बिस्मार्क की विदेश नीति ने ‘प्रतिद्वन्द्वी गुटबंदी’ द्वारा यूरोप में एक विषम राजनीतिक वातावरण उत्पन्न किया, जिसके फलस्वरूप 1914 ई. का प्रथम विश्व युद्ध हुआ। विशदीकरण कीजिये।
25 Apr, 2017 सामान्य अध्ययन पेपर 1 इतिहास1871 के पश्चात् बिस्मार्क की विदेश नीति का प्रमुख उद्देश्य यूरोप में जर्मनी के प्राधान्य को बनाये रखना था। वह जर्मनी को अब तक संगठित व शक्तिशाली राष्ट्र तो बना चुका था। इसीलिये अब उसकी नीति का मुख्य ध्येय था- यूरोप में शांति बनाये रखना। किंतु, वह जानता था कि यूरोप की शांति दो कारणों से भंग हो सकती है- एक तो फ्राँस की प्रतिरोध की भावना से क्योंकि फ्राँस एल्सेस-लॉरेन के प्रांत छिन जाने से बहुत असंतुष्ट था; दूसरे, बाल्कन क्षेत्र में आस्ट्रिया और रूस की प्रतिद्वन्द्विता से। इन दोनों में से भी बिस्मार्क को फ्राँस से अधिक भय था क्योंकि फ्राँस 1870 ई. के राष्ट्रीय अपमान को नहीं भूला था। अतः यूरोप की शांति के लिये फ्राँस को कमजोर एवं मित्रहीन करना आवश्यक था। इंग्लैण्ड और फ्राँस के मध्य औपनीवेशिक प्रश्नों पर तनाव था, इसीलिए बिस्मार्क इंग्लैण्ड की ओर से निश्चित था। बिस्मार्क ने रूस, आस्ट्रिया और इटली से मित्रता स्थापित की ताकि फ्राँस को यूरोप में मित्रविहीन बनाया जा सके। इस दिशा में बिस्मार्क ने निम्नलिखित कदम उठाए-
(i) ‘तीन सम्राटों के संघ’ का निर्माण: जर्मनी के आस्ट्रिया के साथ तथा अस्ट्रिया के रूस के साथ अच्छे संबंध न होने के बावजूद ‘यूरोप में शांति’ एवं ‘समाजवादी आंदोलन के खतरे’ का हवाला दे बिस्मार्क ने 1872 ई. में बर्लिन में जर्मनी, आस्ट्रिया, रूस के ‘तीन सम्राटों के संघ’ का निर्माण किया।
(ii) आस्ट्रो-जर्मन द्विगुटः रूस-तुर्की युद्ध उपरांत हुई ‘सन स्टीफानो संधि’ में संशोधन हेतु बर्लिन में बुलाए गए सम्मेलन में बिस्मार्क ने सीधे तौर पर आस्ट्रिया के हितों को वरीयता दी। इससे रूस तो नाराज हो गया परंतु जर्मनी की आस्ट्रिया के साथ घनिष्ठता बढ़ गई। 1879 में जर्मनी और आस्ट्रिया के बीच एक रक्षात्मक संधि हुई, जिसके अंतर्गत यह तय हुआ कि युद्ध छिड़ने की स्थिति में दोनों देश एक-दूसरे की पूरी ताकत से सहायता करेंगे।
(iii) त्रिगुट संगठन का निर्माणः आस्ट्रिया और इटली की शत्रुता का इतिहास पुराना था। सदियों तक आस्ट्रिया ने ही इटली की राष्ट्रीय एकता को रोका था। किंतु, ‘ट्यूनिस’ मुद्दे पर इटली फ्राँस के खिलाफ हो गया था। इन परिस्थितियों में बिस्मार्क ने अपनी कूटनीतिक चतुराई से इटली को जर्मनी और आस्ट्रिया के साथ मिलकर एक ‘त्रिगुट’ के निर्माण के लिये राजी कर लिया। यह संधि भी सुरक्षात्मक संधि थी।
(iv) पुनराश्वासन संधिः 1887 में बिस्मार्क ने रूस के साथ ‘पुनराश्वासन संधि' की जिसका मुख्य लक्ष्य रूस का फ्राँस से घनिष्ठ संबंध स्थापित नहीं होने देना था। रूस में बिस्मार्क विरोधी लहर होने के बावजूद बिस्मार्क ने रूस के साथ मित्रवत संबंधों को पुनर्जीवित करने के आश्वासन के साथ यह संधि करने में सफलता पाई।
(v) ब्रिटेन के प्रति बिस्मार्क का नजरियाः उस समय ब्रिटेन यूरोपीय राजनीति में अलगाव की राजनीति का अनुसरण कर रहा था। बिस्मार्क को अहसास था कि यदि ब्रिटेन की नौसेना की श्रेष्ठता को चुनौती न दी जाए तो वह किसी राष्ट्र का विरोधी नहीं होगा। अतएव, ब्रिटेन को खुश करने के लिये बिस्मार्क ने जर्मनी नौ-सेना को बढ़ाने के लिये कोई कदम नहीं उठाया। उसने औपनिवेशिक विस्तार भी इंग्लैण्ड की सदिच्छा प्राप्त करके ही किया।
इस प्रकार बिस्मार्क ने अपनी कुशल कूटनीति से फ्राँस को मित्रविहीन करने की पुरजोर कोशिश की और इसमें उसे काफी सफलता भी मिली। परंतु, 1890 में बिस्मार्क के पदत्याग के पश्चात् फ्राँस की कूटनीति सक्रिय हो गई और वह मात्र 4 वर्षों में (1894 ई.) रूस के साथ मैत्री संधि बनाकर द्विगुट बनाने में सफल रहा। आस्ट्रिया, इटली और रूस के हित भी आपस में टकराते थे, केवल बिस्मार्क जैसा कुशल राजनेता ही उनमें समन्वय बनाकर रख सकता था। बिस्मार्क के पदत्याग के पश्चात यह पद्धति भी समाप्त हो गई। जर्मनी के त्रिगुट (जर्मनी-आस्ट्रिया-इटली) के विरूद्ध बने फ्राँस-रूस द्विगुट के पश्चात् तो संपूर्ण यूरोप दो सशस्त्र और शक्तिशाली गुटों में बँट गया। इसीलिये कुछ इतिहासकार बिस्मार्क की गुटबन्दी की नीति को ही प्रथम विश्व युद्ध का कारण मानते हैं क्योंकि इसी नीति के चलते ‘प्रतिद्वन्द्वी गुटबंदी’ का निर्माण हुआ, जो अन्ततः विश्व युद्ध का आधार बनी।