सिंधु घाटी सभ्यता का अध्ययन हमें यह जानने का अनूठा अवसर प्रदान करता है कि प्राचीन भारतीय समाज पारिस्थितिकी एवं पर्यावरण में होने वाले परिवर्तनों के प्रति अनुकूलित था। हाल ही में इस विषय पर कैंब्रिज विश्वविद्यालय एवं बनारस हिंदू विश्वविद्यालय के शोधकर्त्ताओं द्वारा किये गये अध्ययनों को दृष्टिगत रखते हुए इस कथन की पुष्टि करें।
23 May, 2017 सामान्य अध्ययन पेपर 1 इतिहासब्रिटेन में कैब्रिज विश्वविद्यालय एंव उत्तरप्रदेश के बनारस हिंदू विश्वविद्यालय के शोधकर्त्ताओं ने वर्ष 2007 से 2014 के बीच उत्तर-पश्चिम भारत में कार्य किया एवं सिंधु घाटी सभ्यता (3000-1300 BC) की पर्यावरण एवं पारिस्थितिकी परिवर्तन के प्रति अनुकूलनशीलता का अध्ययन किया।
इन अध्ययनों के अनुसार प्राचीन जटिल समाजों के लिये पानी एक अति महत्त्वपूर्ण कारक था। जिस प्रकार इन समाजों ने पानी का उपयोग एवं इसका प्रबंधन किया, उसने इन समाजों की अनुकूलनशीलता और जीवन निर्वाह प्रथाओं के लचीलेपन को प्रमाणित किया। सबसे प्राचीन जटिल समाज उन क्षेत्रों में विकसित हुए जहाँ जीवन निर्वाह खेती के लिये आवश्यक जलवायवीय दशाओं में विविधता थी।
सिंधु घाटी सभ्यता एक गहरी झील ‘कोटला दाहर’ (Kotla Dahar) के निकट स्थित थी, जो कि मानसूनी वर्षा पर निर्भर झील थी। ऐसे साक्ष्य मिले हैं कि मानसूनी वर्षा में कमी के कारण झील के जलस्तर में काफी कमी आ गई थी। इस झील के निकट प्राप्त सिंधु घाटी आबादी से संबंधित साक्ष्यों से यह सिद्ध होता है कि सिंधु-घाटी सभ्यता के वि-शहरीकरण में जलवायु ने महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई थी।
यहाँ यह अनुमान लगाया गया है कि सिंधु आबादी द्वारा प्रयुक्त निर्वाह प्रथाओं में विविधता के कारण ही यह आबादी उस समय के विविधतापूर्ण वातावरण के साथ तालमेल बिठाने में कामयाब रही। अध्ययन में पाया गया कि सिंधु घाटी सभ्यता में मोटा अनाज, चावल एवं उष्णकटिबंधीय दालों के उपयोग का प्रमाण है जो कृषि में विविधता को दर्शाता है।
इस प्रकार, यह प्रमाण दर्शाता है कि स्थानीय सिंधु घाटी आबादी शहरी केंद्रों के विकास से पहले ही विवधतापूर्ण पर्यावरण एवं पारिस्थितिकी स्थितियों के प्रति अनुकूलित थी।