निबंध
व्यक्ति के लिये जो सर्वश्रेष्ठ है, वह आवश्यक नहीं कि समाज के लिये भी हो
- 11 Mar 2024
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एक व्यक्ति अपने साथियों के कल्याण हेतु जिस सीमा तक प्रयास करता है, वह उसी कोटि में सर्वोत्कृष्ट होता है।
—महात्मा गांधी
सामाजिक संगठन के क्षेत्र में, वैयक्तिक कल्याण और सामूहिक कल्याण के बीच अन्योन्यक्रिया प्रायः एक विवादास्पद मुद्दे के रूप में उभरती है। तथापि यह मान लेना सहज लग सकता है कि किसी व्यक्ति के लिये जो लाभकर है, उससे स्वाभाविक रूप से समाज की उन्नति होती है किंतु इस धारणा का गहन अन्वेषण करने की आवश्यकता है। वास्तव में, यह कथन कि व्यक्ति के लिये जो सर्वश्रेष्ठ है, वह समाज के लिये सदैव सर्वश्रेष्ठ नहीं हो सकता है, एक ऐसी अवधारणा है जो जटिलताओं से परिपूर्ण है।
परिचर्चा केंद्र बिंदु व्यष्टिवाद और समष्टिवाद में संघर्ष है। व्यष्टिवाद वैयक्तिक स्वतंत्रता, वरण और आत्मनिर्णय पर ज़ोर देते हुए व्यक्ति की स्वायत्तता और अधिकारों के सर्वोपरित्व पर आधारित है। जबकि समष्टिवाद में साझा लक्ष्यों, सामाजिक संसक्ति और पारस्परिक दायित्व पर ज़ोर देने के साथ लोक कल्याण को प्राथमिकता दी जाती है। तथापि दोनों विचारधाराएँ सार्थक हैं किंतु वैयक्तिक लक्ष्य और समाज की आवश्यकताओं के संदर्भगत इनमें संघर्ष की स्थिति उत्पन्न होती है।
व्यष्टिवाद/व्यक्तिवाद के पक्ष में प्राथमिक तर्कों में से एक यह है कि इससे नवाचार, उद्यमशीलता और वैयक्तिक लक्ष्यों की पूर्ति को बढ़ावा मिलता है। जब व्यक्ति अपने अभिलाषा और रुचियों की ओर उन्मुख होने के लिये स्वतंत्र होते हैं तो उनके द्वारा नव परिवर्तन लाने और सामाजिक प्रगति में योगदान देने की संभावना अधिक हो जाती है। हालाँकि वैयक्तिक हितों की ओर उन्मुख होना कुछ दशाओं में प्रतिकूल बाहरी प्रभावों का कारण बन सकते है जो पूरे समाज के लिये हानिकारक होते हैं। उदाहरणार्थ कंपनियों द्वारा असीमित मात्रा में लाभ अर्जित करने की अभिलाषा के परिणामस्वरूप पर्यावरण का क्षरण, श्रमिकों का शोषण या बाज़ार पर एकाधिकार हो सकता है, जो समग्र रूप से समाज के कल्याण को प्रभावित करते हैं।
समष्टिवाद में सामाजिक सद्भाव और संसाधनों के न्यायसंगत वितरण के महत्त्व पर ज़ोर दिया जाता है। सामाजिक कल्याण को बढ़ावा देने के उद्देश्य से बनाई गई नीतियाँ, जैसे कि सार्वभौम स्वास्थ्य सेवा, शिक्षा और सामाजिक सुरक्षा जाल, समाज के सभी सदस्यों की मूलभूत आवश्यकताओं की पूर्ति सुनिश्चित करने के लिये अभिकल्पित की गई हैं। हालाँकि, समष्टिवादी दृष्टिकोण से यदा-कदा वैयक्तिक प्रयास और सर्जनशीलता प्रभावित हो सकती है, जिससे रूद्धता और अक्षमता की स्थिति उत्पन्न होती है।
स्वास्थ्य सेवा तक पहुँच में असमानताओं से वैयक्तिक कल्याण और सामाज के स्वास्थ्य परिणामों पर गंभीर परिणाम हो सकते हैं। प्रायः कई समाजों में, उन व्यक्तियों की निवारक देखभाल, चिकित्सा उपचार और औषध सहित स्वास्थ्य सेवाओं तक बेहतर पहुँच होती है जिनकी समाज में उच्च सामाजिक-आर्थिक स्थिति होती है, जबकि हाशियाई समुदायों को बीमा का अभाव, सीमित संसाधन तथा भेदभाव जैसी बाधाओं का सामना करना पड़ता है।
