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मेन्स प्रैक्टिस प्रश्न

  • प्रश्न :

    जलवायु परिवर्तन ने भारतीय मानसून को परिवर्तित कर दिया है फलतः यहाँ की भूमि, प्रजातियाँ तथा जनसंख्या प्रभावित हुई है। परीक्षण कीजिये।

    04 Apr, 2018 सामान्य अध्ययन पेपर 3 पर्यावरण

    उत्तर :

    उत्तर की रूपरेखा:

    • भारत में मानसून के महत्त्व को रेखांकित करें।
    • जलवायु परिवर्तन का भारतीय मानसून तथा जल चक्र के ऊपर पड़ने वाले प्रभावों को लिखें। 
    • भारत में भूमि, प्रजातियों तथा मनुष्य  के ऊपर जलवायु परिवर्तन के पड़ने वाले प्रभावों को बताएँ।
    • निष्कर्ष में इन प्रभावों के न्यूनीकरण के लिये उठाए जा सकने वाले कदमों का उल्लेख करें।

    भारतीय अर्थव्यवस्था मुख्यतः मनुष्य की इच्छाशक्ति की बजाय प्रकृति के रहमो-करम पर ज़्यादा निर्भर करती है। कृषि भारतीय अर्थव्यवस्था की रीढ़ है। फसलोत्पादन तथा कृषि पद्धति का निर्धारण आमतौर पर वर्षा की मात्रा करती है। सकल घरेलू उत्पाद में वृद्धि, खाद्य मूल्य, उपभोक्ता व्यय तथा ब्याज दर इत्यादि ऐसे क्षेत्र हैं जो कि मानसूनी वर्षा से प्रभावित होते हैं। आज भी शस्य क्षेत्र के 40 प्रतिशत भाग में वर्षा को छोड़कर सिंचाई का कोई अन्य साधन नहीं है। मानसून जलस्रोतों को भी जल की पुनःपूर्ति करता है, जो कि पेयजल, ऊर्जा तथा सिंचाई के दृष्टिकोण से महत्त्वपूर्ण हैं।

    परंतु हाल में जलवायु परिवर्तन ने भारतीय मानसून तथा जल चक्र को बेहद प्रभावित किया है और भूमि, प्रजातियों एवं मनुष्य वर्ग के ऊपर इसके स्थायी परिणाम दिखाई देते हैं। 

    जलवायु परिवर्तन पर्यावरण को प्रभावित करने वाले मुद्दों में से सबसे अधिक चर्चित है। यद्यपि इसके पर्याप्त ऐतिहासिक साक्ष्य मौजूद हैं कि जलवायु परिवर्तन एक प्राकृतिक घटना है परंतु कई शोधकर्त्ता तथा वैज्ञानिक इसके लिये मानवीय कारणों को जिम्मेदार ठहराते हैं। 

    भारतीय मानसून के ऊपर जलवायु का प्रभावः

    • वर्षा की परिवर्तनशीलता।
    • चक्रवात के स्वरूप में परिवर्तनशीलता। 
    • ग्लोबल वार्मिंग तथा मानसून के दौरान मौसम वायुमंडलीय अनिश्चितता को दर्शाता है। 
    • तापमान में वृद्धि के साथ वायु के जलवाष्प धारण करने की क्षमता में वृद्धि होगी, जिससे बारिश भी कम होगी। 
    • मानसून के आगमन, विराम तथा वापसी की घटनाओं में परिवर्तन होगा। 
    • वार्षिक तथा मौसमी माध्य तापमान में वृद्धि दर्ज की गई है। 
    • भारतीय ग्रीष्म ऋतु में भी नित्य परिवर्तन देखने को मिलता है। 

    भारत की भूमि, प्रजाति तथा मनुष्य वर्ग पर इसके निम्नलिखित प्रभाव हैं:

    • भारत में आबादी का एक बड़ा भाग कृषि, वानिकी तथा मत्स्योद्योग पर निर्भर है तथा इन क्षेत्रों में भूमि उपयोग व्यापक रूप से जल आधारित पारिस्थितिकी तंत्र से प्रभावित होता है जो कि मानसून वृष्टि के ऊपर निर्भर करता है। 
    • जल चक्र में परिवर्तन जलजनित बीमारियों, जैसे कि हैजा तथा हेपेटाइटिस के साथ-साथ कीटों द्वारा वाहित बीमारियों यथा- मलेरिया तथा डेंगू इत्यादि के मामलों में वृद्धि होगी। 
    • अस्थिर मानसून बिजली की मांग में वृद्धि करेगा तथा विभिन्न क्षेत्रों में बिजली की कटौती होगी। 
    • देश के विभिन्न भागों में जानलेवा सूखा तथा लू चलने जैसी घटनाओं में वृद्धि दर्ज की गई है। 
    • प्रलयकारी घटनाओं, यथा- मुंबई की 2005 की बाढ़ जैसी घटनाओं में वृद्धि होगी। 
    • जलवायु परिवर्तन तथा वर्षा की परिवर्तनशीलता में वैश्विक तथा क्षेत्रीय विसंगतियाँ देखने को मिलती हैं। 
    • जान-माल की व्यापक क्षति, पर्यावरण तथा खेतों के नष्ट होने से खाद्य असुरक्षा की स्थिति भी पैदा होगी। 
    • वनस्पति के स्वरूप में परिवर्तनः आक्रामक प्रजातियाँ भू-पटल पर कब्जा कर लेती हैं जिससे पोषक घासों एवं वनस्पति की क्षति होती है। 
    • जलवायु परिवर्तन के कारण वनों में पशुओं के लिये पर्याप्त भोजन उपलब्ध नहीं होगा तथा वे भोजन की तलाश में मानव बस्तियों की ओर आएंगे जिससे मानव-पशु संघर्ष में वृद्धि होगी। 
    • दावानल की घटनाओं में वृद्धि होगी। 
    • वनस्पति प्रजातियों के लिये कार्बन स्थिरीकरण के अलग-अलग मार्ग होते हैं, कुछ के लिये की अधिक मात्र नुकसानदेह है। 
    • पर्यावरण रिपोर्ट के अनुसार, प्रजातियाँ अपेक्षाकृत तेज गति से विलुप्त हो रही हैं। 
    • किसानों द्वारा आत्महत्या किये जाने के मामलों में वृद्धि देखी जा रही है। 

    जलवायु परिवर्तन एक अपरिहार्य घटना है तथा इसे रोका नहीं जा सकता। हालाँकि हाल की घटनाएँ सीधे तौर पर मानवीय गतिविधियों से जुड़ी हुई हैं, जैसे कि जीवाश्म ईंधन का दहन, हरितगृह गैसों का अत्यधिक उत्सर्जन तथा नगरीकरण। 

    इसके लिये एक कंप्यूटर आधारित मॉडल की आवश्यकता है जिसके द्वारा वैज्ञानिक विभिन्न जलवायु परिदृश्यों तथा वैकल्पिक जल एवं भूमि प्रबंधन रणनीतियों की तुलना कर पाएँगे। मानसून के प्रभावों को नियंत्रित करने के लिये इसके बदलाव को समझना होगा और इस बदलाव की प्रवृत्ति का पूर्वानुमान लगाना आवश्यक है ताकि इससे उत्पन्न विसंगतियों को दूर किया जा सके। इस प्रकार व्यक्तियों, जान-माल, पारिस्थितिकी एवं खेती तथा दीर्घकालिक रूप से खाद्य सुरक्षा के ऊपर पड़ने वाले इसके प्रभावों को कम किया जा सकेगा।

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