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मेन्स प्रैक्टिस प्रश्न

  • प्रश्न :

    भारत की प्रतिष्ठित, ख्यातिप्राप्त संस्थाओं के यदि पिछले कुछ समय का गंभीरतापूर्वक अवलोकन करें, तो प्रतीत होता है कि ये विश्वसनीयता के संकट से ग्रसित दिखलाई दे रही हैं। क्या ऐसा कहा जा सकता है कि यह संस्थाओं की ढाँचागत समस्या है या यह क्षरण संस्थाओं के संचालनकर्त्ताओं के व्यक्तित्त्व से जुड़ा है?

    26 Feb, 2018 सामान्य अध्ययन पेपर 2 राजव्यवस्था

    उत्तर :

    उत्तर की रूपरेखा:

    • प्रस्तावना
    • संवैधानिक संस्थाओं के प्रति विश्वसनीयता संकट के पक्ष में कुछ उदाहरण प्रस्तुत करें।
    • निष्कर्ष

    भारत में आजादी के बाद से लोकतंत्र का इतना बेहतरीन रिकार्ड रहा है जो कम-से-कम तृतीय विश्व में तो सर्वोत्तम और विश्व के कुछ चुनिंदा देशों में भी नज़र आता है। आपातकाल को छोड़कर देश में ऐसा कोई उदाहरण कभी देखने में नहीं आता जब लोकतंत्र की मूल भावना को दरकिनार किया गया हो, यहाँ तक कि राजनीतिक अस्थिरता के बुरे दौर (1995-96 से 1999) में भी भारत में लोकतंत्र ही प्रभावी रहा न कि सैन्य शक्ति या कुछ और। ऐसा इस कारण संभव हुआ क्योंकि हमारी संस्थाओं व जनता का परस्पर एक-दूसरे में गहरा विश्वास रहा है, यही कारण है कि आज भी चुनाव में अच्छा मतदान होता है और यहाँ तक कि मात्र एक साल पुरानी पार्टी को भी प्रचंड बहुमत के साथ सत्ता में आने का मौका मिलता है।

    परंतु हालिया अनुभवों से इन लब्ध-प्रतिष्ठित संस्थाओं पर ही सवाल उठने आरंभ हो गए हैं जो देश की राजव्यवस्था के लिये अच्छा नहीं है। सर्वप्रथम, चुनाव आयोग जो कि एक संवैधानिक संस्था है व देश में निष्पक्ष चुनाव (लोकतंत्र का प्राणतत्त्व) के लिये जिम्मेदार है, को देखें तो अक्तूबर, 2017 में गुजरात व हिमाचल प्रदेश के लिये विधानसभा चुनाव की तारीखों की घोषणा करते समय आयोग ने केवल हिमाचल के लिये तारीखें घोषित कीं, गुजरात के लिये नहीं। इसे लेकर आयोग की काफी आलोचना भी हुई, तथा आयोग ने बाढ़ राहत कार्यों के जारी रहने का स्पष्टीकरण दिया। कई पूर्व मुख्य चुनाव आयुक्तों का भी मत था कि कोई भी आचार संहिता, प्राकृतिक आपदा में राहत पहुँचाने के किसी कार्य को नहीं रोकती। ध्यातव्य है कि 2014 में जम्मू-कश्मीर में भीषण बाढ़ आई, जिसमें 300 से ज्यादा मौतें हुई थी, आयोग ने उसी वर्ष नियत समय पर 5 चरणों में चुनाव करवाए तथा वहाँ 65% से ज्यादा मतदान भी हुआ।

    मई, 2017 में सरकार ने चुनाव हेतु राजनीतिक दलों द्वारा धन एकत्र करने हेतु ‘इलेक्टोरल बॉण्ड’ की घोषणा की और इसे चुनाव सुधार की दिशा में क्रांतिकारी कदम कहा, जबकि चंदा देने वाले का नाम गोपनीय रखने का प्रावधान भी इसमें शामिल है। इस पर भी चुनाव आयोग ने सहमति जताई, जबकि स्वयं नसीम जैदी (Ex-CEC) का यह कहना है कि यह जनता की लोकतांत्रिक गरिमा का हनन है, क्योंकि उसे पता ही नहीं कि राजनीतिक दल को किसने चंदा दिया, जबकि यह पता होना जनता का अधिकार है और यह चुनावों में भी वित्तीय पारदर्शिता को बढ़ाएगा। इस प्रकार ये प्रकरण विश्व के सर्वश्रेष्ठ चुनाव आयोग की कार्य पद्धति पर प्रश्नचिन्ह लगाते हैं।

