ज़मींदारी समाप्त करने के सरकारी दृढ़ निश्चय के बावज़ूद इस कार्य में लगभग एक दशक का समय लग गया था। ज़मींदारी उन्मूलन कानूनों को लागू करने में आई विभिन्न बाधाओं पर प्रकाश डालें।
उत्तर :
आज़ादी के बाद बनी सरकार आर्थिक विषमता दूर करने और भू-संसाधनों के न्यायपूर्ण स्वामित्त्व और वितरण को सुनिश्चित करने के लिये प्रतिबद्ध थी। अतः राज्य विधायिकाओं के माध्यम से ज़मींदारी उन्मूलन कानून पारित करवाने के तत्काल प्रयास किये गए। परंतु यह आसानी से हो सकने वाला कार्य नहीं था। इसके मार्ग में कई प्रकार की बाधाएँ आईं, जो कि निम्नलिखित हैं –
- कानून लागू करने के समक्ष एक बड़ी समस्या, भूमि संबंधी पर्याप्त रिकॉर्डों का अभाव था, क्योंकि कई इलाकों में बटाई देने का कार्य मौखिक तौर पर किया जाता था, इसलिये उनके कोई दस्तावेज़ नहीं थे।
- इस कानून के अंतर्गत उत्तर प्रदेश के ज़मींदारों को वे ज़मीनें रखने की अनुमति दी गई, जिन्हें उन्होंने अपनी “व्यक्तिगत खेती” के रूप में घोषित किया था। इस प्रावधान की अस्पष्टता और अपूर्णता के कारण उन सभी को “खेतिहर” बनाया जा सकता था, जो न सिर्फ ज़मीन जोत रहे थे, बल्कि व्यक्तिगत रूप से या किसी संबंधी के ज़रिये ज़मीन की देखभाल भी कर रहे थे।
- भू-स्वामियों ने राज्य विधायिकाओं में ऐसे कानूनों के पारित किये जाने की प्रक्रिया में वैधानिक अड़चनें डालीं। विधेयकों पर अनावश्यक लंबी बहस और बारंबार संशोधन पेश कर उन्हें कई वर्षों तक पारित होने से रोके रखा।
- यदि कानून पारित हो भी गए, तो भू-स्वामियों ने उनके अमल को रोकने के लिये न्यायिक प्रणाली का दुरुपयोग किया।
- भू-स्वामियों तथा निचले स्तर के राजस्व अधिकारियों के बीच सांठ-गांठ के कारण इन कानूनों को लागू करना और भी कठिन हो गया। कई राजस्व अधिकारी तो पूर्व में ज़मींदारों के लिये लगान वसूलने का काम करते थे।
बिहार के कुछ क्षेत्रों को छोड़कर देश के अधिकतर भागों में भू-स्वामियों के प्रतिरोध के बावज़ूद ज़मींदारी उन्मूलन प्रक्रिया भारतीय गणतंत्र की स्थापना के एक दशक के अंदर पूरी कर ली गई।