‘भारत के विभिन्न शहरों में जहाँ पर्यावरण प्रदूषण की समस्या सतत् रूप से बढ़ रही है वहीं विकासात्मक क्रियाकलापों के नाम पर पेड़ों की अंधाधुंध कटाई विरोधाभासी कदम प्रतीत होता है।’ क्या स्वच्छ पर्यावरण के साथ सतत् विकास की अवधारणा असंभव है? विवेचना कीजिये।
उत्तर :
उत्तर की रूपरेखा
- प्रभावी भूमिका में प्रश्नगत कथन को स्पष्ट करें।
- तार्किक एवं संतुलित विषय-वस्तु में स्वच्छ पर्यावरण और सतत् विकास की अवधारणा के बीच संबंध को विश्लेषित करें।
- प्रश्नानुसार संक्षिप्त एवं सारगर्भित निष्कर्ष लिखें।
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यह अक्सर देखा गया है कि विकास कार्य के दौरान बीच में आने वाले पेड़ों या अन्य पारिस्थितिकी घटकों को दरकिनार कर दिया जाता है। शहरी क्षेत्रों में किये जा रहे विकास कार्य के दौरान यह स्थिति अधिक देखने को मिलती है। इस परिस्थिति पर गौर किया जाए तो इसके निम्नलिखित कारण दिखाई पड़ते हैं-
- पर्यावरणीय लागत की तुलना में मौद्रिक लागत को अधिक महत्त्व देना।
- शहरी क्षेत्रों में स्व-स्थाने विकास पर बल देना।
- विभिन्न सरकारी एजेंसियों में सह-संयोजन का अभाव।
- संरक्षण का इरादा न होना।
वस्तुतः सतत् विकास जिस संगठित सिद्धांत की ओर इशारा करता है वह समाज एवं अर्थव्यवस्था को अपनी सेवाएँ प्रदान करने के लिये प्राकृतिक संसाधनों और पारिस्थितिकी तंत्र की मज़बूती पर ही बल देता है। यह ऐसी व्यवस्था के सुदृढ़ीकरण को प्रोत्साहित करता है जहाँ प्राकृतिक संसाधनों की अखंडता और स्थिरता को प्रभावित किये बिना मानवीय आवश्यकता को पूरा किया जाता है। इस तरह सतत् विकास से तात्पर्य ऐसे विकास से है जिसके अंतर्गत वर्तमान पीढ़ी की आवश्यकताओं को पूरा करने के लिये अपनी आने वाली पीढि़यों की जरूरतों से समझौता नहीं किया जाता है। इसके अतिरिक्त पर्यावरण संरक्षण स्वैच्छिक रूप से किसी-न-किसी मात्रा में विकास की धारणीयता को भी संवर्द्धित करता है।
बिना स्वच्छ पर्यावरण के सतत् विकास की अवधारणा बेईमानी है। समुचित विकास के लिये पेड़ एक प्राथमिक घटक है। पेड़ वह कड़ी है जो भौतिक दुनिया और प्राकृतिक दुनिया को जोड़ने का कार्य करती है। यह कार्बन प्रच्छादन, सौर ऊर्जा का उत्पादन, भौतिक जगत के लिये विभिन्न प्रकार की सामग्री उपलब्ध कराने के साथ-साथ खाद्य श्रृंखला और जैव-विविधता के लिये भी बहुत महत्त्वपूर्ण है।
पर्यावरण सुरक्षा एवं सतत् विकास को एक साथ लेकर चलने के लिये दोनों के मध्य संतुलन के बिंदुओं पर विचार करना होगा, जैसे-
- शहरी नियोजन में योजना के अभिविन्यास (layout of plan) की सबसे महत्त्वपूर्ण भूमिका होती है। योजना बनाते समय यदि पर्यावरणीय पहलुओं पर गंभीरता से विचार किया जाए तो विकास के दौरान होने वाले नुकसान को कम किया जा सकता है। उदाहरण के रूप में यदि किसी भवन के निर्माण में या सड़क विस्तारीकरण में कोई वृक्ष बीच में आ रहा है तो वृक्ष को काटने की बजाय हमें योजना में परिवर्तन की संभावना पर विचार करना चाहिये। आज हमारे पास ऐसी तकनीकें भी उपलब्ध हैं जिससे पेड़ों की गहराई, जड़ों की प्रकृति और जीवनकाल आदि के बारे में आसानी से पता किया जा सकता है। यह तकनीक हमें पेड़ों के स्थानांतरण (translocation) की संभावना को बताने में भी सक्षम है।
- शहरी क्षेत्रों में स्व-स्थाने विकास (In-situ development) अर्थात् आंतरिक इलाकों में ही विकास कार्य को संपन्न करने की जिद ने पर्यावरण को काफी नुकसान पहुँचाया है। यदि हम शहरी विस्तारीकरण या औद्योगिक परियोजनाओं को बीआरटी कॉरिडोर, मेट्रो रेल अथवा अन्य कोई भी सुरक्षित और द्रुतगामी परिवहन सुविधा से युक्त कर शहर से कुछ दूरी पर विकसित करें तो हमारी पहुँच आर्थिक संवृद्धि के साथ-साथ स्वस्थ पर्यावरण तक भी संभव हो सकेगी।
- विभिन्न प्रकार के निर्माण कार्यों में आज जल की अनवरत बर्बादी देखने को मिलती है, ऐसे में निर्माण कार्यों में पुनर्चक्रित जल का उपयोग कर स्वच्छ जल की बर्बादी को नियंत्रित किया जा सकता है जो अंततः पर्यावरण को सुदृढ़ करता है।
- भारत में कई बार लाल फीताशाही या नियामक प्राधिकरणों की बहुतायतता ने भी विकास और पर्यावरण को विरोधी बनाया है। वस्तुतः इन एजेंसियों में संयोजन के अभाव से परियोजनाएँ एकांगी दृष्टिकोण का शिकार हो जाती हैं और केवल विकास को ध्यान में रखकर अन्य पहलुओं को अनसुना कर देती हैं। यदि ये एजेंसियां परियोजनाओं से संबंधित सभी पक्षों को ध्यान में रखकर कार्य करेंगी तो निश्चित ही पर्यावरण को होने वाले नुकसान से बचाया जा सकता है।
- विकास और पर्यावरण को एक साथ लाने के लिये सबसे जरूरी पहलू है नीति-निर्धारकों की इच्छाशक्ति। इच्छाशक्ति के अभाव में यह देखा गया है कि परियोजना बिना पर्यावरणीय प्रभाव मूल्यांकन (Environment impact assesment) किये ही पारित कर दी जाती हैं अथवा संभावित लागत की अधिकता से इस मुद्दे पर पर्याप्त ध्यान नहीं दिया जाता है। जबकि मौद्रिक लागत की तुलना में पर्यावरणीय लागत को उपेक्षित करना दीर्घकालिक दृष्टिकोण से उचित नहीं प्रतीत होता।
अतः स्पष्ट है कि पर्यावरण संरक्षण और धारणीय विकास न केवल पूरक हैं बल्कि दोनों की अलग-अलग संकल्पना एक अधूरेपन का एहसास कराती है।