किये गए शोध के अनुसार स्वास्थ्य सेवा पहुँच में असमानताओं से चिरकालिक व्याधियों में वृद्धि, असामयिक मृत्यु और सुविधावंचित व्यक्तियों के जीवन की गुणवत्ता में कमी आती है। इसके अतिरिक्त, स्वास्थ्य सेवाओं तक असमान पहुँच से स्वास्थ्य सेवा तंत्रों पर दबाव बढ़ता है, स्वास्थ्य सेवा की लागत बढ़ती है और संक्रामक रोगों एवं महामारियों की रोकथाम और नियंत्रण हेतु किये गए लोक स्वास्थ्य प्रयास प्रभावित होते हैं।
ऐसे कई उदाहरण हैं जो वैयक्तिक समृद्धि और सामाजिक कल्याण के अंतर को उजागर करते हैं। उदाहरण के लिये, आय असमानता की व्यापक समस्या, जिसमें विशेषाधिकार प्राप्त अल्पसंख्यक द्वारा धन अर्जन का निरंतर प्रयास सामाज में स्तरीकरण को तीव्र करता है और सामाजिक एकता को कमज़ोर करता है। हालाँकि इससे व्यक्ति पर्याप्त धन एकत्र करके समृद्ध हो सकता है किंतु ऐसी असमानतों से प्रायः सामाज में विसंगति बढ़ती है, उन्नतिशीलता प्रभावित होती है और समय के साथ संपोषणीय आर्थिक उन्नति बाधित होती है।
इसका एक उल्लेखनीय उदाहरण शहरी और ग्रामीण क्षेत्रों में आय की असमानता है। हाल के दशकों में भारत के तीव्र आर्थिक विकास से शहरी केंद्र असमान रूप से लाभान्वित हुए हैं, जिससे शहरी और ग्रामीण परिवेश के व्यक्तियों की आय का अंतराल बढ़ता जा रहा है। उदाहरण के लिये मुंबई और दिल्ली जैसे शहरों में संपन्न उद्योग और समृद्ध प्रतिवैस हैं, जहाँ निवास करने वाले व्यक्ति उच्च वेतन वाली नौकरी करते हैं और विलासमय जीवन निर्वाह करते हैं। इसके विपरीत ग्रामीण समुदाय को प्रायः गरीबी, स्वास्थ्य सेवा और शिक्षा जैसी बुनियादी सुविधाओं तक सीमित पहुँच और आर्थिक अवसरों की कमी का सामना करना पड़ता है। यह अंतराल न केवल असमानता को बनाए रखता है अपितु समग्र सामाजिक विकास में भी बाधा उत्पन्न करता है, क्योंकि इससे ग्रामीण क्षेत्र उपांतित और अविकसित बने रहते हैं।
इसके अतिरिक्त, लोकनीति और शासन के क्षेत्र में प्रायः हित संघर्ष की स्थिति बनी रहती है। राजनेता और नीति निर्माता व्यापक समाज की ज़रूरतों पर अपने वैयक्तिक या पार्टी हितों को प्राथमिकता दे सकते हैं, जिससे भ्रष्टाचार, स्वजन पक्षपात बढ़ सकता है और ऐसे नीतिगत निर्णय लिये जा सकते हैं जो महत्त्वपूर्ण संख्या में लोगों की उपेक्षा करते हुए कुछ विशेष व्यक्तियों के लिये लाभकर हो सकते हैं।
वैयक्तिक कल्याण और सामाजिक कल्याण के बीच का अंतर नीति निर्माताओं, नीतिशास्त्रियों और व्यापक रूप से समाज के लिये गंभीर चुनौतियाँ पेश करता है। व्यक्तियों और समाज के प्रतिस्पर्द्धी हितों को संतुलित करने के लिये आर्थिक, सामाजिक और नीतिपरक पहलुओं के जटिल तंत्र का सफल संचालन आवश्यक है। इसके अतिरिक्त, असमानता, पर्यावरण क्षरण और शासन संबंधी मुद्दों को संबोधित करने के लिये स्थानीय, राष्ट्रीय और वैश्विक स्तरों पर सामूहिक कार्रवाई और सहयोग की आवश्यकता है।
वैयक्तिक लाभ के लिये प्राकृतिक संसाधनों का दोहन पर्यावरण और भावी पीढ़ियों पर हानिकारक प्रभाव डाल सकता है। पर्यावरणीय संधारणीयता की अपेक्षा अल्पकालिक लाभ को प्राथमिकता देने वाले उद्योग प्रदूषण, वनोन्मूलन और जलवायु परिवर्तन में योगदान करते हैं, जिससे समग्र समाज का कल्याण प्रभावित होता है।
