प्रश्न. 19वीं शताब्दी के सामाजिक-धार्मिक सुधार आंदोलनों ने औपनिवेशिक भारत में राष्ट्रीय चेतना के उदय में किस हद तक योगदान दिया? (250 शब्द)
उत्तर :
हल करने दृष्टिकोण:
- सामाजिक-धार्मिक सुधार आंदोलनों को परिभाषित करते हुए उत्तर की शुरुआत कीजिये तथा प्रारंभिक राष्ट्रीय चेतना के उदय में उनकी भूमिका को संक्षेप में बताइये।
- विस्तार से बताइये कि किस प्रकार इन सुधार आंदोलनों ने राष्ट्रीय जागृति में योगदान दिया, साथ ही उनकी अंतर्निहित सीमाओं की भी चर्चा कीजिये।
- इस बात पर बल देते हुए निष्कर्ष दीजिये कि इन सुधार आंदोलनों ने भारतीय राष्ट्रवाद के लिये वैचारिक आधार तैयार किया।
|
परिचय:
19वीं सदी का सामाजिक-धार्मिक सुधार आंदोलन आधुनिक भारत का पहला बौद्धिक सुधार आंदोलन था। इसने भारत में बुद्धिवाद और ज्ञानोदय को जन्म दिया जिसने अप्रत्यक्ष रूप से राष्ट्रीय चेतना में योगदान दिया। यह आधुनिक भारत के सभी सामाजिक, धार्मिक और राजनीतिक आंदोलनों का अग्रदूत था।
मुख्य भाग:
राष्ट्रीय चेतना में सुधार आंदोलनों की भूमिका:
- बौद्धिक जागृति और तर्कसंगत विचार: राजा राम मोहन राय जैसे सुधारकों ने अंधविश्वास से तर्क और मानवतावाद की ओर बदलाव का नेतृत्व किया।
- आत्मीय सभा (वर्ष 1815) और ब्रह्म समाज (वर्ष 1828) जैसी संस्थाओं की स्थापना करके, उन्होंने स्वतंत्र विचार और समालोचनात्मक परीक्षण की नींव रखी, जिसने अंतर्धार्मिक संवाद, शैक्षिक उन्नति एवं प्रगतिशील सामाजिक सुधार को बढ़ावा दिया।
- प्रिंट मीडिया, विशेष रूप से संवाद कौमुदी ने सुधार को जन जागरूकता में बदल दिया, तथा प्रारंभिक राजनीतिक चेतना को बढ़ावा दिया।
- सांस्कृतिक राष्ट्रवाद के माध्यम से एकता: आर्य समाज ने वैदिक मूल्यों की ओर लौटने और ‘भारत भारतीयों के लिये’ के नारे को प्रोत्साहित किया, जिससे राष्ट्रीय गौरव की भावना जागृत हुई।
- स्वामी विवेकानंद की वेदांत की पुनर्व्याख्या और रामकृष्ण मिशन जैसी संस्थाओं ने अध्यात्मवाद को राष्ट्र निर्माण के साथ जोड़ने में सहायता की।
- सामाजिक सुधार के माध्यम से सशक्तीकरण: ईश्वर चंद्र विद्यासागर ने विधवा पुनर्विवाह (जिसके परिणामस्वरूप विधवा पुनर्विवाह अधिनियम, 1856 बना) व महिला शिक्षा को बढ़ावा देकर तथा अधिक न्यायपूर्ण समाज के निर्माण के द्वारा महिला अधिकारों का संरक्षण में अहम भूमिका निभाई।
- ज्योतिबा फुले और सत्यशोधक समाज ने ब्राह्मणवादी प्रभुत्व पर प्रश्न उठाया और दलित सशक्तीकरण के लिये लड़ाई लड़ी।
- मुस्लिम सुधार और राजनीतिक आधुनिकता: अलीगढ़ आंदोलन ने मुसलमानों के बीच वैज्ञानिक शिक्षा और तर्कसंगत विचार पर बल दिया तथा राजनीतिक संयम एवं सहभागिता को बढ़ावा दिया।
- अंग्रेज़ों के प्रति वफादारी का समर्थन करते हुए, इसने सामुदायिक चेतना का भी परिचय दिया, जिसने बाद में पहचान-आधारित राजनीति को प्रभावित किया।
- राजनीतिक भाषा का निर्माण: स्थानीय प्रेस, पत्रिकाओं और सार्वजनिक वाद-विवादों के उदय ने राजनीतिक रूप से सक्रिय मध्यम वर्ग को बढ़ावा दिया। इन मंचों ने प्रारंभिक राजनीतिक विमर्श को आकार दिया, जिसके परिणामस्वरूप अंततः भारतीय राष्ट्रीय काॅन्ग्रेस (वर्ष 1885) जैसी संस्थाओं का गठन हुआ।
सुधार आंदोलन की सीमाएँ:
- अभिजात वर्ग-केंद्रित: मुख्य रूप से पश्चिमी शिक्षा प्राप्त, शहरी, उच्च वर्ग के पुरुषों द्वारा नेतृत्व किया जाता है, जिसमें ग्रामीण या सीमांत समुदायों की भागीदारी सीमित होती है।
- जातिगत पदानुक्रम: आर्य समाज के शुद्धि अभियान जैसे आंदोलनों में प्रायः दलितों को शामिल नहीं किया गया; अधिकांश सुधारों का ध्यान कट्टरपंथी जाति उन्मूलन के बजाय संयम पर केंद्रित था।
- सीमित मुस्लिम भागीदारी: अलीगढ़ आंदोलन जैसे मुस्लिम सुधार प्रयासों में अखिल भारतीय राष्ट्रवाद की तुलना में आधुनिक शिक्षा एवं अंग्रेज़ों के साथ सहयोग पर अधिक ध्यान केंद्रित किया गया।
- क्षेत्रीय विखंडन: अधिकांश आंदोलनों में अखिल भारतीय अपील का अभाव था, जैसे ब्रह्मो समाज बहुत हद तक बंगाल तक ही सीमित रहा।
- औपनिवेशिक सह-विकल्प: कुछ सुधारकों को अंग्रेज़ों से परोक्ष (यानि मौन/अप्रत्यक्ष तौर पर) समर्थन प्राप्त हुआ, जिन्होंने अपने ‘सभ्यता मिशन’ को उचित ठहराने के लिये उदारवादी सुधारों का इस्तेमाल किया, जिससे उपनिवेश-विरोधी भावना हतोत्साहित हुई।
निष्कर्ष:
हालाँकि इन आंदोलनों की क्षेत्रीय सीमाएँ और आंतरिक विरोधाभास थे, लेकिन उन्होंने निर्विवाद रूप से भारतीय राष्ट्रवाद के लिये वैचारिक और भावनात्मक आधार तैयार किया। स्वदेशी पहचान को पुनः प्राप्त करके और सुधार को बढ़ावा देकर, उन्होंने विखंडित समुदायों को राजनीतिक रूप से जागरूक समाज में बदलने का महत्त्वपूर्ण प्रयास किया।