शक्ति के विकेंद्रीकरण के प्रयासों के बावजूद भी इस क्षेत्र में कुछ नही हुआ। इस संदर्भ में पंचायत समिति और ग्राम पंचायतों में योजना व विकास कार्यों के लिये कोई भी उत्तरदायी नहीं है। वर्णन करें।
18 Mar, 2018 सामान्य अध्ययन पेपर 2 राजव्यवस्था
उत्तर की रूपरेखा :
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विकेन्द्रीकरण का अर्थ है कि शासन-सत्ता को एक स्थान पर केंद्रित करने के बजाय उसे स्थानीय स्तरों पर विभाजित किया जाए, ताकि आम आदमी की सत्ता में भागीदारी सुनिश्चित हो सके और वह अपने हितों व आवश्यकताओं के अनुरूप शासन-संचालन में अपनी भागीदारी सुनिश्चित कर सके। यही सत्ता के विकेंद्रीकरण का मूल आधार है। स्वतंत्रता के पश्चात् पंचायती राज की स्थापना लोकतांत्रिक विकेंद्रीकरण की अवधारणा को साकार करने के लिये उठाए गए महत्त्वपूर्ण कदमों में से एक था। भारत में यदि शक्ति विकेंद्रीकरण के प्रयासों पर प्रकाश डाला जाए तो ब्रिटिश शासनकाल में भी कुछ ऐसे पहलू उजागर होते हैं जो स्थानीय, ग्रामीण शासन को सुदृढ़ करते प्रतीत होते हैं, जैसे– लॉर्ड रिपन द्वारा स्थानीय शासन संबंधी सुधार के प्रयास।
देश में स्वतंत्रता के बाद ग्रामीण विकास की दिशा में सर्वप्रथम 20 अक्तूबर, 1952 को भारतीय सरकार ने सामुदायिक विकास कार्यक्रम आरंभ किया। इसके पश्चात् ग्रामीण भारत में निवास कर रहे गरीब लोगों की समस्याओं का अध्ययन करने व पंचायती राज पर विचार करने के लिये 1957 में बलवंत राय मेहता समिति का गठन किया गया।
संविधान के अनुच्छेद 40 में राज्यों को पंचायतों के गठन का निर्देश दिया गया है। इसके साथ ही संविधान की 7वीं अनुसूची (राज्य सूची) की प्रविष्टि 5 में ग्राम पंचायतों को शामिल करके इसके संबंध में क़ानून बनाने का अधिकार राज्य को दिया गया है। 1993 में संविधान में 73 वाँ संशोधन करके पंचायत राज संस्था को संवैधानिक मान्यता दे दी गई है और संविधान में भाग 9 को पुनः जोड़कर तथा इस भाग में 16 नए अनुच्छेदों (243 से 243-ण तक) और संविधान में 11वीं अनुसूची जोड़कर पंचायत के गठन, पंचायत के सदस्यों के चुनाव, सदस्यों के लिये आरक्षण तथा पंचायत के कार्यों के संबंध में व्यापक प्रावधान किये गए हैं।
73वाँ संविधान संशोधन अधिनियम हर राज्य में एक त्रि-स्तरीय पंचायती राज प्रणाली की व्यवस्था सुनिश्चित करता है– ग्राम पंचायत, पंचायत समिति और जिला परिषद। पंचायती राज व्यवस्था लागू करने के लिये राज्यों को अपने नियम बनाने का अधिकार है। फलस्वरूप अलग-अलग राज्यों में पद के आरक्षण, क्रियाकलाप आदि के प्रावधानों में विविधता देखी जा सकती है।
जितनी तेजी और उत्साह के साथ राज्यों में पंचायतों की स्थापना हुई उसी तेजी के साथ कुछ ही दिनों के बाद इन संस्थाओं का पतन होने लगा। स्थानीय विधायक तथा राज्य सत्ता के नेताओं ने पंचायती संस्थाओं के प्रतिनिधियों को भविष्य के लिये अपना राजनैतिक प्रतिद्वंद्वी महसूस करने लगे। दूसरी ओर प्रशासकीय कर्मचारियों को भी जन-प्रतिनिधियों की अधीनता में कार्य करना अच्छा नहीं लगा। पंचायतों पर जातिवाद, भ्रष्टाचार, पक्षपात, आकुलता जैसे आरोप भी लगे। पंचायतों में आर्थिक संसाधनों के अभाव, ग्रामीण जनता की उदासीनता, संस्थागत क्षमता की कमी, खराब बुनियादी ढाँचा, सरकारी पदाधिकारियों का असहयोग, राज्य सरकारों की निष्क्रियता आदि कारणों ने पंचायती व्यवस्था को निष्प्रभावी बना दिया। बहुत से राज्यों में कई वर्षों तक चुनाव नहीं कराये गए। दलीय कारणों से पंचायतों का अतिक्रमण किया गया। इन सबका परिणाम हुआ कि पंचायती राज संस्थाएँ अस्तित्वहीन हो गईं।