उद्योगों द्वारा पर्यावरणीय संधारणीयता के स्थान पर लाभ को प्राथमिकता देने से प्रायः प्रदूषण, वनोन्मूलन और पर्यावास का नाश होता है। हालाँकि इन गतिविधियों से व्यक्तियों या निगमों को अल्पकालिक लाभ हो सकता है किंतु इनका समग्र रूप से समाज पर दीर्घकालिक प्रभाव पड़ता है, जिसमें जलवायु परिवर्तन, जैवविविधता की हानि और लोक स्वास्थ्य जोखिम शामिल हैं।
उदाहरणार्थ जीवाश्म ईंधन के निष्कर्षण और ज्वलन से ग्रीनहाउस गैस उत्सर्जन बढ़ता है, जो ग्लोबल वार्मिंग और चरम जलवायु घटनाओं का कारण बनती हैं। इसी प्रकार, कृषि विस्तार या शहरी विकास के लिये वनों की कटाई पारिस्थितिकी तंत्र को बाधित करती है, कार्बन प्रच्छादन को कम करती है और जैवविविधता के लिये खतरा उत्पन्न करती है, जिससे अंततः ग्रह पर भावी पीढ़ियों की उत्तरजीविता क्षमता प्रभावित होती है।
इसके अतिरिक्त, वैश्वीकरण और तकनीकी प्रगति के उदय ने वैयक्तिक और सामाजिक कल्याण के बीच संबंधों को और जटिल बना दिया है। वैश्वीकरण से पारस्परिक जुड़ाव और आर्थिक विकास को बढ़ावा मिला किंतु इससे सामाज में असमानताएँ और अधिक व्याप्त हुईं और कुछ समुदायों का हाशियाकरण हुआ। इसी प्रकार, तकनीकी नवाचारों से उद्योगों और अर्थव्यवस्थाओं में परिवर्तन आया जिसमें कुछ वर्ग के लिये नए अवसर सृजित हुए जबकि अन्य वर्ग पीछे रह गए।
वैयक्तिक और सामाजिक कल्याण के बीच अंतर से उत्पन्न चुनौतियों के बावजूद, इन परस्पर विरोधी हितों को समावेशित करने के संभावित उपाय विद्यमान हैं। इसका एक उपाय नीति निर्माण के लिये अधिक समग्र और समावेशी दृष्टिकोण अपनाना है जिसमें वैयक्तिक कार्यों के दीर्घकालिक परिणामों तथा व्यापक सामाजिक प्रभावों पर विचार किया जाना शामिल है। इसमें ऐसे विनियमन और प्रोत्साहन का प्रवाधान किया जाना शामिल हो सकता है जो वैयक्तिक प्रोत्साहनों को सामाजिक लक्ष्यों के साथ जोड़ते हैं, जिसमें जलवायु परिवर्तन का समाधान करने के लिये कार्बन मूल्य निर्धारण या आय असमानता को कम करने के लिये प्रगामी कराधान जैसे उपाय शामिल हैं।
इसके अतिरिक्त, सामाजिक दायित्व और नागरिक सहभागिता की संस्कृति को बढ़ावा देने से वैयक्तिक हितों और सामाजिक कल्याण के बीच के अंतराल को कम किया जा सकता है। व्यक्तियों को अपने समुदायों में सक्रिय भूमिका निभाने, सामाजिक उद्देश्यों का समर्थन करने और जन कल्याण को बढ़ावा देने वाली नीतियों का समर्थन करने के लिये प्रोत्साहित करने से सामाजिक संसक्ति और साझा समृद्धि को बढ़ावा मिलेगा।
बंगलुरु जैसे शहरों में, जहाँ तीव्र शहरीकरण और औद्योगिकीकरण से पर्यावरण की अत्यधिक क्षति हुई है, सामुदायिक समूहों और गैर-लाभकारी संगठनों ने संधारणीयता और पर्यावरण संरक्षण को बढ़ावा देने के लिये सक्रिय कदम उठाए हैं। स्थानीय अधिकारियों पर पर्यावरण के अनुकूल नीतियों और प्रथाओं को क्रियान्वित करने के लिये दबाव बनाने के लिये सभी निवासी वृक्षारोपण अभियान, सफाई अभियान और जन कल्याण प्रयासों को संगठित करने के लिये एकजुट हुए।
उदाहरणार्थ, "द अग्ली इंडियन" बंगलुरु का एक सक्रिय आंदोलन है, जिसमें स्वयंसेवक गुमनाम रूप से उपेक्षित सार्वजनिक स्थानों को बदलने के लिये सफाई अभियान आयोजित करते हैं। नागरिकों को अपने आस-पास के वातावरण को बेहतर बनाने के लिये व्यावहारिक गतिविधियों में शामिल करके, यह पहल न केवल तत्काल पर्यावरणीय मुद्दों को संबोधित करती है अपितु सामूहिक दायित्व और नागरिक गर्व की भावना को भी बढ़ावा देती है।
