- फ़िल्टर करें :
- अर्थव्यवस्था
- विज्ञान-प्रौद्योगिकी
- पर्यावरण
- आंतरिक सुरक्षा
- आपदा प्रबंधन
-
प्रश्न :
स्वतंत्रता के बाद से वर्तमान समय तक भूमि सुधार कार्यक्रम राष्ट्रीय स्तर पर गंभीर चिंता का विषय बना हुआ है। इसके पीछे निहित कारणों को बताते हुए, इस समस्या के समाधान हेतु अपने सुझाव दीजिये।
12 May, 2018 सामान्य अध्ययन पेपर 3 अर्थव्यवस्थाउत्तर :
उत्तर की रूपरेखा:
- भूमि सुधार कार्यक्रम की पृष्ठभूमि।
- भूमि सुधार कार्यक्रम का लागू न हो पाने के कारण।
- बेहतर भूमि सुधार व्यवस्था लागू होने के लिये आवश्यक तत्त्व।
- निष्कर्ष।
किसी भी देश में कृषिगत सुधार और कृषि के विकास के लिये व्यापक भूमि सुधार एक आवश्यक तत्त्व है तथा कृषि क्षेत्र में सुधार ही उस देश में औद्योगिक विकास का आधार बनते हैं।
स्वतंत्रता के बाद से ही भूमि सुधार राष्ट्रीय स्तर पर चिंता का विषय बना हुआ है। स्वतंत्रता प्राप्ति के दौरान भारतीय अर्थव्यवस्था कृषि पर आधारित थी, जिसमें व्यापक असमानता व्याप्त थी। भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस ने 1935 में इस बात की घोषणा की थी कि स्वतंत्रता प्राप्ति के तुरंत बाद भूमि सुधार लागू किये जाएंगे। भारत में
भूमि सुधार कार्यक्रम का सही ढंग से लागू न हो पाने का कारणः
स्वतंत्र भारत की सरकार का पहला कदम ज़मींदारी प्रथा का उन्मूलन करना था। चूँकि भूमि सुधार राज्य का विषय था, अतः राज्य सरकार को सामंती शोषण को समाप्त करने के लिये कानून बनाने की आवश्यकता थी। अधिकांश राज्यों में इस प्रक्रिया को पूरा होने में चार से पाँच वर्ष लग गए, जिसके कारण ज़मीदार गलत ढंग से जमीनी दस्तावेजों को अपने पक्ष में करने में सफल हो गए। इसके कारण बड़े पैमाने पर काश्तकार बेदखल हुए और ज़मींदार की ज़मीन उसके परिवार के अन्य सदस्यों के फर्जी नाम से तैयार की गई।
काश्तकारी सुधारों के मुद्दे पर केंद्र और राज्य के अधिकारों को बहुत कम स्पष्ट किया गया था। कई राज्य विधायिकाओं पर ज़मींदारों का नियंत्रण था और इन सुधारों से इस वर्ग को नुकसान हुआ था। हालाँकि, भूमि सुधार कानूनों के कार्यान्वयन में काश्तकारों को पर्याप्त राजनीतिक प्रतिनिधित्व की अच्छी सफलता मिली थी।
यह मुद्दा 1970 में फिर उठाया गया। वर्ष 1972 में राज्यों के साथ विचार-विमर्श के बाद भू-हदबंदी कानून को फिर से बनाने का निर्णय लिया गया। इसके तहत जोत के आकार को सीमित करने की व्यवस्था थी। कानून के स्वरूप और व्यवस्थाओं को देखते हुए भू-हदबंदी की धारा से बचने के पर्याप्त अवसर मौजूद थे। जैसे-
(i) साल भर सिंचाई की व्यवस्था और दो फसलों का उत्पादन कर सकने वाली जमीन के लिये 10 से 18 एकड़ तक ही सीमा निर्धारित थी, इस वर्गीकरण में पर्याप्त सिंचाई और भूमि की गुणवत्ता दोनों मामलों में गलत तथ्य दिखाने की गुंजाइश थी।
(ii) एक फसल वाली जमीन के मामले में भू-हदबंदी की सीमा 27 एकड़ थी, कोई भी व्यक्ति बता सकता था कि वह एक ही फसल उगाता है।
(iii) ज़मींदार, राजनीतिक और सामाजिक दोनों दृष्टि से शक्तिशाली होने के कारण भूमि के अवैध हस्तांतरण और पट्टे पर देना जारी रख सकते थे।
(iv) पाँच लोगों से अधिक के परिवार में 18 से अधिक उम्र वाले प्रत्येक अतिरिक्त व्यक्ति को अतिरिक्त भूमि रखने की अनुमति थी। जन्म के पंजीकृत न होने की स्थिति में छोटी उम्र का बच्चा भी अपने को 18 वर्ष का होने का दावा करके अधिक जमीन रख सकता था।
