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प्रश्न :
समावेशी विकास को परिभाषित कीजिये। यह कहना कहाँ तक तर्कसंगत है कि भारत में विकास समावेशी नहीं है। विकास के समावेशी न होने क्या प्रभाव होते हैं? स्पष्ट करें।
18 Jul, 2017 सामान्य अध्ययन पेपर 3 अर्थव्यवस्थाउत्तर :
जब विकास की प्रक्रिया में अर्थव्यवस्था के सभी क्षेत्र (प्राथमिक, द्वितीयक एवं तृतीयक), देश के सभी अंचल (भौगोलिक क्षेत्र) एवं समाज के सभी वर्ग (अमीर तथा गरीब, ग्रामीण तथा शहरी पुरुष-महिला, सभी जातियाँ एवं संप्रदाय) शामिल हों, तो ऐसा विकास समावेशी विकास कहलाता है।
भारत में विकास समावेशी है अथवा नहीं, इसे निम्नलिखित तथ्यों के आधार पर समझा जा सकता है-
- भारत में शहरी क्षेत्रों में शीर्ष (top) 10 प्रतिशत लोगों की ‘मासिक प्रतिव्यक्ति खर्च (MPCE)’ निम्न (bottom) 10 प्रतिशत लोगों के मासिक प्रतिव्यक्ति खर्च से 10 गुना से भी अधिक है। इसी प्रकार ग्रामीण क्षेत्रों में भी यह आंँकड़ा 5 गुना से अधिक है। साथ-ही-साथ, यह आंँकड़ा प्रतिवर्ष बढ़ता ही जा रहा है।
- भारत के शीर्ष 20 प्रतिशत लोगों की आय निम्नतम 20 प्रतिशत लोगों की आय से लगभग 10 गुना से अधिक है।
- भातर की शीर्ष 1 प्रतिशत जनसंख्या के पास भारत की कुल संपत्ति का लगभग 53% है तथा शीर्ष 10% जनसंख्या के पास भारत की कुल संपत्ति का लगभग 76 प्रतिशत है।
- भारत में कृषि क्षेत्र में लगभग 50 प्रतिशत जनसंख्या संलग्न है सेवा क्षेत्र का GDP में योगदान लगभग 55% है।
उपर्युक्त आंँकड़ों से स्पष्ट होता है कि भारत में क्षेत्रीय एवं वर्गीय स्तर पर भारी विषमताएँ व्याप्त हैं। अतः यह कहा जा सकता है कि भारत में विकास की प्रक्रिया समावेशी नहीं है।
किसी भी देश के आर्थिक-सामाजिक विकास के लिये समावेशी विकास वांछनीय होता है। समावेशी विकास के अभाव में निम्नलिखित प्रभाव देखने को मिलते हैं-
- यदि विकास समावेशी नहीं होता है तो यह संधारणीय नहीं बन पाता है एवं धीरे-धीरे अर्थव्यवस्था का पतन होने लगता है।
- आय के असंतुलित वितरण से धन का संकेंद्रण कुछ लोगों के पास हो जाएगा, परिणामस्वरूप मांग में कमी आएगी जो GDP की वृद्धि दर को कम कर देगी।
- गैर-समावेशी विकास से विभिन्न भागों में विषमता में वृद्धि होती है जिससे वंचित वर्ग विकास की मुख्यधारा में नहीं आ पाते हैं।
- समावेशी विकास का अभाव समाज के कुछ वर्गों एवं देश के भौगोलिक क्षेत्रों में असंतोष उत्पन्न करता है जिसके परिणामस्वरूप सांप्रदायिकता, क्षेत्रवाद जैसी विघटनकारी प्रवृत्तियों का जन्म होता है।
इस प्रकार समावेशी विकास न केवल आर्थिक आवश्यकता है बल्कि समाजिक एवं नैतिक अनिवार्यता भी। समावेशी विकास के अभाव में कोई भी देश लंबे समय तक अपना विकास नहीं कर पाता।
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