इंदौर शाखा पर IAS GS फाउंडेशन का नया बैच 11 नवंबर से शुरू   अभी कॉल करें
ध्यान दें:

मेन्स प्रैक्टिस प्रश्न

  • प्रश्न :

    "सामाजिक पिछड़ापन एक अलग अवधारणा है, यह सामाजिक एवं सांस्कृतिक से लेकर आर्थिक, शैक्षणिक और यहाँ तक कि राजनीतिक आदि कई परिस्थितियों से उभरता है।” संवैधानिक प्रावधानों के विशेष संदर्भ में आरक्षण पर सुप्रीम कोर्ट के फैसलों के संबंध में इस कथन की विवेचना कीजिये।

    01 Mar, 2018 सामान्य अध्ययन पेपर 2 राजव्यवस्था

    उत्तर :

    उत्तर की रूपरेखा:

    • वर्तमान सन्दर्भ में आरक्षण की अवधारणा।
    • आरक्षण के संबंध में सर्वोच्च न्यायालय के कुछ निर्णयों की चर्चा करें।
    • निष्कर्ष।

    भारतीय संविधान की प्रस्तावना अपने सभी नागरिकों के लिये सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक न्याय सुरक्षित करने की घोषणा करती है। समानता के प्रावधानों के साथ-साथ, यह सरकारी नौकरियों में रोज़गार और विधायिका में सीटों में आरक्षण सुनिश्चित कर एक तरह से समाज के कमज़ोर वर्गों के पक्ष में सुरक्षात्मक भेदभाव का प्रावधान उपलब्ध कराती है।

    इसलिये भारत का संविधान सभी वर्गों के विकास को सुनिश्चित करने के लिये अनुच्छेद-15 और 16 में आर्थिक तथा सामाजिक रूप से पिछड़े वर्गों के लिये आरक्षण का विशेष प्रावधान उपलब्ध करता है। परंतु संविधान में सामाजिक और आर्थिक पिछड़ेपन की पहचान करने के लिये मानदंडों को स्पष्ट रूप से परिभाषित नहीं किया गया है। ऐतिहासिक कारणों के चलते, आमतौर पर, पिछड़ेपन की मान्यता को जातियों के साथ संबंधित किया जाता है। स्पष्ट मानदंड की कमी, पिछड़ेपन की सूची में किसी भी जाति को शामिल किये जाने के मामले में हमेशा समस्या उत्पन्न करती है।

    इस संबंध में, कुछ समय पहले हुए जाट आरक्षण ने फिर से सामाजिक पिछड़ेपन के मानदंड पर सवाल उठाया और इसे सुप्रीम कोर्ट में चुनौती दी गई। अपने फैसले में सुप्रीम कोर्ट ने सरकार द्वारा जाटों को ओबीसी की केंद्रीय सूची में शामिल करने वाली अधिसूचना को खारिज कर दिया। इस मामले में अदालत ने फिर से सामाजिक पिछड़ेपन की परिभाषा का निरीक्षण किया। कोर्ट का कहना है कि सामाजिक पिछड़ेपन के लिये न तो शैक्षिक पिछड़ापन पर्याप्त है और न ही विशुद्ध रूप से आर्थिक पिछड़ापन, हालाँकि दोनों सामाजिक पिछड़ेपन के लिये योगदान करते हैं। 

    इसके अलावा, न्यायालय ने कहा कि सामाजिक पिछड़ापन, आर्थिक, शैक्षणिक और यहाँ तक कि राजनीतिक, सामाजिक और सांस्कृतिक से लेकर कई कारकों पर निर्भर करता है। कोर्ट ने कहा कि सरकार जिन सांख्यिकीय आँकड़ों पर निर्भर है वे दस वर्ष से अधिक पुराने हैं और साथ ही कहा कि इस उद्देश्य के लिये ‘पुराने और अप्रचलित’ हो गए हैं। यह फैसला पिछड़े  समूह की पहचान पूरी तरह से जाति के आधार पर करने की प्रक्रिया को हतोत्साहित करता है और इसकी पहचान के लिये नई प्रथाओं, तरीकों और पैमानों की आवश्यकता को प्रकट करता है।

    1992 में इंदिरा साहनी केस में ऐतिहासिक फैसला देते हुए (जिसे मंडल विवाद पर फैसले की तरह याद किया जाता है) सुप्रीम कोर्ट ने पिछड़ापन को कसौटी बना दिया था। साथ ही इसे तय करने के लिये एक नई व स्वतंत्र संस्था ‘राष्ट्रीय पिछड़ा वर्ग आयोग’ के निर्माण का आदेश भी दिया था। उसके बाद से आरक्षण के मामलों की सिफारिश इसी संस्था के जरिये होती है।

    2008 में सर्वोच्च न्यायालय ने सरकारी धन से पोषित संस्थानों में 27% ओबीसी (OBC) कोटा शुरू करने के लिए सरकारी कदम को सही ठहराया। न्यायालय ने स्पष्ट रूप से अपनी पूर्व स्थिति को दोहराते हुए कहा कि "मलाईदार परत" को आरक्षण नीति के दायरे से बाहर रखा जाना चाहिए। 

    इसलिये यह कहा जा सकता है कि सामाजिक पिछड़ेपन के निर्धारण के लिये कई पहलुओं को ध्यान में रखना चाहिये जिससे हमारे संविधान के उद्देश्यों की पूर्ति की जा सके। आरक्षण से सबंधित सभी फैसलों में न्यायपालिका ने बार-बार यही कहा है कि किसी भी जाति को पिछड़े वर्ग के तहत आरक्षण देने से पहले यह प्रमाण देना होगा कि यह जाति सामाजिक और शैक्षणिक तौर पर सामान्य वर्ग की तुलना में बहुत पीछे है।

    To get PDF version, Please click on "Print PDF" button.

    Print
close
एसएमएस अलर्ट
Share Page
images-2
images-2