प्रश्न. नागरिक-अधिकारों को बनाए रखने के लिये न्यायिक सक्रियता की प्रायः प्रशंसा की जाती रही है। राज्य के अंगों के बीच शक्ति संतुलन पर इसके प्रभाव का समालोचनात्मक मूल्यांकन कीजिये। (250 शब्द)
उत्तर :
हल करने का दृष्टिकोण:
- न्यायिक सक्रियता एवं नागरिकों के अधिकारों को बनाए रखने में इसकी भूमिका को परिभाषित कीजिये।
- नागरिक अधिकारों पर इसके सकारात्मक प्रभाव को बताते हुए शक्ति संतुलन में इससे उत्पन्न चुनौतियों का परीक्षण कीजिये।
- संतुलित दृष्टिकोण के साथ निष्कर्ष दीजिये।
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परिचय:
न्यायिक सक्रियता से तात्पर्य संविधान और नागरिकों के अधिकारों की रक्षा करने के क्रम में विधियों की व्याख्या करने में न्यायपालिका की सक्रिय भूमिका (यहाँ तक कि उन क्षेत्रों में भी जहाँ परंपरागत रूप से विधायिका या कार्यपालिका का क्षेत्राधिकार होता है) से है। व्यक्तिगत स्वतंत्रता की रक्षा में करने में इसकी भूमिका के लिये इसकी प्रशंसा की जाती है, वहीं इससे राज्य के अंगों (विधायिका, कार्यपालिका और न्यायपालिका) के बीच शक्ति संतुलन से संबंधित इसके प्रभाव के बारे में चिंताएँ पैदा होती हैं।
मुख्य भाग:
नागरिकों के अधिकारों की रक्षा हेतु न्यायिक सक्रियता:
- मूल अधिकारों का संरक्षण: न्यायिक सक्रियता मूल अधिकारों के दायरे को बढ़ाने में सहायक (विशेष रूप से सामाजिक न्याय और व्यक्तिगत स्वतंत्रता से संबंधित मामलों में) रही है।
- उदाहरण के लिये, मेनका गांधी बनाम भारत संघ (1978) मामले में न्यायालय ने अनुच्छेद 21 (जीवन और व्यक्तिगत स्वतंत्रता का अधिकार) की व्याख्या को व्यापक बनाते हुए इसमें सम्मान के साथ जीने के अधिकार को भी शामिल किया।
- इसी प्रकार, केशवानंद भारती मामले (1973) में मूल ढाँचा का सिद्धांत प्रस्तुत किया गया, जिसमें कहा गया कि संसद संविधान के मूल ढाँचे में संशोधन नहीं कर सकती है।
- प्रगतिशील न्यायशास्त्र: न्यायपालिका ने प्रगतिशील निर्णय देने में सक्रिय दृष्टिकोण अपनाया है जैसा कि नवतेज सिंह जौहर बनाम भारत संघ (2018) में देखा गया, जिसमें धारा 377 को खत्म करके सहमति वाले समलैंगिक संबंधों को अपराध मुक्त कर दिया गया।
- सामाजिक न्याय को बढ़ावा देने में न्यायिक हस्तक्षेप महत्त्वपूर्ण रहा है। विशाखा बनाम राजस्थान राज्य (1997) मामले में कार्यस्थल पर यौन उत्पीड़न का समाधान करने के लिये दिशा-निर्देश स्थापित किये गए।
- पर्यावरण संरक्षण: न्यायपालिका पर्यावरण संरक्षण के मामले में (विशेष रूप से टीएन गोदावर्मन थिरुमुलपाद मामले (1996) में) सक्रिय रही है, जहाँ सर्वोच्च न्यायालय ने भारत में वनों की सुरक्षा के लिये व्यापक निर्देश जारी किये थे।
- इस न्यायिक हस्तक्षेप से अक्सर पर्यावरणीय मुद्दों के संबंध में अपर्याप्त विधायी कार्रवाई के अंतराल को पूरा करने में मदद मिली।
शक्ति संतुलन में चुनौती के रूप में न्यायिक सक्रियता:
- विधायी क्षेत्र पर अतिक्रमण: श्याम नारायण चौकसे बनाम भारत संघ (2016) मामले में सर्वोच्च न्यायालय ने आदेश दिया कि सभी सिनेमा हॉलों में फिल्म शुरू होने से पहले राष्ट्रगान बजाना अनिवार्य है।
