज के सभी व्यक्तियों के मानव अधिकार की बात आती है तो यह सभी अधिकार सामूहिक अधिकार की श्रेणी में आते हैं।

द्वितीय विश्वयुद्ध की समाप्ति के बाद वर्ष 1948 में 48 देशों के समूह ने संपूर्ण मानव जाति के मूलभूत अधिकारों की व्याख्या करते हुए एक चार्टर पर हस्ताक्षर किये थे। इसमें इस मत पर सहमति व्यक्त की गई थी कि व्यक्ति के मानवाधिकारों की हर कीमत पर रक्षा की जानी चाहिये।

  • मानवाधिकार
    • काम का अधिकार एवं न्यायोचित दशा का अधिकार आदि।
    •  जीवन में स्वतंत्रता एवं सुरक्षा का अधिकार।
    •  विधि के समक्ष समता का अधिकार।
    •  सामाजिक सुरक्षा का अधिकार।
    •  विधि के समक्ष व्यक्ति माने जाने का अधिकार।
    •  संपत्ति का अधिकार।
    •  समान कार्य के लिये समान वेतन का अधिकार।
    •  बालकों के सामाजिक संरक्षण अधिकार।
    •  शिक्षा का अधिकार।
    •  एवं दास व्यापार का निषेध।

इन अधिकारों पर दृष्टिपात करते हुए यह प्रश्न सामने आता है कि क्या व्यक्तिगत मानवाधिकार एवं सामूहिक अधिकार एक-दूसरे से असंगत हैं। अगर एक दृष्टिकोण से देखें तो इसमें असंगतता के कई बिंदु नजर आते हैं जैसे-

  • व्यक्तिगत मानवाधिकार का दार्शनिक आधार स्वतंत्रता माना जाता है, जबकि सामूहिक अधिकार का आधार समानता है।
  • पहले के तहत योग्यता प्रमुख है, जबकि दूसरा समाजवादी समाज पर बल देता है।
  • प्रथम संकल्पना के अंतर्गत अति उपयोग से व्यक्ति में स्वार्थ की उत्पत्ति होती है, जबकि द्वितीय संकल्पना के अनुसार अति उपयोग से व्यक्ति के अधिकार खत्म हो जाते हैं।
  • व्यक्तिगत मानवाधिकार अंततः अपना आर्थिक आधार पूंजीवाद में खोजती है, क्योंकि पूंजीवाद व्यक्तिगत स्वतंत्रता एवं अधिकार पर विशेष बल देता है। दूसरी तरफ सामूहिक अधिकार, सभी के अधिकार की बात करता है एवं इस रूप में उसका आर्थिक आधार समाजवाद से नजदीकी को दर्शाता है। 

महान दार्शनिक रूसो के अनुसार, “समाज का निर्माण व्यक्तियों से होता है, व्यक्ति अपने कुछ अधिकार समाज को देता है ताकि समाज उस व्यक्ति के दूरगामी अधिकारों की रक्षा कर सके।”

स्पष्ट है कि व्यक्तिगत मानवाधिकार एवं सामूहिक अधिकार के मध्य भी असंगतता नहीं अपितु पूरकता है। संतुलन हमारी भारतीय संस्कृति का आधार स्तंभ है उदाहरणस्वरूप-

  • भोग एवं योग में संतुलन 
  • भौतिकता एवं आध्यात्मिकता में संतुलन आदि।

मानवाधिकारों की उद्घोषणा संबंधी उद्देशिका के अनुसार भी-

“सभी मानव, व्यक्ति स्वतंत्र उत्पन्न हुए हैं और सभी के अधिकार एवं गरिमा समान है। सभी तर्क एवं विवेक से पूर्ण हैं। अतः सभी के साथ भातृत्व का व्यवहार किया जाना चाहिये।”

यहाँ सभी से तात्पर्य समाज से है एवं व्यक्ति से आशय एक व्यक्ति से है। यह पंक्तियाँ दोनों के मध्य संतुलन को दर्शाती हैं। सर्वोच्च न्यायालय द्वारा दिए गए निर्णय में भी दोनों के बीच सुरक्षा एवं संतुलन की बात कही गई है।

केशवानंद केस के अनुसार, “व्यक्तिगत अधिकार एवं सामूहिक अधिकार एक ही सिक्के के दो पहलू हैं। दोनों में संतुलन और सामंजस्य आवश्यक है। एक के अभाव में दूसरा नष्ट तथा दूसरे के अभाव में पहला पंगु बन जाता है।” 

वस्तुतः वर्तमान में मुद्दा अधिकतम लोगों के अधिकतम सुख का है जिसके लिये कुछ अधिकार संपन्न लोगों के अधिकारों पर अंकुश लगाया जाता है ताकि समाज में सभी को लाभ मिल सके। अतः समाज के सभी वर्गों को सामूहिक मानवाधिकार देने के लिये व्यक्तिगत अधिकारों पर निर्वधन  लगाना आवश्यक है। निश्चितरूपेण व्यक्तिगत अधिकार एवं सामूहिक अधिकार में कोई असंगतता नहीं है। 

उपर्युक्त तथ्य प्रमाणित करते हैं कि व्यक्तिगत मानवाधिकार, सामूहिक अधिकार से भिन्न होने के साथ-साथ विरोधी भी हैं क्योंकि मानवाधिकार की बात होने पर व्यक्तिगत हित को सामूहिक हित के ऊपर वरीयता दी जाती है। इस स्थिति में व्यक्ति का विकास उसकी योग्यता के आधार पर होता है।

भिन्न-भिन्न योग्यताओं से युक्त होने के कारण कोई व्यक्ति आगे निकल जाता है तो कोई पीछे रह जाता है। पूंजीवादी देशों में इससे संबंधित कई उदाहरण देखने को मिलते हैं।

दूसरी तरफ सामूहिक अधिकार प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से योग्यता को हतोत्साहित करता है। ऐसा अधिकार समाज के विकास में सहायक तो होता है परंतु उस विकास की गति बहुत धीमी होती है। ऐसी प्रक्रिया में अधिक योग्य व्यक्ति अपनी प्रतिभा का पूर्ण उपयोग नहीं कर पाता जिससे कुंठा एवं अनुत्पादकता की उत्पत्ति होती है।  इस प्रक्रिया के लंबे होने से वह समाज के विकास में बाधक भी बन सकता है। इस प्रकार व्यक्तिगत मानवाधिकार एवं सामूहिक अधिकार के मध्य असंगतता प्रतीत होती है और ऐसा लगता है मानों दोनों एक-दूसरे के विकास को रोक रहे हों।

परंतु सूक्ष्म अवलोकन करने से यह ज्ञात होता है कि व्यक्तिगत हित और सामूहिक हित एक-दूसरे के विरोधी नहीं अपितु पूरक हैं। एक का विकास दूसरे के विकास में बाधक नहीं बल्कि सहयोगी है। 

अगर हम समाज की संरचना को गौर से देखें तो पाते हैं कि समाज की इकाई व्यक्ति ही है क्योंकि व्यक्ति समाज का निर्माण करते हैं। महत्त्वपूर्ण बात यह है कि व्यक्ति या समाज कोई भी अकेले अपने अधिकारों का पूर्णतः उपयोग नहीं कर सकता संतुलित समाज के सृजन हेतु दोनों में संतुलन आवश्यक है।

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