    इसी प्रकार सुप्रीम कोर्ट में जजों के टकराव का मुद्दा इस प्रकार सार्वजनिक हो जाना किसी दृष्टि से भी उचित नहीं है। सुप्रीम कोर्ट में केसों का आवंटन, बेंचों का निर्माण आदि को लेकर तथा इनमें CJI दीपक मिश्रा की भूमिका को लेकर 4 वरिष्ठ जजों द्वारा प्रेस कांफ्रेंस किया जाना यह दर्शाता है कि सुप्रीम कोर्ट में सब कुछ सही नहीं चल रहा है।

    पुनः मुंबई हाइकोर्ट के एक सेवानिवृत्त न्यायाधीश जो सोहराबुद्दीन फर्जी एनकाउंटर केस की सुनवाई कर चुके हैं, ने यह आरोप लगाया कि इस केस में निष्पक्ष सुनवाई हेतु न्यायालय अपने अधिकारों का समुचित प्रयोग भी नहीं कर रहा है।

    वर्तमान में उच्च न्यायपालिका ही भारत के आम आदमी को न्याय पाने की अंतिम उम्मीद बँधती दिखती है, यदि न्यायपालिका पर प्रश्न उठने आरंभ हुए तो यह तंत्र में जनता के विश्वास को भंग कर देगा।

    तीसरा प्रकरण, हम CAG के संदर्भ में देख सकते हैं। पूर्व CAG बिनोद रॉय ने 2G spectrum वाद में 1 लाख 75 हजार करोड़ रुपए के सरकारी खजाने को संभावित घाटा (Presumptive loss) दर्शाया था जो ऑडिट प्रणाली के वैश्विक मानकों का पालन करने के पश्चात् ज्ञात हुआ था, परंतु CBI की विशेष अदालत में सुनवाई के दौरान (जो लगभग 7 वर्षों तक चली) कोई घाटा सिद्ध न हो सका। स्वयं जज की सख्त टिप्पणी थी कि ‘‘कुछ तथ्यों मात्र के आधार पर एक झूठा घोटाला दिखाने व उसको अत्यधिक बढ़ा-चढ़ाकर पेश करने का प्रयास किया गया।’’ मामले में शामिल सभी आरोपियों को जमानत भी दे दी गई। नई सरकार के आने पर 2016 में बिनोद राय को BBB (बैंक बोर्ड ब्यूरो) का चेयरमैन बनाया गया।

    एक अन्य उदाहरण RBI का दिया जा सकता है जो अभी तक स्वतंत्रतापूर्वक कार्य करता रहा है परंतु विमुद्रीकरण से RBI की साख को भी झटका लगा है। यह जानने के बाद भी कि देश की अर्थव्यवस्था विमुद्रीकरण हेतु तैयार नहीं थी RBI ने इसकी अनुमति दी व इसके लिये जाली नोटों की समाप्ति, काले धन की समाप्ति, आंतकवाद की मदद रोकने के तर्क दिये गए। जबकि स्वयं RBI की अगस्त, 2017 की रिपोर्ट के अनुसार 99% पुरानी करेंसी बैंकों में वापस आ चुकी है व बैंक अब इस पर ब्याज भी देंगे।

    ऐसा नहीं है कि ये संस्थाएँ मानकों के अनुरूप कार्य नहीं कर रही हैं। हाल के गुजरात रा.स. चुनावों में E.C. की भूमिका प्रशंसनीय रही जहाँ उसने 2 दल बदलू विधायकों के दिये वोट खारिज कर दिये। अतः इनका ढाँचा कमजोर है, ऐसा नहीं कह सकते, परंतु इनका हालिया आचरण राजव्यवस्था, अर्थव्यवस्था, विदेशी निवेशकों को जरूर प्रभावित कर सकता है। अतः यह आवश्यक है कि ये संस्थाएँ पेशेवर होकर, तटस्थ ढंग से कार्य करें जैसा कि डॉ. राजेंद्र प्रसाद ने कहा था- ‘‘कोई संविधान उतना ही अच्छा हो सकता है जितने उसे लागू करने वाले लोग’’ अतः इन संस्थाओं का निष्पक्ष होना समय की माँग है।

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