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प्रश्न :
हाल ही में भारतीय सेंसर बोर्ड फिल्मों की पूर्व-सेंसरशिप के लिये चर्चा में रहा। क्या इस तरह की सेंसरशिप स्वामित्व (कॉपीराइट) और मौलिक अधिकारों का उल्लंघन करती है? इसके विवादित पक्षों पर प्रकाश डालिये तथा भारतीय सिनेमा की समग्रता और भारत की विशिष्ट संस्कृति के संबंध में अपने सुझाव दीजिये।
02 Apr, 2018 सामान्य अध्ययन पेपर 2 राजव्यवस्थाउत्तर :
उत्तर की रूपरेखा:
- उत्तर की शुरुआत भारत में सेंसरशिप की पृष्ठभूमि से करें।
- चर्चा करें कि प्री-सेंसरशिप कॉपीराइट एवं मौलिक अधिकारों का उल्लंघन है या नहीं।
- भारतीय सिनेमा की समग्रता को बनाए रखने के लिये अपने सुझाव दें।
भारत में सेंसरशिप एक औपनिवेशिक विरासत है, जिसकी स्थापना 1920 में उपनिवेशवाद विरोधी भावना की अमेरिकी फिल्मों का प्रसारण रोकने के लिये की गई थी। प्री-सेंसरशिप शब्द का आशय है लोगों द्वारा देखे जाने के पूर्व ही सामग्री को सेंसर करना। केंद्रीय फिल्म प्रमाणन बोर्ड भारत में फिल्मों को प्रमाण पत्र देने तथा आपत्तिजनक सामग्री के प्रसारण को रोकने के लिये नोडल एजेंसी है। हाल ही केंद्रीय फिल्म प्रमाणन बोर्ड गलत कारणों से चर्चा में थी क्योंकि इसने फिल्मों के उन कंटेंट को रोका था जो कि फिल्मों का उद्देश्य ही बदल सकते हैं।
भारत में अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता भारतीय संविधान के अनुच्छेद 19 (1) के द्वारा प्रत्याभूत है जिसमें प्रेस तथा फिल्में भी शामिल हैं। यह विभिन्न माध्यमों द्वारा सूचना का मुक्त प्रवाह सुनिश्चित करती है। फिल्में जनसंचार का एक महत्त्वपूर्ण माध्यम हैं, जो कि न हमें केवल मनोंरजन प्रदान करती हैं, परंतु शिक्षित भी करती हैं। हाल ही में पद्मावत, उड़ता पंजाब, जॉली एल. एल. बी., लिपस्टिक अंडर माय बुर्का, विश्वरूपम इत्यादि फिल्मों से जुड़े विवादों पर केंद्रीय फिल्म प्रमाणन बोर्ड द्वारा लिये गए निर्णय भारत में प्री-सेंसरशिप की आवश्यकता पर प्रश्नचिह्न लगाते हैं। सूचना प्रौद्योगिकी नियम 2011 के अनुसार, आपत्तिजनक सामग्री वह है जो कि देश की एकता, अखंडता, सुरक्षा, भारत की संप्रभुता विदेशी राज्यों के साथ मैत्रीपूर्ण संबंध या सार्वजनिक व्यवस्था के लिये खतरा हो। ऐसी सामग्री को रोकना अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का हनन नहीं है। परंतु प्री-सेंसरशिप के नाम पर फिल्मकारों की रचनात्मकता को बाधित करना उन्हें हतोत्साहित करने वाला कदम है। इन विवादों के पीछे का मुख्य कारण केंद्रीय फिल्म प्रमाणन बोर्ड के सदस्यों का पूर्वाग्रह है, जो उन्हें समाज का नैतिक अभिभावक बनने को प्रेरित करता है। फिल्म में प्रयुक्त कोई भी मुद्दा जो समाज में प्रचलित व्यवस्था के विरुद्ध विचार प्रकट करता है, उसकी गहरी जाँच की जाती है। साथ ही यह भी देखा गया है कि जाँच के दौरान कुछ फिल्मों के प्रिंट लीक कर दिये गए जो फिल्म निर्माताओं के लिये कॉपीराइट की चिंता उत्पन्न करता है एवं उन्हें भारी वित्तीय हानि भी उठानी पड़ती है।
यद्यपि केंद्रीय फिल्म प्रमाणन बोर्ड द्वारा प्री-सेंसरशिप के दुरुपयोग के कुछ उदाहरण हैं परंतु राष्ट्रीय सुरक्षा एवं अखंडता कहीं अधिक महत्त्वपूर्ण है। इसका युक्तिपूर्ण उपयोग तथा प्रक्रिया के संहिताकरण की आवश्यकता है। किसी सामग्री को प्रसारित करने से रोकना अंतिम उपाय होना चाहिये, इस प्रकार स्क्रीन पर डिस्कलेमर प्रदर्शित करना भी उतना ही प्रभावकारी होगा और फिल्म निर्माता की रचनात्मकता भी प्रभावित नहीं होगी। आज के बुद्धिमान एवं जानकार दर्शकों को किसी चीज को देखने से रोकना कहीं अधिक नकारात्मक प्रभाव उत्पन्न कर सकता है।
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