भारत में क्षेत्रवाद को बढ़ावा देने वाले विभिन्न कारकों की पहचान कीजिये।
21 Nov, 2017 सामान्य अध्ययन पेपर 1 भारतीय समाज
उत्तर की रूपरेखा:
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क्षेत्रवाद एक ऐसी अवधारणा है जो राजनीतिक, सांस्कृतिक, आर्थिक और वैचारिक रूप से क्षेत्र विशेष के हितों को सर्वोपरि मानता है। भारत में क्षेत्रवाद के लिये कई कारक उत्तरदायी हैं। उदाहरण के लिये पृथक् भाषा, अलग भौगोलिक पहचान, नृजातीय पहचान, असमान विकास, धार्मिक पहचान आदि। भारत में क्षेत्रवाद की अभिव्यक्ति पृथक् राज्य की मांग, विशेष राज्य या पूर्ण राज्य की मांग के साथ-साथ भारत संघ से अलग होने के रूप में भी होती है।
क्षेत्रवाद को बढ़ावा देने वाले कारक:
भाषा: भाषायी विविधता भारत की एक विशिष्ट पहचान है। भारत में क्षेत्रवाद की जड़ भाषा के साथ काफी गहरे रूप से जुड़ी है। भारत में आंध्र प्रदेश का गठन तथा महाराष्ट्र और गुजरात का विघटन भाषायी भावना को शमन करने का ही परिणाम है।
नृजातीय पहचान: भारत में पारिस्थितिकी आधारित और क्षेत्र आधारित जातीयता को लेकर आए दिन विरोध प्रदर्शन देखने को मिलते हैं। भारत का उत्तर-पूर्व क्षेत्र इसका साक्षी रहा है। बोडोलैंड और गोरखालैंड की मांग के पीछे यही कारण प्रभावी है।
असमान विकास: भारत में विकास प्रक्रिया के क्रम में विभिन्न राज्यों में विकास कार्य समान रूप से नहीं हो सका। इस कारण वंचित क्षेत्रों के लोगों में पृथकतावाद और क्षेत्रवाद का विकास देखने को मिलता है।
भौगोलिक व सांस्कृतिक पहचान: भारत के विभिन्न प्रदेशों में प्रादेशिक भिन्नता भी पाई जाती है। विभिन्न क्षेत्रों में रहने वाले लोगों में उनके क्षेत्र विशेष की प्रकृति के साथ जुड़ाव होता है, इसलिये इन क्षेत्रों के लोगों में अपनी क्षेत्र की सांस्कृतिक और भौगोलिक विशेषताओं को सुरक्षित रखने के क्रम में क्षेत्रवाद की भावना पनपने लगती है।
क्षेत्रवाद वस्तुतः भारत की विविधता व बड़े आकर से भी जुड़ा है, लेकिन सशक्त लोकतंत्र, प्रगतिशील संवैधानिक तंत्र और मज़बूत संघीय ढाँचे से भारत क्षेत्रवाद की समस्या से निपटने में सफल रहा है।