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मेन्स प्रैक्टिस प्रश्न

  • प्रश्न :

    प्रश्न 1. सत्य वह नहीं है जो हम देखते हैं, बल्कि वह है जिसे हम स्वीकार करते हैं।
    प्रश्न 2. अतीत एक मार्गदर्शक यंत्र है, लेकिन कोई निर्धारित नक्शा नहीं।

    29 Mar, 2025 निबंध लेखन निबंध

    उत्तर :

    1.सत्य वह नहीं है जो हम देखते हैं, बल्कि वह है जिसे हम स्वीकार करते हैं।

    • अपने निबंध को समृद्ध करने के लिये उद्धरण:
      • जॉर्ज ऑरवेल: "निष्पक्ष सत्य (objective truth) की संकल्पना धीरे-धीरे दुनिया से मिटती जा रही है। झूठ इतिहास का हिस्सा बन जाएगा।"
      • फ्रेडरिक नीत्शे: "तथ्य नाम की कोई चीज़ नहीं होती, केवल व्याख्याएँ होती हैं।"
      • कार्ल जंग: "जब तक आप अचेतन को चेतन नहीं बनाते, तब तक यह आपके जीवन का मार्गदर्शन करता रहेगा, और आप इसे भाग्य कहते रहेंगे।"
    • सैद्धांतिक और दार्शनिक आयाम:
      • सत्य बनाम धारणा:
        • मानवीय धारणा स्वाभाविक रूप से सीमित और व्यक्तिपरक होती है। हम जो देखते हैं वह प्रायः हमारे पूर्वाग्रहों, अनुभवों एवं सांस्कृतिक कंडीशनिंग के माध्यम से ही विकसित किया जाता है।
        • पुष्टि पूर्वाग्रह, चयनात्मक धारणा और डनिंग-क्रुगर प्रभाव जैसे संज्ञानात्मक पूर्वाग्रह वास्तविकता के प्रति हमारे दृष्टिकोण को आकार देते हैं।
      • नैतिक और बौद्धिक कार्य के रूप में स्वीकृति:
        • सत्य को स्वीकार करने के लिये साहस, ईमानदारी और जागरूकता की आवश्यकता होती है। इसकी अस्वीकृति प्रायः सुविधा या डर से उपजी होती है।
        • नैतिक मनोविज्ञान से पता चलता है कि व्यक्ति प्रायः संज्ञानात्मक स्थिरता या सामाजिक सद्भाव बनाए रखने के लिये असुविधाजनक सत्यों से बचते हैं।
      • उत्तर-सत्य युग में सत्य:
        • आज के सूचना युग में, तथ्य प्रायः आख्यानों में दब जाते हैं। जो चीज दृश्यता प्राप्त करती है, वह जरूरी नहीं कि वास्तविक हो, बल्कि वह होती है जिसे जनता या मीडिया द्वारा बढ़ा-चढ़ाकर पेश किया जाता है या चुना जाता है।
        • ‘सत्य’ निष्पक्ष सत्यापन का नहीं, बल्कि सामूहिक सहमति का कार्य बन गया है।
    • नीति और ऐतिहासिक उदाहरण:
      • इतिहास में चयनात्मक स्वीकृति:
        • जलवायु परिवर्तन से अस्वीकृति: विभिन्न वैज्ञानिक प्रमाणों के बावजूद, निहित स्वार्थों और अल्पकालिक राजनीतिक/आर्थिक लाभ के कारण अस्वीकृति जारी है।
        • भारत में जातिगत भेदभाव: यद्यपि कानूनी रूप से इसे समाप्त कर दिया गया है, फिर भी सामाजिक संरचनाएँ जाति-आधारित असमानताओं की गहरी वास्तविकता की अस्वीकृति जारी रखती हैं।
      • संक्रमणकालीन न्याय में सत्य:
        • दक्षिण अफ्रीका का ट्रुथ एंड रेकन्सिलीऐशन कमीशन (TRC): रंगभेद के अत्याचारों, क्रूरताओं को छुपाने (दबाने) के बजाय, TRC ने कड़वे सत्यों को स्वीकार करके राष्ट्रीय स्तर पर न्याय की प्रक्रिया को आगे बढ़ाया, शांति और सद्भावना को बढ़ावा दिया।
        • जर्मनी में होलोकॉस्ट शिक्षा: यह एक मॉडल है कि किस प्रकार ऐतिहासिक अत्याचारों को स्वीकार करना भावी पीढ़ियों में नैतिक जिम्मेदारी का निर्माण करता है।
    • समकालीन उदाहरण:
      • मीडिया और एल्गोरिद्म वास्तविकता:
        • इको चैम्बर्स: सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म उपयोगकर्त्ताओं को उनकी मान्यताओं से जुड़े कंटेंट दिखाते हैं, जिससे धारणा विकृत हो जाती है और वैचारिक ध्रुवीकरण होता है।
        • डीपफेक और गलत सूचना: वास्तविकता और भ्रम के बीच अंतर समाप्त होता जा रहा है, जिससे ‘सत्य’ को एल्गोरिदमिक वेलिडेशन का विषय बना दिया गया है।
      • व्यक्तिगत मनोविज्ञान:
        • कई लोग भावनात्मक या मनोवैज्ञानिक आघात का सामना करने के बजाय उसे नजरअंदाज़ कर देते हैं, जिससे यह पता चलता है कि सत्य हमेशा नजर नहीं आता, बल्कि उससे निपटने के लिये उसे चुनना पड़ता है।

