द्वितीय विश्वयुद्ध उपरांत भारत की स्वाधीनता के संदर्भ में ब्रिटिश सरकार के दृष्टिकोण में आए बदलाव की क्या वजहें रही? विस्तारपूर्वक वर्णन करें।
उत्तर :
द्वितीय विश्व युद्ध उपरांत भारत के संवैधानिक संकट को दूर करने तथा भारतीयों की राजनीतिक मांगों के प्रति ब्रिटिश सरकार के दृष्टिकोण में बदलाव आया। अगस्त, 1945 में केंद्रीय व प्रांतीय व्यवस्थापिकाओं के लिये चुनावों की घोषणा की गई तथा सितंबर, 1945 में जल्दी ही संविधान सभा गठित करने की घोषणा की गई। वैसे ब्रिटिश सरकार यकायक ही भारत के लोगों के प्रति उदार या चिंतित नहीं हुई बल्कि विभिन्न् राष्ट्रीय, अंतर्राष्ट्रीय कारकों ने उसे मजबूर किया कि वह भारत के प्रति दृष्टिकोण व नीति में जल्द-से-जल्द बदलाव लाये। वे कारक निम्नलिखित थे-
- ब्रिटेन की नई लेबर सरकार भारतीय मांगों के प्रति अधिक सहानुभूति रखती थी।
- द्वितीय विश्व युद्ध के उपरांत विश्व-शक्ति संतुलन बदल चुका था। ब्रिटेन अब महाशक्ति नहीं रह गया था जबकि विश्वपटल पर अमेरिका और सोवियत संघ दो महाशक्तियों के रूप में उभरे। इन दोनों महाशक्तियों ने भारत की स्वतंत्रता का समर्थन किया। पूरे यूरोप में भी उस समय समाजवादी-लोकतांत्रिक सरकारों के गठन की लहर चल रही थी। ऐसे में भारत के प्रशासन का चिंतित होना स्वाभाविक था।
- विश्व युद्ध के उपरांत ब्रिटिश सैनिक हतोत्साहित हो चुके थे एवं थक चुके थे। साथ ही, ब्रिटेन की आर्थिक स्थिति भी काफी कमजोर हो चुकी थी। ब्रिटिश प्रशासन को भय था कि कांग्रेस पुनः आंदोलन प्रारंभ कर सकती है जो संभवतः 1942 के ‘भारत छोड़ो आंदोलन’ से भी अधिक भयंकर होगा क्योंकि इसमें कृषक असंतोष, मजदूर दुर्दशा, सरकारी सेवाओं से असंतुष्टि, संचार व्यवस्था का प्रयोग व आजाद हिंद फौज के सैनिकों इत्यादि कारकों का गठजोड़ बन सकता है। सरकार इस बात से भी चिंतित थी कि आजाद-हिंद फौज के सैनिकों का अनुभव सरकार के विरूद्ध हमले में प्रयुक्त किया जा सकता है।
- दक्षिण-पूर्व एशिया- विशेषकर वियतनाम व इण्डोनेशिया में उपनिवेशी शासन के विरूद्ध तीव्र विरोध चल रहा था। उसका सीधा असर भारत पर भी पड़ना तय था।
- इनके अतिरिक्त सबसे महत्त्वपूर्ण बात यह थी कि युद्धपरांत भारत में चुनाव आयोजन तय था क्योंकि 1934 में केंद्र के लिये एवं 1937 में प्रांतों के लिये जो चुनाव हुए थे, उसके पश्चात् चुनावों का आयोजन ही नहीं हुआ है। और, अबकी बार तो यह तय था कि जनता न केवल चुनाव प्रक्रिया में सक्रियता दिखाएगी अपितु कांग्रेस और मजबूत होकर सामने आएगी।
इन सब कारकों से विवश ब्रिटिश सरकार का दृष्टिकोण भारतीय स्वाधीनता की मांग और संवैधानिक सुधार के प्रति नरम व सकारात्मक हुआ।