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प्रश्न :
"पुनर्जागरण के बिना कोई भी सुधार संभव नहीं है।" 19वीं शताब्दी में भारत के सामाजिक-सांस्कृतिक जागरण के संदर्भ में उक्त कथन की चर्चा कीजिये।
07 Oct, 2017 सामान्य अध्ययन पेपर 1 इतिहासउत्तर :
उत्तर की रूपरेखा –
संक्षेप में पुनर्जागरण के महत्त्व को समझाएँ, फिर सवाल की मुख्य मांग पर ध्यान देते हुए 19वीं सदी में भारत में आयोजित विभिन्न सुधार आंदोलनों के बारे में बताएँ।
पुनर्जागरण एक बौद्धिक जागरण की प्रक्रिया है। इसमें तर्कों के आधार पर विचारों परंपराओं व मान्यताओं का परीक्षण कर उसे स्वीकार या अस्वीकार करने की प्रवृत्ति विकसित हुई। यद्यपि इस प्रक्रिया की शुरुआत यूरोप में हुई तथापि 19वीं-20वीं शताब्दी में भारत में भी सामाजिक-धार्मिक क्षेत्र में इसका अनुभव किया गया।
19वीं-20वीं शताब्दी तक भारतीय समाज तथा धर्म अनेक रूढ़ियों एवं कुप्रथाओं से ग्रस्त हो चुका था। जाति-प्रथा, छुआछूत, सती-प्रथा, बाल-विवाह, पर्दा-प्रथा जैसी बुराइयों से भारतीय जीवन ग्रसित था।
भारत में पुनर्जागरण ने समाज और संस्कृति को निम्नलिखित प्रकार से प्रभावित किया-
- भारत में अंग्रेज़ी शासन की स्थापना के साथ ही पाश्चात्य सभ्यता एवं ज्ञान-विज्ञान से भारतीयों का परिचय हुआ, इससे एक नए सामाजिक और शिक्षित वर्ग का उदय हुआ।
- ईसाई मिशनरी व प्रबुद्ध अंग्रेज़ों ने भारतीय शिक्षा का पाश्चात्य तथा वैज्ञानिक रूप विकसित किया।
- समाचार-पत्रों के विकास ने सूचनाओं के प्रसार के माध्यम से लोगों को देश-दुनिया की घटनाओं से परिचित करवाया और समाचार-पत्र सामाजिक विमर्श की अभिव्यक्ति बन गए।
- परिवहन साधनों के विकास ने लोगों का अन्य समुदायों और समाजों के साथ संपर्क स्थापित किया।
- भारतीयों में तर्कबुद्धिवाद का विकास हुआ एवं वे अपनी सामाजिक-धार्मिक मान्यताओं को मानवतावाद की कसौटी पर कसकर स्वीकार या अस्वीकार करने की ओर उन्मुख हुए। अर्थात् भारतीय समाज में पुनर्जागरण के प्रस्फुटन ने सुधारवादी दृष्टिकोण अपनाने को प्रेरित किया।
- राजाराम मोहन राय के प्रयास से सती-प्रथा उन्मूलन अधिनियम, ईश्वर चन्द्र विद्यासागर के प्रयास से विधवा पुनर्विवाह अधिनियम जैसे सामाजिक सुधारों को गति मिली। पुनर्जागरण के परिणामस्वरूप ही ब्रह्म समाज, प्रार्थना समाज, तत्त्व बोधनी सभा जैसे संगठनों का उदय हुआ जो उक्त सुधार के वाहक बने। बौद्धिक चेतना में इस तरह के परिवर्तन हिन्दू, मुस्लिम, सिख, पारसी सभी धर्मों में देखे गए, हालाँकि मात्रात्मक स्तर पर इनमें भिन्नता थी।
निष्कर्षतः कहा जा सकता है कि पुनर्जागरण ने 19वीं-20वीं शताब्दी में सामाजिक-धार्मिक सुधारों को मूर्त रूप प्रदान किया।
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