क्या आप ऐसा मानते हैं कि महिलाओं के खिलाफ भेदभाव इतना व्यापक है कि कभी-कभी विधायिका स्वयं के द्वारा बनाई गई विधि के अवलोकन पर अपने को मौन पाती है? उक्त कथन के संदर्भ में दिल्ली उच्च न्यायालय द्वारा हिन्दू उत्तराधिकार के संबंध में दिया गया निर्णय, क्या ‘परिवार’ में महिलाओं की स्थिति को बेहतर करता है? समीक्षा करें।
15 Sep, 2018 सामान्य अध्ययन पेपर 2 सामाजिक न्याय
उत्तर की रूपरेखा:
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महिलाओं के खिलाफ भेदभाव को समाप्त करने के लिये विधायिका ने समय-समय पर अनेक कानूनों का निर्माण किया जिसके अंतर्गत हिंदू उत्तराधिकार अधिनियम, घरेलू हिंसा (सुरक्षा) अधिनियम, कार्य स्थल पर उत्पीड़न से सुरक्षा अधिनियम प्रमुख हैं- इसने महिलाओं को भेदभाव से सुरक्षा के व्यापक अधिकार प्रदान किये हैं। परंतु हाल के दिल्ली उच्च न्यायालय के हिंदू उत्तराधिकार के संदर्भ में आए निर्णय में देखा गया है कि हिंदू महिला को संपत्ति में अधिकार तो प्रदान किया गया किंतु उसके संपत्ति के प्रबंधन के अधिकार को सुनिश्चित करने में असमर्थ रहा, जिस पर विधायिका अभी तक मौन है।
वर्तमान समय में जब भारतीय महिलाएँ सार्वजनिक और निजी जीवन में गरिमा और सुरक्षा के लिये अपने अधिकारों के लिये लड़ रही हैं, दिल्ली उच्च न्यायालय ने एक ऐतिहासिक फैसला दिया है जिससे अविभाजित हिंदू परिवार की ज्येष्ठ महिला सदस्य, परिवार की मुखिया हो सकती है।
हिंदू रीति-रिवाजों और प्राचीन ग्रंथो के अनुसार एक अद्वितीय स्थिति के साथ, एक ‘कर्त्ता’ अन्य सदस्यों की तुलना में उच्च स्थिति और पविार से जुड़े संपूर्ण निर्णय लेने का अधिकार रखता है। परंपरागत रूप से इस भूमिका में पुरुष होता है।
कर्त्ता बनने का कानून सूक्ष्म रूप में संपत्ति के उत्तराधिकार के नियमों से जुड़ा है। परंपरागत रूप से, संपत्ति के उत्तराधिकार संबंधी हिंदू काननू, जो धर्मशास्त्रों के आधार पर निर्मित है, पैतृक संपत्ति के लिये केवल पुरुष उत्तराधिकारी को मान्यता देता हैं। परिवार की महिला सदस्यों को इस अधिकार से वंचित कर दिया गया। उत्तराधिकार व संपत्ति संबंधी व्यापक अधिकार ने पुरुष को परिवार का कर्त्ता बना दिया।
यह आयोग्यता, हालाँकि हिंदू उत्तराधिकार अधिनियम में 2005 के एक संशोधन द्वारा समाप्त कर दिया गया है और इस संशोधन के माध्यम से धारा-6 में परिवर्तन किया गया। इसके माध्यम से पविार की महिला सदस्य को पुरुष के समान संपत्ति में अधिकार दिया गया। 2005 मे हुए संशोधन का जिक्र करते हुए दिल्ली उच्च न्यायालय ने कहा, जब यह कानून महिलाओं को अविभाजित हिंदू परिवार की संपत्ति में समान अधिकार देता है तो फिर उन्हें प्रबंधन में अधिकार क्यों नहीं है?
न्यायालय ने कहा कि 2005 का संशोधन महिलाओं के ‘कर्त्ता’ बनने पर किसी प्रकार का प्रतिबंध नहीं लगाता है। इस प्रकार, संशोधन के तार्किक निष्कर्ष ने संपत्ति के अधिकार को और विस्तारित कर दिया।
कर्त्ता का अधिकार एक महिला को न केवल लैंगिक भेदभाव से सुरक्षा प्रदान करेगा, बल्कि संविधान द्वारा प्रदत्त समानता और उत्पीड़न से सुरक्षा के मौलिक अधिकार को भी मज़बूती प्रदान करेगा। यह राज्य और समाज को महिलाओं के लिये सामाजिक न्याय सुनिश्चित करने के लिये उत्तरदायी बनाएगा। भारतीय समाज में वर्तमान में व्याप्त सामाजिक परिवर्तन की हलचल, जहाँ महिलाएँ शारीरिक और भावनात्मक गरिमा, समाजिक न्याय, सांस्कृतिक भागीदारी तथा लैंगिक समानता को लेकर अधिक जागरूक हुई हैं, दिल्ली उच्च न्यायालय का निर्णय महिलाओं को अपने अधिकारों के लिये और अधिक मुखर बनाएगा।