“रोज़गार सृजन किसी भी वास्तविक लोकतंत्र के लिये चुनौती है।” इस कथन के संदर्भ में रोज़गार सृजन के आँकड़े और भारतीय अर्थव्यवस्था की वस्तुस्थिति की समीक्षा कीजिये।
18 Jul, 2018 सामान्य अध्ययन पेपर 3 अर्थव्यवस्था
उत्तर की रूपरेखा
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किसी भी लोकतांत्रिक देश में रोज़गार प्राप्त करना जहाँ उसके नागरिकों का मौलिक अधिकार है वहीं, रोज़गार की आयु वाले सभी लोगों को रोज़गार उपलब्ध कराना भारत जैसे विशाल जनसंख्या वाले लोकतांत्रिक देश में वास्तव में एक कठिन चुनौती है।
हाल ही में प्रधानमंत्री ने दावा किया कि वर्ष 2017 में 7 मिलियन नए रोज़गार अवसरों का सृजन हुआ। अप्रैल में पुनः ऐसा ही एक दावा नागरिक उड्डयन राज्यमंत्री ने किया और कहा कि प्रत्येक वर्ष 10-12 मिलियन युवा कार्यबल में शामिल हो रहे हैं और 2017 में 7 मिलियन नए व औपचारिक रोज़गार अवसरों का सृजन हुआ। अप्रैल में ही नीति आयोग के उपाध्यक्ष का बयान आया कि 2017-18 में 6.22 मिलियन नए रोज़गार अवसरों का सृजन हुआ। इन आँकड़ों में तर्कसंगतता के अभाव ने एक बहस को जन्म दे दिया, दावे यहीं समाप्त नहीं हुए और मई में नीति आयोग के पूर्व उपाध्यक्ष का यह बयान सामने आया कि प्रत्येक वर्ष रोज़गार की तलाश में मात्र 7.5 मिलियन लोग ही श्रम बाजार में प्रवेश करते हैं।
पूर्व उपाध्यक्ष का वक्तव्य न केवल नागरिक उड्डयन राज्यमंत्री के दावे का विरोधाभासी था बल्कि उन्होंने बहस में यह बिंदु रख दिया कि भले ही भारत में प्रत्येक वर्ष 15 मिलियन युवा रोज़गार की आयु में प्रवेश करते हैं, लेकिन उनमें से आधे ही रोज़गार पाने की इच्छा रखते हैं। सभी वक्तव्यों को एक साथ शामिल करें तो पूर्व उपाध्यक्ष के अनुसार मात्र 7.5 मिलियन भारतीय ही रोज़गार की तलाश में हैं। आर्थिक सलाहकार परिषद के एक सदस्य के अनुसार, 15 मिलियन नए रोज़गार अवसर सृजित हुए हैं और वर्तमान नीति आयोग के उपाध्यक्ष के अनुसार 6.22 मिलियन रोज़गार अवसर सृजित हुए हैं। इन सभी आँकड़ों का संक्षेपण यह है कि रोज़गार की तलाश कर रहे प्रत्येक भारतीय के पास कई रोज़गार प्रस्ताव हैं। अब यदि परिदृश्य यह है तो फिर सरकार को बस युवा परामर्श केंद्रों की स्थापना की आवश्यकता है, ताकि भारी अवसरों से दबा कोई बेरोज़गार भारतीय निर्णय ले सके कि वह कई प्रस्तावों में से किस प्रस्ताव का चयन करे।
रोज़गार अवसरों को लेकर जारी यह बहस अब देश के लिये शर्मिंदगी के स्तर तक पहुँच गई है। 1.2 बिलियन आबादी और 2.5 ट्रिलियन अर्थव्यवस्था वाले गौरवशाली लोकतंत्र में देश को चुनौती दे रहे एक गंभीर नीतिगत मुद्दे पर इस हल्के अंदाज में बहस नहीं होनी चाहिये थी। सरकार के 2018 के आर्थिक सर्वेक्षण का एक एकल डेटा पॉइंट ही यह पुष्टि कर देता है कि भारत की रोज़गार समस्या कितनी गंभीर है। इस सर्वेक्षण में बताया गया कि औपचारिक क्षेत्र में कार्यरत कर्मचारियों के 90 प्रतिशत 15,000 रुपए प्रतिमाह से भी कम की आय पाते हैं अर्थात् औपचारिक क्षेत्र में रोज़गार पा गए भाग्यशालियों में से अधिकांश 15,000 रुपए प्रतिमाह से कम आय पाते हैं। अनुमान लगाया जा सकता है कि औपचारिक क्षेत्र में नए प्रवेशियों को 7,500 रुपए प्रतिमाह से अधिक नहीं मिलता होगा। इसकी तुलना मनरेगा में नामांकित लोगों से करें तो उन्हें 6,000 रुपए प्रति माह आय की गारंटी है, जो भारत मे बेरोज़गारी बीमा के समान है। यदि इन आँकड़ों पर यकीन करें कि भारतीय अर्थव्यवस्था समग्र रोज़गार उत्पन्न कर रही है और औपचारिक क्षेत्र के रोज़गार में युवाओं की बड़ी मांग है तो फिर इसका प्रतिबिंबन उच्च वेतन में क्यों नहीं हो रहा, क्यों वे मात्र 7,500 रुपए प्रतिमाह पा रहे? लेकिन इसका जवाब नही मिलता।
अतः संक्षेप में कहा जा सकता है कि भारत गंभीर रोज़गार समस्या से गुज़र रहा है। यह एक असहज करने वाली सच्चाई है। हमें नौकरी बनाम भुगतान, औपचारिक बनाम अनौपचारिक रोज़गार, ऑन-हैंड बनाम पेपर सैलरी आदि पर बहस के बहाने इस सच्चाई की अनदेखी नहीं करनी चाहिये। हमें एक देश के रूप में इस गंभीर समस्या का मुकाबला परिपक्व तरीके से करना है। हमें सर्वप्रथम वास्तविकताओं की पहचान करनी होगी, वे भले ही तल्ख हों फिर भी समाधान पाने के बारे में एक वास्तविक लोकतंत्र की तरह इस पर विमर्श करना होगा।