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प्रश्न :
कृत्रिम वर्षा की विभिन्न प्रविधियों की चर्चा करते हुए भारत के सूखाग्रस्त क्षेत्रों में कृत्रिम वर्षा की व्यवहार्यता पर प्रकाश डालें।
21 Jun, 2017 सामान्य अध्ययन पेपर 1 भूगोलउत्तर :
कृत्रिम वर्षा को मेघों का कृत्रिम बीजारोपण भी कहा जाता है। इसमें एक विशेष प्रकार के मेघों को संतृप्त करके वर्षा कराई जाती है। कृत्रिम वर्षा कराने की कई प्रविधियाँ होती हैं, जैसे-
(i) ‘सिल्वर आयोडाइड’ रसायन का या तो हवाई जहाजों से बादलों पर छिड़काव किया जाता है या फिर धरातल पर जेनरेटरों को थोड़ी-थोड़ी दूरी पर रखकर कई घंटों तक सिल्वर आयोडाइड को मेघों की ओर छोड़ा जाता है। इससे मेघ संतृप्त हो जाते हैं, संघनन प्रक्रिया आरंभ होती है और फिर वृष्टि होती है।
(ii) वायुयान की सहायता से बादलों पर ठोस कार्बन डाईऑक्साइड का छिड़काव कर मेघों में कृत्रिम बीजारोपण किया जा सकता है। परंतु यह प्रक्रिया अत्यधिक खर्चीली होती है।
(iii) बादलों में विद्युत तरंगों व प्रघाती तरंगों के द्वारा विद्युत आवेशन उत्पन्न कर कृत्रिम वर्षा करायी जा सकती है। सैद्धांतिक रूप से इस प्रविधि में अपार संभावनाएँ हैं क्योंकि कपासी-वर्षी मेघों में बिजली की चमक के तत्काल बाद तीव्र वर्षा की प्राप्ति होती है।
(iv) वायुयान द्वारा बादलों में जल छिड़काव की प्रक्रिया द्वारा बादलों को संतृप्तावस्था में लाया जा सकता है।कृत्रिम वर्षा की (iii) और (iv) प्रविधियाँ न तो सफल हैं और न ही लोकप्रिय। ठोस कार्बन-डाइऑक्साइड द्वारा कृत्रिम वर्षा भी अत्यधिक खर्चीली है। अतः वर्तमान में मुख्यतः सिल्वर आयोडाइड के छिड़काव द्वारा ही कृत्रिम वर्षा कराई जाती है। रूस, इजराइल और चीन में इसके सफल प्रयोग हुए हैं। भारत में भी गुजरात के सौराष्ट्र क्षेत्र में प्रोजेक्ट ‘रेन ड्रॉप’ चलाए गए थे, परंतु यह अधिक सफल नहीं रहा।
सूखाग्रस्त क्षेत्रों में कृत्रिम वर्षा की व्यवहार्यताः
मौसम विशेषज्ञों को मानना है कि रसायन छिड़काव केवल उन्हीं मेघों में प्रभावकारी होता है, जिनमें प्राकृतिक रूप से वृष्टि की संभावनाएँ विद्यमान हों। सापेक्षिक आर्द्रता का कम-से-कम 50% से 65% तक होना आवश्यक है। कुछ समय पहले चीन ने महाराष्ट्र के सूखाग्रस्त क्षेत्र के लिये मुफ्त में कृत्रिम वर्षा कराने की तकनीक साझा करने का प्रस्ताव रखा था। चीन 2008 के बीजिंग ओलंपिक से पहले कृत्रिम वर्षा द्वारा वायु-प्रदूषण को कम करने का कारनामा कर चुका है। परंतु, भारत के सूखाग्रस्त क्षेत्र में कृत्रिम वर्षा हेतु अपेक्षित आर्द्रता वाले मेघों की उपस्थिति आवश्यक है, जिसकी संभावना बहुत कम रहती है। अतः वर्तमान में तो इसकी व्यवहारिकता संदिग्ध ही लगती है। दूसरा, यह प्रक्रिया काफी खर्चीली है तथा द्वितीयक प्रभाव के तौर पर भूमि तथा जल-प्रदूषण भी करती है क्योंकि वर्षा के साथ वह रसायन भी जमीन पर गिरता है।
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