    2.अतीत एक मार्गदर्शक यंत्र है, लेकिन कोई निर्धारित नक्शा नहीं।

    • अपने निबंध को समृद्ध करने के लिये उद्धरण:
      • कन्फ्यूशियस: “यदि आप भविष्य को परिभाषित करना चाहते हैं तो अपने अतीत का अध्ययन कीजिये।”
      • विंस्टन चर्चिल: "जो लोग इतिहास से सीख लेने में असफल रहते हैं, वे उसे दोहराने के लिये अभिशप्त भी होते हैं।"
      • युवाल नोआ हरारी: "इतिहास तब शुरू हुआ जब मानवों ने देवताओं का आविष्कार किया, और तब समाप्त होगा जब मानव स्वयं देवता बन जाएंगे।"
    • सैद्धांतिक और दार्शनिक आयाम:
      • कम्पास बनाम मानचित्र:
        • मानचित्र निश्चित दिशाएँ और निश्चितताएँ सुझाता है, जबकि कम्पास/मार्गदर्शक यंत्र कोई एक मार्ग बताए बिना दिशा-निर्देश प्रदान करता है।
        • इतिहास को यंत्रवत् दोहराया नहीं जा सकता; यह सिद्धांतों का मार्गदर्शन तो कर सकता है, लेकिन परिणामों का नहीं।
      • ऐतिहासिक नियतिवाद का खतरा:
        • अतीत के मॉडलों पर अंध निर्भरता (जैसे: गौरवशाली इतिहास में निहित राष्ट्रवाद) प्रायः प्रतिगामी नीतियों या संघर्ष को जन्म देती है।
        • मानवीय क्षमता और संदर्भ विकसित होते रहते हैं— अतीत में जो कारगर रहा, वह भिन्न सामाजिक-राजनीतिक परिदृश्य में अप्रासंगिक या हानिकारक भी हो सकता है।
      • पहचान और नैतिकता में इतिहास का उपयोग:
        • अतीत नैतिक मानदंड और सामूहिक स्मृति प्रदान करता है। यह समाज को यह याद रखने में मदद करता है कि किस घटना को कभी दोहराया नहीं जाना चाहिये- जैसे: नरसंहार, गुलामी या औपनिवेशिक उत्पीड़न।
        • दार्शनिक दृष्टि से, इतिहास अस्तित्वगत आधार प्रदान करता है, लेकिन इसे भविष्य के नवाचार को रोकने वाली जंजीर नहीं होना चाहिये।
    • नीति और ऐतिहासिक उदाहरण:
      • अतीत के उत्पादक उपयोग:
        • भारतीय संविधान: इसमें विभिन्न वैश्विक संविधानों से विशेषताएँ उधार ली गई हैं, न कि टेम्पलेट के रूप में, बल्कि मार्गदर्शक दार्शनिक सिद्धांतों के रूप में (जैसे: ब्रिटेन की संसदीय प्रणाली, अमेरिका का संघवाद)।
        • यूरोपीय संघ का गठन: दो विश्व युद्धों की तबाही से सीख लेते हुए, यूरोपीय देशों ने अतीत को नैतिक दिशा-निर्देश के रूप में उपयोग करते हुए, राष्ट्रवाद के स्थान पर एकीकरण को चुना।
      • तीत का दुरुपयोग या उस पर अत्यधिक निर्भरता:
        • नाज़ी जर्मनी का पौराणिक अतीत: हिटलर द्वारा आर्यन जाति और प्राचीन जर्मनिक पहचान के महिमामंडन ने फासीवाद एवं नरसंहार को जन्म दिया।
        • तालिबान द्वारा शरिया कानून लागू करना: लैंगिक समानता और मानवाधिकारों के आधुनिक मूल्यों की अनदेखी करते हुए पुरानी सामाजिक व्यवस्था को पुनः स्थापित करने का प्रयास।
    • समकालीन उदाहरण:
      • इतिहास-प्रेरित सुधार:
        • उपनिवेशवाद और युद्ध से दक्षिण कोरिया का उत्थान: अतीत पर विलाप करने के बजाय, यह अपने राष्ट्रीय आख्यान को पुनर्परिभाषित करके एक प्रौद्योगिकी और शिक्षा केंद्र बन गया।
        • रवांडा में नरसंहार के बाद सत्य और सुलह: अतीत को स्वीकार करते हुए समाज का पुनर्निर्माण करना, लेकिन प्रतिशोध में न फँसना।
      • अतीत में अस्तित्व के खतरे:
        • सांस्कृतिक अतीत-प्रेम से जुड़े आंदोलनों में प्रायः प्रगतिशील कानूनों का विरोध किया जाता है—चाहे वह LGBTQ+ अधिकार हों या लैंगिक समानता। वे अपने विरोध को 'परंपरागत मूल्यों' का हवाला देकर उचित ठहराते हैं।
        • भूराजनीति में, प्रतिशोधात्मक विचारधाराएँ (जैसे: रूस द्वारा सोवियत युग के गौरव का आह्वान) वैश्विक अस्थिरता उत्पन्न करती हैं।

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