आधुनिक अर्थव्यवस्था में कुटीर उद्योगों की क्या प्रासंगिकता है? भारत में कुटीर उद्योग किस प्रकार की समस्याओं का सामना करते हैं? उनके समाधान के लिये उपाय सुझाएँ।
उत्तर :
उत्तर की रूपरेखा
- कुटीर उद्योग को संक्षेप में परिभाषित करें।
- इनका महत्त्व, विशेषताएँ, प्रासंगिकता पर बिन्दुवार चर्चा करें।
- कुटीर उद्योगों के समक्ष आने वाली समस्याओं का बिन्दुवार उल्लेख करें।
- समाधान के बिंदु लिखें।
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भारत में कुटीर उद्योग विशेषतः परिवार के सदस्यों द्वारा ही संचालित होते हैं। इसमें सीमित मात्रा में श्रम और पूंजी की आवश्यकता होती है। चमड़े के उत्पाद, ईंट-भट्टी का काम,कागज़ के थैले, बाँस की टोकरियाँ का निर्माण आदि कुटीर उद्योग के उदाहरण हैं। परंपरागत पेशे जैसे- बढ़ई, लोहार आदि का काम भी इसी श्रेणी में आते हैं। गुड़, अचार, पापड़, जैम एवं मसाले आदि खाद्य वस्तुएँ भी इस उद्योग के उत्पाद हैं।
कुटीर उद्योग का महत्त्व एवं विशेषताएँ
- कुटीर उद्योगों में इस्तेमाल होने वाला अधिकतर कच्चा माल कृषि क्षेत्र से आता है अतः किसानों के लिये अतिरिक्त आय की व्यवस्था कर यह भारत की कृषि-अर्थव्यवस्था को बल प्रदान करता है।
- इनमें कम पूंजी लगाकर अधिक उत्पादन किया जा सकता है और बड़ी मात्रा में अकुशल बेरोज़गारों को रोज़गार मुहैया कराया जा सकता है।
- कुटीर उद्योग आर्थिक गतिविधियों के विकेंद्रीकरण के माध्यम से आय और संपत्ति तथा क्षेत्रीय असमानता एवं असंतुलन को भी कम करने में सहायक होते हैं। इनकी उत्पादन प्रक्रिया से पर्यावरण को भी कम नुकसान होता है।
- ये उद्योग कृषि क्षेत्र में संलग्न अतिरिक्त कार्यबल को वास्तविक उत्पादक प्रक्रियाओं से जुड़ने का अवसर देते हैं और कृषि क्षेत्र में अनावश्यक दबाव को कम करते हैं।
- ये उद्योग औपचारिक कौशल से वंचित लोगों की उद्यमशीलता का विकास करने में भी महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं।
- कुटीर उद्योग के कुछ उत्पाद विभिन्न समुदायों की संस्कृति और कला से भी जुड़े होते हैं जैसे – बस्तर का काष्ठ शिल्प। ऐसे उत्पादों को बाज़ार उपलब्ध करवाना इनकी कला-संस्कृति के संरक्षण का महत्त्वपूर्ण प्रयास कहलाएगा।
कुटीर उद्योगों के समक्ष आने वाली समस्याएँ-
- कृषि भूमि के घटते आकार और अन्य विभिन्न कारणों से इन उद्योगों को कच्चे माल की कमी से जूझना पड़ता है।
- ज़्यादातर कुटीर उद्योग ग्रामीण या कस्बाई इलाकों में हैं, अतःइन उद्योगों को संचालित करने के लिये संस्थागत ऋण की कमी एक प्रमुख समस्या है।
- इन उद्योगों को अपने उत्पादों के लिये उचित बाज़ार नहीं मिल पाने से इनका उत्पादन स्वतः ही हतोत्साहित हो जाता है।
- आधुनिक मांग के अनुरूप इन उद्योगों में भी थोड़ा मशीनीकरण हो चुका है। मशीनों पर काम करने के लिये आवश्यक कौशल की कमी के चलते इनका विकास बाधित हो रहा है।
संभावित समाधान –
- आधुनिक मांग के अनुसार नई डिज़ाइन एवं उत्तम वस्तुओं के उत्पादन के लिये कुटीर उद्योगों के आधुनिकीकरण की ज़रूरत है।
- सीमित साधन होने के कारण कुटीर उद्योग अपने उत्पादों का विज्ञापन नहीं कर पाते, इसलिये इनके राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर विक्रय को सरल बनाने के लिये सरकार और अन्य संगठनों को प्रयास करने की ज़रूरत है।
- दीनदयाल उपाध्याय ग्रामीण कौशल विकास योजना की तरह कुटीर उद्योगों की ज़रूरत के हिसाब से कौशल विकास हेतु अन्य योजनाएँ शुरू की जानी चाहिये।
- विशिष्ट उत्पादों को भौगोलिक संकेतक (GI tag) प्रदान कर उन्हें संरक्षित किये जाने की आवश्यकता है।
- वित्तीय सहायता के लिये मुद्रा और स्टार्ट-अप योजनाओं जैसे अन्य प्रयासों से संस्थागत ऋण की उपलब्धता सुनिश्चित की जानी चाहिये।
- कुटीर उद्योगों में सूचना-तकनीकी का प्रसार होना भी ज़रूरी है। इंटरनेट पर उपलब्ध मुफ्त ट्युटोरियल्स के माध्यम से कामगारों को नई निर्माण विधियाँ सीखने का अवसर मिलेगा।
भारत की अर्थव्यवस्था और सामाजिक ढाँचे के लिये कुटीर उद्योगों का महत्त्व, लघु और वृहत् उद्योगों जितना ही है। ग्रामीण क्षेत्रों में स्थित सफल कुटीर उद्योग ग्रामीण युवाओं के शहरों की ओर पलायन को रोकते हैं। एक ओर ये घरेलू और स्थानीय स्तर पर उपलब्ध साधनों का इस्तेमाल करते हैं, वहीं दूसरी ओर ये अपेक्षाकृत कम प्रदूषण फैलाते हैं। अल्पावधि के लिये दिये जाने वाले छोटे-छोटे ऋणों की व्यवस्था से ही ग्रामों में स्वरोज़गार पैदा किया जा सकता है। स्पष्ट है कि कुटीर उद्योगों के विकास से ही गांधी जी के “गाँव में बसने वाले भारत” का विकास हो पाएगा।