पेरिस समझौते की महत्ता लिखिये तथा अमेरिका के इससे अलग हो जाने के बाद विकासशील देशों पर इसका क्या प्रभाव होगा?
28 Apr, 2018 सामान्य अध्ययन पेपर 3 पर्यावरण
उत्तर की रूपरेखा:
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जलवायु परिवर्तन के लिये पेरिस समझौता पृथ्वी के पर्यावरण संरक्षण के क्षेत्र में मील का पत्थर है तथा यह महत्त्वाकांक्षा और कार्य के लिये एक आधार प्रदान करता है। यह विश्वभर के करोड़ों लोगों के लंबे संघर्ष का परिणाम है, साथ ही वैज्ञानिक साक्ष्य, जो कि अधिक कठोर मौसमी घटनाओं, जैसे- चक्रवात, सूखा तथा हरितगृह गैसों के उत्सर्जन इत्यादि की अधिक बारंबारता की पुष्टि करता है।
पेरिस समझौते का महत्त्व:
पेरिस समझौते के ऊपर कई वर्षों से कार्य चल रहा था, जब 2009 जलवायु परिवर्तन पर वार्ता असफल रही थी तो देशों ने बेहतर प्रस्ताव के लिये वचन दिया था। पिछली असफलताओं को ध्यान में रखते हुए एक ऐसा दृष्टिकोण विकसित किया गया जिसमें प्रत्येक राष्ट्र अपने लिये स्वयं लक्ष्य का निर्धारण करता है जिस कारण इस समझौते पर सभी सहमत हुए। इस समझौते के अंतर्गत देशों को अपने लक्ष्य स्वयं निर्धारित करने तथा इसमें लगातार वृद्धि करने को कहा गया है।
इस समझौते के अनुसार, 21वीं सदी के औसत तापमान में औद्योगीकरण के पूर्व के वैश्विक तापमान के स्तर की तुलना में, 2°C से अधिक की वृद्धि नहीं होने दी जाएगी। इसके साथ ही सदस्यों द्वारा यह प्रयास किया जाएगा कि वैश्विक औसत तापमान में वृद्धि को 1.5 °C तक सीमित रखा जाए।
इसके हस्ताक्षरकर्त्ता देश स्वयं निर्णय लेंगे कि उन्हें किस प्रकार अपना उत्सर्जन कम करना है, इसके पहले के समझौतों में सभी देशों को एकसमान उपाय करने होते थे।
पेरिस समझौते के कुछ प्रावधान बाध्यकारी हैं, जबकि कुछ नहीं। कुछ प्रावधान, जैसे कि उत्सर्जन की कमी के लिये प्रगति रिपोर्ट जारी करना बाध्यकारी है, जबकि उत्सर्जन में कमी का लक्ष्य निर्धारण गैर-बाध्यकारी प्रावधान है।
पेरिस समझौते ने प्रकृति की शक्ति, विशेषकर जलवायु परिवर्तन के प्रभाव को कम करने के लिये वनों की महत्ता को रेखांकित किया है।
इसने प्रकृति में निवेश को जलवायु परिवर्तन की समस्या से निपटने के लिये एक बेहतर मार्ग माना है।
इस समझौते से अमेरिका का पीछे हटना निस्संदेह पेरिस समझौते के अंतर्गत निर्धारित लक्ष्य को प्राप्त करने में बाधा उत्पन्न करेगा। अमेरिका कार्बन के वैश्विक उत्सर्जन में 15% का योगदान करता है, परंतु यह विकासशील देशों को तापमान में वृद्धि के विरुद्ध प्रयास में धन तथा प्रौद्योगिकी भी प्रदान कर रहा था तथा उसके पीछे हटने का परिणाम कूटनीतिक प्रयासों के ऊपर पड़ सकता है।
जबकि विकासशील देश अब भी प्राथमिक ऊर्जा के रूप में कोयले का उपयोग करते रहेंगे तो वायु की गुणवत्ता के ऊपर प्रभाव तथा लोगों में प्रदूषण के प्रति रोष इसके सीमित कारक हो सकते हैं।
उभरती अर्थव्यवस्थाओं में नवीकरणीय ऊर्जा के गिरते मूल्य इन्हें हरित संसाधनों को अपनाने के लिये प्रोत्साहित करेगा। परंतु पेरिस समझौते से हटने के बाद अमेरिका यू-एन- ग्रीन क्लाइमेट फंड में योगदान करने से मना कर सकता है जो कि गरीब और विकासशील देशों में अनुकूलन के उपायों के प्रति समर्पित है। जलवायु परिवर्तन का प्रभाव सबसे अधिक गरीब राष्ट्रों पर पड़ता है, जो कि मुख्यतः कृषि पर निर्भर हैं। अमेरिका का समझौते से पीछे हटना विकासशील देशों की भावी नीतियों तथा उनके विकास परियोजनाओं को भी प्रभावित करेगा।
निष्कर्षः यद्यपि अमेरिका जलवायु परिवर्तन के कार्यक्रमों का सबसे बड़ा वित्तपोषक है तथा विकासशील देशों को समझौते में शामिल कराने में उसकी भूमिका अहम रही है, परंतु इसका समझौते से पीछे हटना इन प्रयासों को बहुत अधिक प्रभावित नहीं करेगा क्योंकि शेष विश्व जलवायु परिवर्तन के प्रति एकजुट है और ऊर्जा के हरित साधनों को अपना रहा है। अमेरिका के समझौते से हटने के बाद भी इसके 1200 विश्वविद्यालयों, कॉलेजों, निवेशकों, व्यवसायियों, मेयरों तथा गवर्नरों ने समझौते के प्रति अपना समर्थन व्यक्त किया है।