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प्रश्न :
प्रवृत्ति से धार्मिक देश के लोगों पर धर्मनिरपेक्षता को थोपा जाना कहीं उनमें सांप्रदायिकता को तो जन्म नहीं देता? टिप्पणी करें।
02 Sep, 2017 सामान्य अध्ययन पेपर 1 संस्कृतिउत्तर :
उत्तर की रूपरेखा-
- भारत में सांप्रदायिकता और धर्मनिरपेक्षता की ऐतिहासिकता का विवरण दें।
- धर्मनिरपेक्षता एकता स्थापित करने के उपकरण के रूप में।
- धर्मनिरपेक्षता का राज्य द्वारा संचालित स्वरूप।
- निष्कर्ष
धर्मनिरपेक्षता से आशय यह है कि धर्म को राज्य के मामलों का हिस्सा नहीं होना चाहिये। भारत में धर्मनिरपेक्षता “सर्व धर्म समभाव” अर्थात् सभी धर्मों की समानता पर आधारित है। दूसरी ओर सांप्रदायिकता का अर्थ पूरे मानव समाज की तुलना में किसी एक विशेष नृजातीयता, जातीयता अथवा धर्म के प्रति दृढ़ विश्वास से है।
भारत में सांप्रदायिकता आधुनिक राजनीति के उद्भव का परिणाम है। जिसकी जड़ें 1905 के बंगाल विभाजन से लेकर 1909 के भारत सरकार अधिनियम और 1932 के कम्युनल अवार्ड तक बिखरी हुई हैं।
धर्मनिरपेक्ष शब्द भारतीय संविधान में 42वें संविधान संशोधन के बाद जोड़ा गया था। 1994 में उच्चतम न्यायालय ने धर्मनिरपेक्षता को भारतीय संविधान की आधारभूत विशेषता घोषित किया।
कई धर्मों का जन्म स्थल होने के साथ-साथ भारत में सभी धर्मों के प्रति सहनशीलता की भावना एक परंपरा के रूप में विद्यमान रही है। धर्मनिरपेक्षता शब्द भले ही संविधान में बाद में जोड़ा गया, परंतु यह विशेषता तो हम अशोक के धम्म और अकबर के दीन-ए-इलाही में कई सदियों पहले से ही देखते आए हैं। भारत में आज भी सभी धर्म एक जैसा सम्मान और संवैधानिक संरक्षण प्राप्त करते हैं।
एक अन्य दृष्टिकोण के अनुसार भारत में धर्मनिरपेक्षता राज्य द्वारा संचालित होती है। अल्पसंख्यकों को शिकायत है कि राज्य को धर्म के मामलों में हस्तक्षेप नहीं करना चाहिये। तीन तलाक के मसले पर मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड का कहना है कि सामाजिक सुधारों के नाम पर निजी कानूनों में परिवर्तन नहीं किया जा सकता। जैन धर्मावलंबी भी अपनी संथारा प्रथा का बचाव उसके हज़ारों सालों से चले आने के आधार पर करते आए हैं।
एक ओर अल्पसंख्यक यह सोचते हैं कि राज्य बहुसंख्यकों से प्रभावित होकर ही अल्पसंख्यकों के मामलों में दखल देता है, वहीं बहुसंख्यकों को यह संदेह होता है कि राज्य अल्पसंख्यकों का तुष्टिकरण कर रहा है। ऐसी प्रवृत्ति समुदायों में सांप्रदायिकता बढ़ाने का काम करती है।
सांप्रदायिकता के लिये धर्मनिरपेक्षता को ज़िम्मेदार मानना बिल्कुल भी उचित नहीं है। यह सत्य है कि गहरी धार्मिकता से जुड़े लोगों को धार्मिक आधारों पर आसानी से गुमराह किया जा सकता है, परंतु ऐसे में धर्मनिरपेक्षता ही उस द्वेषपूर्ण भावना का शमन करने में सहायक सिद्ध हो सकती है। धर्मनिरपेक्षता भारत के बहु-सांस्कृतिक समाज की एकता की आधारशिला है। यह न केवल एक संवैधानिक मूल्य है , बल्कि इसे प्रत्येक भारतीय की आत्मा और चरित्र का गुण होना चाहिये क्योंकि सांप्रदायिक सौहार्द्र स्थापित करना केवल राज्य की नहीं वरन् नागरिकों की भी ज़िम्मेदारी है।
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