इस प्रकार की पहल से न केवल पर्यावरण संरक्षण में योगदान मिलता है अपितु उद्देश्य और सामुदायिक स्वामित्व की साझा भावना को बढ़ावा देने के साथ सामाजिक संसक्ति भी सुदृढ़ होती है। व्यक्तियों को पर्यावरण को आकार देने और जन कल्याण का समर्थन करने में सक्रिय भूमिका निभाने के लिये सशक्त बनाकर, ये प्रयास दर्शाते हैं कि किस प्रकार ज़मीनी स्तर के आंदोलन सकारात्मक बदलाव ला सकते हैं और सामाजिक कल्याण को बढ़ावा दे सकते हैं।
शिक्षा वैयक्तिक और सामाजिक कल्याण के बीच अन्योन्याश्रितता की बेहतर समझ को बढ़ावा देने में भी अहम भूमिका निभाती है। समानुभूति, सहयोग और नैतिक निर्णय लेने के मूल्यों को आत्मसात करके, शिक्षा व्यक्तियों को ऐसे विकल्प का चयन करने के लिये सशक्त बना सकती है जो न केवल उनके बल्कि व्यापक समाज के लिये भी लाभकारी हों। भारत भर में कई स्कूल छात्रों के सामाजिक और भावनात्मक कौशल को बढ़ावा देने के उद्देश्य से सामाजिक और भावनात्मक शिक्षा (SEL) कार्यक्रम लागू कर रहे हैं। ये कार्यक्रम छात्रों को समानुभूति, परिप्रेक्ष्य निर्धारण, संघर्ष समाधान और ज़िम्मेदार निर्णय लेने का ज्ञान प्रदान करते हैं। उदाहरण के लिये, दिल्ली सरकार के स्कूलों में शुरू किये गए "हैप्पीनेस करिकुलम" में छात्रों की भावनात्मक कल्याण और सहानुभूति को बढ़ावा देने के लिये डिज़ाइन की गई गतिविधियाँ और पाठ शामिल हैं। पाठ्यक्रम में SEL को शामिल करके, छात्र दूसरों पर अपने कार्यों के प्रभाव पर विचार करना सीखते हैं और अपने समुदाय के प्रति ज़िम्मेदारी की भावना विकसित करते हैं।
शैक्षिक संस्थान अक्सर छात्रों को सेवा-शिक्षण परियोजनाओं में शामिल करते हैं जिसमें स्वयंसेवा और सामुदायिक सेवा शामिल होती है। ये परियोजनाएँ छात्रों को नागरिक जुड़ाव और सामाजिक उत्तरदायित्व की भावना को बढ़ावा देते हुए वास्तविक जगत के मुद्दों का समाधान करने में शैक्षणिक ज्ञान का उपयोग करने के अवसर प्रदान करती हैं। उदाहरण के लिये, कुछ स्कूल सामाजिक मुद्दों पर सामुदायिक जागरूकता अभियान या धर्मार्थ उद्देश्यों के लिये धन जुटाने के आयोजनों को आयोजित करने के लिये सहयोग करते हैं। इन अनुभवों के माध्यम से, छात्र दूसरों के कल्याण में योगदान देने के महत्त्व के बारे में सीखते हैं और सकारात्मक सामाजिक परिवर्तन लाने में अपनी भूमिका को पहचानते हैं।
वैयक्तिक कल्याण और सामाजिक कल्याण का संबंध एक जटिल और बहुआयामी मुद्दा है जिसके लिये सावधानीपूर्वक विचारण और सूक्ष्म दृष्टिकोण की आवश्यकता होती है। हालाँकि व्यष्टिवाद और समष्टिवाद प्रतिस्पर्द्धी विचारधाराएँ प्रदान करते हैं किंतु व्यापक सामाजिक निहितार्थों पर विचार किये बिना दोनों को पृथक रूप नहीं अपनाया जा सकता है। वैयक्तिक और सामाजिक कल्याण की परस्पर निर्भरता की पहचान कर और साझा समृद्धि और सामाजिक संसक्ति को बढ़ावा देने वाली नीतियों एवं प्रथाओं को अपनाकर, हम सभी के लिये अधिक न्यायसंगत और सतत् भविष्य की दिशा में प्रयास कर सकते हैं।