(v) मुआवजा अदा करना जरूरी था। मुआवजा अदा करने के लिये गरीब को ज़मींदार अथवा महाजन से पैसा लेना पड़ता था और पैसा अदा न करने की स्थिति में जमीन फिर से ज़मींदार अथवा महाजन के कब्जे में चली जाती थी। भू-हदबंदी कानून में इन त्रुटियों के कारण भू-स्वामित्व की व्यवस्था में असमानता बनी रही।
कृषिगत सुधार और कृषि के विकास के लिये व्यापक भूमि सुधार नीति एक अनिवार्य शर्त है। भूमि सुधार व्यवस्था में निम्नलिखित बातों का होना आवश्यक है:
कानूनी संरचना को मज़बूत करना: विधान में उपस्थित कमियों को दूर किया जाना चाहिये। विधान में ऐसी कमियों को जिनकी दोहरी व्याख्या हो सकती है, दूर किया जाना चाहिये। मतभेदों व झगड़ों के जल्दी निवटारों की व्यवस्था की जानी चाहिये। कृषि से सम्बन्धित नियमों को आसान बनाया जाना चाहिये।
भूमि रिकार्ड का कम्प्यूटरीकरण: भारत में भूमि सुधारों के सफल न होने का एक महत्त्वपूर्ण कारण भूमि रिकार्ड उपलब्ध न होना है। प्रशासनिक मशीनरी को इस बात की व्यवस्था की जानी चाहिये कि भूमि रिकार्ड एकत्रित किया जाए। इस दिशा में कम्प्यूटरीकरण एक महत्त्वपूर्ण भूमिका निभा सकता है। कम्प्यूटरीकरण भूमि रिकार्ड को ज्यादा व्यवस्थित तरीके से उपलब्ध कराता है। यदि भूमि रिकार्ड व्यवस्थित हो, तो अनिस्थित भूमि, भू-स्वामित्व की प्रवृत्ति आदि पर महत्त्वपूर्ण जानकारी मिल सकती है जो भू-सुधार में सहायक सिद्ध हो सकता है।
क्योंकि, भारत में छोटे, सीमान्त व भूमिहीन किसान ज़्यादातर अशिक्षित हैं। उन्हें ज्यादा आधुनिक जानकारी नहीं होती है। उनके पास संसाधनों की भी कमी होती है। जिसके कारण भू.सुधारों के उपाय के बारे में उन्हें ज्यादा जानकारी नहीं होती है। इन सभी समस्याओं को दूर करने के लिये आर्थिक सहायता प्रदान की जानी चाहिये तथा कृषकों को जागरूक बनाया जाना चाहिये। प्रशासनिक कर्मचारियों को भूमि.सुधारों के उद्देश्य के प्रति ज्यादा संवेदनशील बनाया जाना चाहिये तभी प्रशासनिक कर्मचारी भू-सुधारों को ज्यादा ईमानदारी से क्रियान्वित करेंगे।
व्यक्तियों की भागीदारी: आम व्यक्तियों आदि को भी भू-सुधारों की प्रक्रिया में भागीदार बनाया जाना चाहिये। राजनीतिक इच्छा शक्ति की कमी: भू-सुधार के सफल न होने का एक महत्त्वपूर्ण कारण रहा है। मज़बूत राजनीतिक इच्छा शक्ति का विकास किया जाना चाहिये।
भूमि-सुधार को लागू करना राज्य का विषय है, अतः राज्य सरकारों पर भू-संबंधों के लिये और अधिक अनुकूल व्यवस्था बनाने का उत्तरदायित्व है। जहाँ तक केंद्र सरकार के प्रभाव का प्रश्न है, राज्य सरकारों को ‘‘गाडगिल फार्मूले’’ के तहत केन्द्रीय सहायता देने में भूमि सुधार को अधिक महत्त्व दिया जा सकता है। इसके अलावा बेहतर कार्य-निष्पादन करने वाले राज्यों को केन्द्रीय सहायता के सामान्य पूल से अधिक राशि आवंटित की जानी चाहिये। अब संविधान के 73वें संशोधन अधिनियम के लागू होने से पंचायती राज संस्थाओं के जरिये विकास कार्यक्रमों के आयोजन और क्रियान्वयन में आम आदमी की भागीदारी अब और अधिक हो सकेगी, इससे लोगों को विशेषकर गरीब तबके को अपने अधिकारों के प्रति और अधिक जागरुक बनाने में सहायता मिलेगी।
To get PDF version, Please click on "Print PDF" button.
Print