बीमारी की घटनाओं में एक वांछित और निर्धारित स्तर तक कमी लाने के विशिष्ट प्रयासों के बाद भी भारत में टीबी के मामलों में प्रतिवर्ष वृद्धि देखी जा रही है। इस संबंध में राष्ट्रीय टीबी नियंत्रण कार्यक्रम का समालोचनात्मक मूल्यांकन कीजिये।
22 Jun, 2018 सामान्य अध्ययन पेपर 2 राजव्यवस्था
प्रश्न-विच्छेद
हल करने का दृष्टिकोण
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भारत में टीबी एक गंभीर समस्या है। दुनिया के क्षय रोग पीडि़तों का पाँचवां हिस्सा यहाँ पाया जाता है। इस बीमारी पर नियंत्रण और इसमें निर्धारित स्तर तक कमी लाने के विशेष प्रयासों के बाद भी देश में करीब 18 लाख क्षय रोगी प्रतिवर्ष बढ़ जाते हैं।
टीबी जो टीबी बेसिली का संक्रमण है, एक ऐसा रोग है जिसमें कई अन्य लक्षण दृष्टिगत होते हैं जिससे चिकित्सक भ्रमित हो जाते हैं और निदान में विलंब होता है। इसका सबसे प्रचलित रूप फेफड़ों की टीबी है जिसे पॉल्मोनरी ट्यूबरकुलोसिस कहा जाता है। परंतु यह रोग शरीर के अन्य हिस्सों में भी हो सकता है जिसे एक्स्ट्रा पॉल्मोनरी ट्यूबरकुलोसिस डिज़ीज़ कहा जाता है।
भारत में प्रतिदिन टीबी से 1,200 लोगों की मृत्यु होती है। यह एक बड़ी त्रासदी है, किसी भी अन्य रोग या आपदा का इतना उच्च स्तर नहीं है।
वास्तव में टीबी नियंत्रण की किसी भी योजना में संक्रमण, प्रगति और संचरण की तीन प्रक्रियाओं को समझना बेहद आवश्यक है। संक्रमण तब होता है जब टीबी बेसिली श्वसन द्वारा हमारे अंदर आ जाए। बेसिली फेफड़े में बना रहता है या दूसरे अंगों तक पहुँच सकता है। यह संक्रमण जीवन भर के लिये होता है जहाँ बेसिली निष्क्रिय पड़ा रहता है। इस चरण को ‘सुप्त तपेदिक’ कहते हैं जिसका पता ट्यूबरकुलोसिस स्किन टेस्ट में लगाया जाता है। टीबी संक्रमण की वार्षिक दर लगभग 1 प्रतिशत है। 40-70 प्रतिशत लोग सुप्त तपेदिक से ग्रस्त होते हैं। इसमें प्रगति तब होती है जब बेसिली सक्रिय हो जाता है और अपनी संख्या में वृद्धि करता है तथा रोग उत्पन्न करता है। इसे ‘सक्रिय तपेदिक’ कहते हैं। जब यह टीबी फेफड़ों को प्रभावित करता है तभी इसका वातावरण में फैलना संभव होता है, जो टीबी संचरण के लिये आवश्यक शर्त है।
संचरण पर रोक के लिये लक्षण प्रकट होने के बाद तुरंत उपचार शुरू कर देना चाहिये, परंतु अनभिज्ञता के कारण उपचार शुरू करने के बहुमूल्य अग्रिम समय की हानि होती है।
इस समस्या से निपटने के लिये देश में वर्ष 1962 में राष्ट्रीय क्षय रोग नियंत्रण कार्यक्रम (NTCP) शुरू किया गया था, लेकिन इसमें कोई खास सफलता नहीं मिली। अतः कम-से-कम 85 प्रतिशत रोगियों के इलाज और 70 प्रतिशत रोगियों की पहचान करने के उद्देश्य से संशोधित राष्ट्रीय टीबी नियंत्रण कार्यक्रम (RNTCP) को डॉट्स प्रणाली के साथ 26 मार्च, 1997 को शुरू किया गया।
यह कार्यक्रम देश के लिये बहुत अच्छा रहा, इसमें इलाज का औसत 85 प्रतिशत रहा और मृत्युदर घटकर पाँच प्रतिशत से भी कम हो गई। 90 प्रतिशत नए स्मीयर रोगियों को डॉट्स (DOTS) के तहत निगरानी में रखा गया। इस कार्यक्रम के तहत प्रतिमाह 1 लाख से भी अधिक रोगियों का इलाज कर, अब तक करीब 15.75 लाख से अधिक लोगों को इस रोग से बचाया जा सका है। वर्तमान में सार्वजनिक स्वास्थ्य केंद्रों पर सप्ताह में तीन दिन दी जाने वाली खुराक के स्थान पर इसे प्रतिदिन देना निर्धारित किया गया है जिसका लक्ष्य टीबी रोगियों को इथैन ब्यूटॉल की प्रतिदिन एक निश्चित खुराक देकर इस रोग पर नियंत्रण पाना है। परंतु इस कार्यक्रम की भी कुछ सीमाएँ हैं, जिनमें पहली, चूँकि खाँसी कई रोगों का एक बेहद सामान्य लक्षण है इसलिये चिकित्सक तब तक इसकी पहचान टीबी के रूप में नहीं करते जब तक अन्य उपचार विफल नहीं हो जाते हैं। जब तक मरीज़ का परीक्षण होता है और वह उपचार लेता है तब तक रोग का संचरण और अधिक व्यक्तियों तक हो चुका होता है। दूसरी, लोगों द्वारा इलाज में लापरवाही बरतना, जिस कारण रोगों के रोगाणु प्रतिरोधक क्षमता विकसित कर लेते हैं और यह सामान्य टीबी से एमडीआर और एक्सडीआर तक बढ़ जाती है। इसी कारण अभी तक इस रोग पर पूर्ण नियंत्रण प्राप्त नहीं किया जा सका है।
टीबी पर नियंत्रण के लिये जनता, स्वास्थ्य पेशेवरों, स्वास्थ्य मंत्रालय के योजनाकारों और अनुपालनकर्त्ताओं, सबको इसके विरुद्ध एक संयुक्त मोर्चा तैयार करना होगा। हम इसकी शुरुआत स्कूलों से कर सकते हैं जहाँ छात्रों को टीबी के बारे में जागरूक किया जाए और अज्ञानता एवं गलत धारणाओं से परहेज के साथ ही रक्षोपायों की जानकारी प्रदान की जाए।