- आलोचकों का तर्क है कि यह राष्ट्रीय सम्मान अपमान निवारण अधिनियम, 1971 से परे विधायी क्षेत्र में हस्तक्षेप है।
- न्यायालय ने केंद्रीय मोटर वाहन नियम, 1989 की कुछ धाराओं को खारिज कर दिया और मार्च, 2020 के बाद BS-IV वाहनों की बिक्री पर रोक लगा दी।
- इस निर्णय की आलोचना यह कहकर की गई कि यह आमतौर पर कार्यपालिका और विधायिका द्वारा लिये जाने वाले नीतिगत निर्णयों पर अतिक्रमण है।
- शक्तियों के पृथक्करण में व्यवधान: अत्यधिक न्यायिक सक्रियता से नीति-निर्माण की ज़िम्मेदारियाँ निर्वाचित प्रतिनिधियों से न्यायपालिका पर स्थानांतरित होने से निर्वाचित प्रतिनिधियों तथा लोकतांत्रिक प्रक्रियाओं की भूमिका कमज़ोर हो सकती है।
- जैसा कि नर्मदा बचाओ आंदोलन जैसे मामलों में देखा गया, जहाँ न्यायालय के हस्तक्षेप से कार्यकारी निर्णयों में अतिक्रमण हुआ।
- लोकतांत्रिक जवाबदेही का अभाव: न्यायपालिका में प्रत्यक्ष लोकतांत्रिक जवाबदेही का अभाव बना हुआ है और जब इसके द्वारा जनहित याचिकाओं के माध्यम से दिशा-निर्देश तैयार करने जैसे नीतिगत निर्णय लिये जाते हैं तो इससे विधायिका को दरकिनार करने और ऐसे उपाय लागू करने का जोखिम बना रहता है जो लोगों के हितों के विपरीत हो सकते हैं।
आगे की राह:
- न्यायिक भूमिका को स्पष्ट करना: न्यायिक सक्रियता की भूमिका में संतुलन रहना चाहिये और इसको तभी हस्तक्षेप करना चाहिये जब मूल अधिकारों का हनन होने के साथ विधायी निष्क्रियता की स्थिति हो। उदाहरण के लिये, वर्ष 2017 का निजता के अधिकार से संबंधित निर्णय, जिसमें न्यायपालिका ने विधायिका के अधिकार क्षेत्र का अतिक्रमण किये बिना नागरिकों के अधिकारों का विस्तार किया।
- विधायिका की जवाबदेहिता को मज़बूत करना: जब विधायिका सामाजिक मुद्दों को सुलझाने के लिये सक्रिय दृष्टिकोण अपनाती है तो इससे न्यायिक हस्तक्षेप की आवश्यकता कम हो जाती है, जिससे संस्थागत सद्भाव बने रहने के साथ शक्तियों के पृथक्करण का सम्मान होता है।
- न्यायिक-कार्यकारी सहयोग: न्यायालयों को नियंत्रण और संतुलन बनाए रखने के लिये कार्यपालिका तथा विधायिका के साथ मिलकर कार्य करना चाहिये। उदाहरण के लिये, पर्यावरण संरक्षण अधिनियम (1986), जो कि न्यायिक सक्रियता द्वारा निर्देशित है, दर्शाता है कि सहयोग से किस प्रकार प्रभावी शासन प्राप्त किया जा सकता है।
निष्कर्ष:
न्यायिक सक्रियता ने नागरिकों के अधिकारों की रक्षा करने, न्याय सुनिश्चित करने और विधायिका एवं कार्यपालिका द्वारा निर्मित अंतराल को भरने में प्रमुख भूमिका निभाई है। हालाँकि, इसमें शक्तियों के संतुलन को बाधित करने की संभावना रहती है जिससे न्यायिक अतिक्रमण होने के साथ लोकतांत्रिक जवाबदेहिता में कमी आती है। इसलिये मूल अधिकारों की रक्षा के क्रम में न्यायिक सक्रियता के तहत शक्तियों के पृथक्करण को बनाए रखने के साथ यह सुनिश्चित होना आवश्यक है कि न्यायपालिका के कार्यों से राज्य के अन्य अंगों के कार्यों का अतिक्रमण न हो।